class 10 hindi Kavita bhavarth prasang kavya saundarya : सूरदास भ्रमरगीत: 1.उधो, तुम हो आती बड़भागी, 2.मन की मन ही माँझ रही, 3.हमारे हरि हारिल की लकरी, 4.हरि हैं राजनीति पढ़ी आए, तुलसीदास : राम लक्ष्मण परशुराम संवाद, जयशंकर प्रसाद : आत्मकथ्य, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला : 1. उत्साह, 2. अट नहीं रही है, नागार्जुन : 1. यह दंतुरित मुस्कान, 2. फसल, मगलेश डबराल : संगतकार
पद १: भ्रमरगीत (सूरसागर)
मूल पाठ:
ऊधौ, तुम हो अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोस्यौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।
संदर्भ:
यह पद सूरदास के सूरसागर के भ्रमरगीत खंड से लिया गया है। इस पद में गोपियाँ उद्धव को संबोधित करते हुए उनके प्रति व्यंग्य करती हैं। कृष्ण द्वारा मथुरा जाने के बाद उद्धव उनके संदेशवाहक बनकर गोपियों के पास आए और निर्गुण ब्रह्म व योग का उपदेश दिया। गोपियाँ, जो प्रेम मार्ग की अनुयायी हैं, उद्धव के इस शुष्क उपदेश से असंतुष्ट हैं। इस पद में वे भौंरे के बहाने उद्धव पर व्यंग्य करती हैं।
भावार्थ:
गोपियाँ उद्धव को “अति बड़भागी” कहकर तंज कसती हैं, क्योंकि वे स्नेह के बंधन से मुक्त हैं और उनके मन में प्रेम का अनुराग नहीं है। गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव का हृदय कमल के पत्ते की तरह है, जो पानी में रहकर भी उसका रस ग्रहण नहीं करता, या तेल की गागर की तरह है, जो पानी में रहकर भी उसकी एक बूँद से नहीं भीगती। वे उद्धव को ताने मारते हुए कहती हैं कि तुमने कभी प्रेम की नदी में पैर नहीं डुबोया, न ही तुम्हारी दृष्टि प्रेम के रूप पर मोहित हुई। अंत में, सूरदास के माध्यम से गोपियाँ स्वयं को अबला और भोली कहती हैं, जो गुरु (उद्धव) के सामने चाटी (शिष्या) की तरह प्रेम में पागल हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ:
रस: यह पद वियोग शृंगार रस से ओतप्रोत है, जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति विरह और उद्धव के प्रति व्यंग्य मिश्रित है।
अलंकार: उपमा (जल में कमल के पत्ते और तेल की गागर की तरह) और व्यंग्योक्ति अलंकार का सुंदर प्रयोग।
भाषा: ब्रजभाषा का सहज और सरस प्रयोग, जो गोपियों की भावनाओं को जीवंत करता है।
छंद: दोहा और रोला छंद का मिश्रण, जो भक्ति और प्रेम की गहराई को व्यक्त करता है।
पद २
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।
भावार्थ:
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि उनके मन की पीड़ा और अभिलाषाएँ मन में ही रह गईं, क्योंकि वे उन्हें किसी से कह नहीं सकतीं। कृष्ण के लौटने की आशा उनकी अवधि (प्रतीक्षा) का आधार थी, जिसके कारण उनका तन-मन पीड़ा सह रहा है। उद्धव के योग और ज्ञान के संदेश सुनकर उनकी विरह वेदना और बढ़ गई है। वे कहती हैं कि जितना वे अपनी व्यथा व्यक्त करना चाहती थीं, उतना ही उनका प्रेम और गहरा होता गया। सूरदास के माध्यम से गोपियाँ पूछती हैं कि अब वे धैर्य कैसे रखें, क्योंकि उनकी मर्यादा (आत्मसम्मान) नष्ट हो रही है।
रस: वियोग शृंगार
अलंकार: उपमा, प्रश्न, और व्यंजना
विशेषता: गोपियों की विरह वेदना और प्रेम की गहराई का मार्मिक चित्रण।
पद ३
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ कर पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी यह तौ ‘सूर’।
तिनहिं लै सौंपौ, जिनके सुनी न करी। मन चकरी।।
भावार्थ:
गोपियाँ कहती हैं कि उनके हृदय में कृष्ण (नंद-नंदन) ही बसे हैं, और यह प्रेम उनके मन, कर्म, और वचन में दृढ़ है, जैसे हारिल पक्षी की लकड़ी (जो उसे पकड़ने में सहायक होती है)। वे दिन-रात, जागते- सोते, स्वप्न में केवल कृष्ण का ही स्मरण करती हैं। उद्धव का योग उपदेश उन्हें कड़वी ककड़ी जैसा लगता है, जो उनके प्रेम के सामने तुच्छ है। गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव ने उनके लिए यह “रोग” (योग संदेश) लाकर उनकी पीड़ा बढ़ा दी। सूरदास के माध्यम से वे कहती हैं कि यह संदेश उन्हें लौटा दो, जिन्होंने इसे सुनने की सलाह दी, क्योंकि उनका मन तो कृष्ण के प्रेम में चकरी (चक्कर खाता) है।
रस: वियोग शृंगार और व्यंग्य
अलंकार: उपमा (करुई ककरी), रूपक (मन चकरी), और अनुप्रास
विशेषता: गोपियों का प्रेम मार्ग के प्रति दृढ़ विश्वास और उद्धव के उपदेश का तिरस्कार।
पद ४
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।
भावार्थ:
गोपियाँ व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि कृष्ण अब राजनीति सीख आए हैं। भौंरे (उद्धव) के माध्यम से वे सब समाचार जान चुकी हैं। कृष्ण पहले से ही चतुर थे, और अब गुरु और ग्रंथों ने उनकी बुद्धि और बढ़ा दी है, जिसके कारण उन्होंने योग का संदेश भेजा। गोपियाँ उद्धव को भले मानते हुए ताना मारती हैं कि वे दूसरों के हित के लिए दौड़ते हैं, लेकिन अब उन्हें अपने मन को समझाना होगा, क्योंकि कृष्ण ने उनका मन चुरा लिया था। वे प्रश्न करती हैं कि जो दूसरों को अनीति से बचाते हैं, वे स्वयं अनीति क्यों करें? सूरदास के माध्यम से गोपियाँ कहती हैं कि सच्चा राजधर्म वही है, जो प्रजा को कष्ट न दे।
रस: व्यंग्य और संन्यास रस के साथ वियोग शृंगार
अलंकार: व्यंग्योक्ति, प्रश्न, और अनुप्रास
विशेषता: सूरदास की लोकधर्मिता और गोपियों का राजधर्म के प्रति जागरूक दृष्टिकोण।
साहित्यिक विशेषताएँ:
भाषा: ब्रजभाषा का सरस और व्यंग्यात्मक प्रयोग।
छंद: दोहा और रोला छंद का संयोजन।
थीम: प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता, विरह वेदना, और लोकधर्मिता का समन्वय।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
संदर्भ
यह अंश तुलसीदास के रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है, जिसमें सीता स्वयंवर के दौरान राम द्वारा शिव-धनुष भंग किए जाने के बाद मुनि परशुराम के क्रोध और राम-लक्ष्मण के साथ उनके संवाद का वर्णन है। परशुराम का क्रोध शिव-धनुष के प्रति उनकी निष्ठा और भक्ति को दर्शाता है, जबकि लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ और राम की विनम्रता इस प्रसंग को नाटकीय और रोचक बनाती हैं। विश्वामित्र की मध्यस्थता और राम की शक्ति की परीक्षा के बाद परशुराम का क्रोध शांत होता है।
मूल पाठ
अरिकरनी करि करिअ लराई।। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
न त मारे जैहहिं सब राजा।। बोले परसुध अवमाने।।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।। नाथ संभुधनु भंजनिहारा।।
होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। आयेसु काह कहिअ किन मोही।।
सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।। सेवकु सो जो करै सेवकाई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा।। सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने।। बहु धनुही तोरी लरिकाईं।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू।। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
भावार्थ
- परशुराम का क्रोध:
परशुराम क्रोध में कहते हैं कि जो शिव-धनुष को तोड़ेगा, वह उनके लिए सहस्रबाहु जैसे शत्रु के समान है। वे धमकी देते हैं कि यदि वह व्यक्ति नहीं मारा गया, तो सभी राजा मारे जाएँगे। वे विश्वामित्र से कहते हैं कि उन्होंने कभी इतना क्रोध नहीं किया और पूछते हैं कि धनुष तोड़ने वाला उनका कौन-सा दास है। वे राम को चुनौती देते हैं कि जिसने धनुष तोड़ा, वह सामने आए, अन्यथा सारा समाज नष्ट हो जाएगा। - लक्ष्मण की व्यंग्योक्ति:
परशुराम के क्रोध भरे वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कुराते हैं और व्यंग्य करते हैं कि उन्होंने बचपन में कई धनुष तोड़े हैं, फिर इस धनुष के प्रति इतनी ममता क्यों? लक्ष्मण परशुराम को “नृपबालक” (राजकुमार) कहकर और उनके क्रोध को काल (मृत्यु) के वश में बताकर तंज कसते हैं। - परशुराम का जवाब:
परशुराम लक्ष्मण की बात सुनकर और क्रोधित होकर कहते हैं कि लक्ष्मण को यह नहीं समझ है कि वे किसके बारे में बोल रहे हैं। वे शिव-धनुष को “त्रिपुरारि (शिव) का धनुष” बताते हैं, जो पूरे संसार में प्रसिद्ध है, और इसका अपमान असहनीय है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- रस:
- वीर रस: परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की नन्हीं चुनौती वीर रस को प्रबल करते हैं।
- हास्य रस: लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ हास्य का पुट देती हैं।
- अलंकार:
- व्यंग्योक्ति: लक्ष्मण की उक्तियाँ, जैसे “बहु धनुही तोरी लरिकाईं” और “येहि धनु पर ममता केहि हेतू”, व्यंग्य और तंज से भरी हैं।
- उपमा: परशुराम द्वारा धनुष तोड़ने वाले की तुलना सहस्रबाहु से।
- अनुप्रास: “सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही” में ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- भाषा:
- अवधी: तुलसीदास की अवधी भाषा सरस, सहज, और भावपूर्ण है।
- संवाद शैली: संवादों में नाटकीयता और जीवंतता है, जो पाठक को बाँधे रखती है।
- छंद:
- चौपाई: इस अंश का मुख्य छंद चौपाई है, जो रामचरितमानस की विशेषता है।
- दोहा: बीच-बीच में दोहे संवाद को गति और प्रभाव देते हैं।
- विशेषता:
- लक्ष्मण की वाक्चातुर्य: लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ उनकी बुद्धिमत्ता और साहस को दर्शाती हैं।
- परशुराम का चरित्र: उनका क्रोध और शिव-भक्ति उनके क्षत्रिय-विरोधी स्वभाव और भक्ति भाव को उजागर करती है।
- राम की अनुपस्थिति में भी उपस्थिति: हालाँकि इस अंश में राम प्रत्यक्ष रूप से बोलते नहीं दिखते, उनकी शक्ति और मर्यादा का आभास परशुराम के क्रोध और लक्ष्मण के आत्मविश्वास में झलकता है।
प्रमुख बिंदु
- प्रसंग: सीता स्वयंवर में शिव-धनुष भंग होने पर परशुराम का क्रोध और राम-लक्ष्मण के साथ संवाद।
- मुख्य पात्र: परशुराम, लक्ष्मण, और विश्वामित्र (राम पृष्ठभूमि में उपस्थित हैं)।
- भाव: वीर रस, व्यंग्य, और भक्ति भाव का समन्वय।
- उद्देश्य: राम की शक्ति और मर्यादा को स्थापित करना, साथ ही लक्ष्मण की वाक्पटुता और साहस को उजागर करना।
राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद (जारी)
संदर्भ
यह अंश तुलसीदास के रामचरितमानस के बालकांड से लिया गया है, जो सीता स्वयंवर में राम द्वारा शिव-धनुष भंग किए जाने के बाद मुनि परशुराम के क्रोध और राम-लक्ष्मण के साथ संवाद का हिस्सा है। इस अंश में परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ इस प्रसंग को नाटकीय और वीर रस से परिपूर्ण बनाती हैं। लक्ष्मण की वाक्पटुता और परशुराम की प्रतिक्रिया इस संवाद की विशेषता है।
मूल पाठ
लखन कहा हसि हमरे जाना। का छति लाभु जून धनु तोरें।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। बोले चितै परसु की ओरा।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
सुनहु देव सब धनुष समाना। देखा राम नयन के भोरें।
मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।
केवल मुनि जड़ जानहि मोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।
सहसबाहु भुज छेद निहारा। परसु बिलोकु महीप कुमारा।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।
तरजनी देखि मरि जाहीं। सरासन बाना।
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। देखि कुठारु हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।
मारतहू पापरिअ तुम्हारें। सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।
अपकीरति हारें। बधें पापु ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।
भावार्थ
- लक्ष्मण की व्यंग्योक्ति:
लक्ष्मण हँसते हुए परशुराम से कहते हैं कि पुराना धनुष टूटने से क्या हानि-लाभ हुआ? राम ने तो इसे केवल छुआ और यह टूट गया, इसमें राम का कोई दोष नहीं। वे परशुराम के क्रोध पर व्यंग्य करते हैं कि क्या सभी धनुष एक समान नहीं हैं? लक्ष्मण परशुराम को “सठ” (मूर्ख) कहकर तंज कसते हैं कि वे उनके स्वभाव को नहीं जानते। वे कहते हैं कि परशुराम को केवल मुनि समझना भूल है, क्योंकि वे विश्वविख्यात क्षत्रियकुल के शत्रु हैं, जिन्होंने अपनी भुजबल से पृथ्वी को कई बार राजविहीन किया और सहस्रबाहु के भुज काटे। - परशुराम का क्रोध:
परशुराम क्रोधित होकर कहते हैं कि वे लक्ष्मण को केवल बालक और ब्रह्मचारी होने के कारण नहीं मार रहे। वे धमकी देते हैं कि उनका परशु (कुल्हाड़ी) गर्भ के शिशुओं को भी नष्ट करने में सक्षम है। वे राम को देखकर कहते हैं कि वह धनुष तोड़ने वाले को सामने लाएँ, अन्यथा माता-पिता को शोक में डालने वाला परिणाम भुगतना पड़ेगा। - लक्ष्मण की प्रतिक्रिया:
लक्ष्मण फिर से मृदु (नरम) किंतु व्यंग्यपूर्ण बाणी में कहते हैं कि परशुराम स्वयं को महान योद्धा मानते हैं और बार-बार अपनी कुल्हाड़ी दिखाकर पहाड़ को उड़ाने की बात करते हैं। वे तंज कसते हैं कि यहाँ कोई “कुम्हड़बतिया” (कमजोर व्यक्ति) नहीं है। लक्ष्मण कहते हैं कि उनके कुल में कोई परशुराम की कुल्हाड़ी से डरता नहीं, और यदि वे देवता, ब्राह्मण, हरिजन, या गाय को मारते हैं, तो यह पाप होगा। लक्ष्मण परशुराम के शब्दों को वज्र के समान कठोर बताते हैं और कहते हैं कि धनुष-बाण और कुल्हाड़ी व्यर्थ हैं। अंत में, वे क्षमा माँगते हुए कहते हैं कि यदि कुछ अनुचित कहा हो, तो धीर मुनि उसे क्षमा करें। - परशुराम का जवाब:
परशुराम लक्ष्मण की बात सुनकर और क्रोधित होकर गंभीर स्वर में बोलते हैं (अंश यहाँ समाप्त होता है, आगे का संवाद अगले अंश में होगा)।
साहित्यिक विशेषताएँ
- रस:
- वीर रस: परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण की निर्भीकता वीर रस को प्रबल करते हैं।
- हास्य रस: लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण उक्तियाँ, जैसे “कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं” और “उड़ावन फूँकि पहारू”, हास्य का पुट देती हैं।
- अलंकार:
- व्यंग्योक्ति: लक्ष्मण की उक्तियाँ, जैसे “पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु” और “कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं”, व्यंग्य से परिपूर्ण हैं।
- उपमा: परशुराम के शब्दों को “कोटि कुलिस सम” कहना।
- अनुप्रास: “बालकु बोलि बधौं नहि तोही” और “पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु” में ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- भाषा:
- अवधी: तुलसीदास की अवधी भाषा सरस, सहज, और संवादमय है, जो पात्रों के चरित्र को जीवंत करती है।
- संवाद शैली: संवादों में नाटकीयता और तीक्ष्णता है, जो पाठक को बाँधे रखती है।
- छंद:
- चौपाई: इस अंश का मुख्य छंद चौपाई है, जो रामचरितमानस की विशेषता है।
- दोहा: संवादों को गति और समापन देने के लिए दोहों का प्रयोग।
- विशेषता:
- लक्ष्मण की वाक्चातुर्य: लक्ष्मण की व्यंग्यपूर्ण और साहसपूर्ण उक्तियाँ उनकी बुद्धिमत्ता और निर्भीकता को दर्शाती हैं।
- परशुराम का चरित्र: उनका क्रोध, शिव-भक्ति, और क्षत्रिय-विरोधी स्वभाव उनके चरित्र की गहराई को उजागर करता है।
- नाटकीयता: संवादों में नाटकीय तत्व इस प्रसंग को जीवंत और रोचक बनाते हैं।
प्रमुख बिंदु
- प्रसंग: सीता स्वयंवर में शिव-धनुष भंग होने पर परशुराम का क्रोध और लक्ष्मण के साथ संवाद।
- मुख्य पात्र: परशुराम, लक्ष्मण (राम पृष्ठभूमि में उपस्थित हैं)।
- भाव: वीर रस, हास्य, और व्यंग्य का समन्वय।
उद्देश्य: लक्ष्मण की वाक्पटुता और साहस को उजागर करना, साथ ही परशुराम के क्रोध और शिव-भक्ति को दर्शाना।
आत्मकथ्य: जयशंकर प्रसाद
संदर्भ
जयशंकर प्रसाद की कविता आत्मकथ्य हंस पत्रिका के आत्मकथा विशेषांक (1932) के लिए लिखी गई थी। प्रेमचंद के संपादन में प्रकाशित इस विशेषांक के लिए प्रसाद के मित्रों ने उनसे आत्मकथा लिखने का आग्रह किया, लेकिन प्रसाद इसके लिए सहमत नहीं थे। उनकी इस असहमति के तर्क से प्रेरित होकर यह कविता रची गई। छायावादी शैली में लिखी गई यह कविता उनके जीवन के यथार्थ और अभाव पक्ष को मार्मिक ढंग से व्यक्त करती है, साथ ही उनकी विनम्रता को भी उजागर करती है।
कविता की विशेषताएँ
- छायावादी शैली:
- कविता में छायावाद की सूक्ष्मता, प्रतीकात्मकता, और भावात्मक गहराई स्पष्ट है।
- प्रसाद ने ललित, सुंदर, और नवीन शब्दों तथा बिंबों का प्रयोग कर अपने मनोभावों को व्यक्त किया है।
- यथार्थ और विनम्रता:
- कवि अपने जीवन को एक सामान्य व्यक्ति का जीवन बताते हैं, जिसमें कोई महान या रोचक घटना नहीं है जो लोगों की प्रशंसा बटोरे।
- वे अपने जीवन के अभाव और सादगी को स्वीकार करते हैं, जो उनकी विनम्रता को दर्शाता है।
- मनोभावों की अभिव्यक्ति:
- कविता में प्रसाद ने अपने जीवन के यथार्थ को स्वीकार करते हुए उसकी सादगी और सामान्यता को रेखांकित किया है।
- छायावादी शैली के अनुरूप, वे अपने अंतर्मन की भावनाओं को प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
- भाषा और शैली:
- हिंदी भाषा: प्रसाद की भाषा सरल, शुद्ध, और भावपूर्ण है, जिसमें संस्कृतनिष्ठ शब्दों का सुंदर प्रयोग है।
- बिंब और प्रतीक: नवीन और सूक्ष्म बिंबों का उपयोग, जो छायावाद की विशेषता है।
- लालित्य: कविता की शैली में कोमलता और सौंदर्य का समन्वय है।
साहित्यिक महत्व
- आत्मकथ्य छायावादी काव्य की विशेषताओं—सौंदर्य, प्रकृति, और आत्मिक चेतना—को दर्शाती है, लेकिन यह कविता अन्य छायावादी रचनाओं से भिन्न है क्योंकि यह व्यक्तिगत यथार्थ और विनम्रता पर केंद्रित है।
- कवि की असहमति और उनकी विनम्र स्वीकारोक्ति इस कविता को अनूठा बनाती है।
- यह कविता प्रसाद की दार्शनिक गहराई और जीवन के प्रति उनके संवेदनशील दृष्टिकोण को उजागर करती है।
प्रमुख बिंदु
- प्रकाशन: 1932 में हंस पत्रिका के आत्मकथा विशेषांक में।
- प्रेरणा: प्रेमचंद और मित्रों के आग्रह के बावजूद आत्मकथा लिखने की असहमति।
- विषय: जीवन के यथार्थ, अभाव, और विनम्रता का चित्रण।
- शैली: छायावादी, प्रतीकात्मक, और भावपूर्ण।
आत्मकथ्य: जयशंकर प्रसाद
मूल पाठ
मधुप गुन-गुना कर कह जाता कौन कहानी यह अपनी,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ SEE कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास
तब भी कहते हो–कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे–यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
यह विडंबना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिला कर हँसते होने वाली उन बातों की।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर जाग गया।
आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया।
जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में।
अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।
उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।
सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्यों मेरी कंथा की?
छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएँ आज कहूँ?
क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?
सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्म-कथा?
अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्यथा।
संदर्भ
आत्मकथ्य जयशंकर प्रसाद की छायावादी कविता है, जो 1932 में हंस पत्रिका के आत्मकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद के संपादन में इस विशेषांक के लिए प्रसाद के मित्रों ने उनसे आत्मकथा लिखने का आग्रह किया, लेकिन प्रसाद इसके पक्ष में नहीं थे। उनकी इस असहमति से प्रेरित होकर यह कविता रची गई। कविता में प्रसाद ने अपने जीवन के यथार्थ, अभाव, और सादगी को विनम्रता के साथ व्यक्त किया है, जो छायावाद की सूक्ष्मता और प्रतीकात्मकता से परिपूर्ण है।
भावार्थ
- जीवन की सादगी और यथार्थ:
कवि कहते हैं कि उनका जीवन एक साधारण कहानी है, जैसे भँवरे (मधुप) का गुनगुनाना या पत्तियों का मुरझाकर गिरना। यह जीवन अनंत नीलिमा (आकाश) में असंख्य जीवन-इतिहासों की तरह है, जो व्यंग्य और उपहास के साथ बीत जाता है। - आत्मकथा लिखने की अनिच्छा:
प्रसाद आत्मकथा लिखने के लिए कहने वालों से पूछते हैं कि अपनी दुर्बलताओं और बीते जीवन को क्यों उजागर करें, जब वह “खाली गागर” की तरह है। वे व्यंग्य करते हैं कि लोग उनकी कहानी सुनकर सुख पाना चाहते हैं, पर क्या वे उनकी सादगी का मजाक नहीं उड़ाएँगे? - विनम्रता और आत्मसम्मान:
कवि अपनी सरलता और भूलों को उजागर करने से इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि उनकी गलतियाँ या दूसरों की प्रवंचना को बताने से क्या लाभ? उनकी आत्मकथा कोई उज्ज्वल गाथा नहीं, बल्कि साधारण जीवन की कहानी है। - प्रेम और स्मृति:
कवि उस सुख की बात करते हैं जो स्वप्न में आया, पर जागने पर खो गया। वे प्रेम की स्मृति को “अनुरागिनी उषा” और “मधुमाया” जैसे बिंबों से व्यक्त करते हैं, जो उनके थके हुए जीवन की पंथा (यात्रा) का पाथेय (सहारा) बनी है। - मौन की श्रेष्ठता:
कवि कहते हैं कि उनके छोटे से जीवन में कोई बड़ी कथाएँ नहीं हैं। वे दूसरों की कहानियाँ सुनकर मौन रहना बेहतर मानते हैं। उनकी व्यथा “थकी सोई” है, और अभी उसे जगाने का समय नहीं है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- छायावादी शैली:
- कविता में छायावाद की विशेषताएँ जैसे प्रतीकात्मकता, सूक्ष्म भाव, और प्रकृति के बिंब (मधुप, पत्तियाँ, नीलिमा, उषा) स्पष्ट हैं।
- भावनाओं की गहराई और आत्मिक चेतना का चित्रण छायावाद का मूल तत्व है।
- बिंब और प्रतीक:
- मधुप: जीवन की क्षणभंगुरता और सादगी का प्रतीक।
- मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ: जीवन के अभाव और क्षय का बिंब।
- गागर रीती: कवि के साधारण और अभावग्रस्त जीवन का प्रतीक।
- अनुरागिनी उषा: प्रेम और सौंदर्य का बिंब।
- कंथा की सीवन: जीवन की निजी और गोपनीय बातों का प्रतीक।
- भाषा:
- संस्कृतनिष्ठ हिंदी: प्रसाद की भाषा सरल, शुद्ध, और लालित्यपूर्ण है।
- लाक्षणिकता: शब्दों और बिंबों में गहरी प्रतीकात्मकता और सौंदर्य है।
- माधुर्य: कविता में कोमलता और भावात्मक गहराई है।
- अलंकार:
- उपमा: “मधुप गुन-गुना कर कह जाता”, “कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा” (पिछले पाठ से संदर्भित)।
- रूपक: “गागर रीती”, “अनुरागिनी उषा”।
- प्रश्नोक्ति: “तब भी कहते हो–कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती?”
- अनुप्रास: “मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ” में ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- विनम्रता और यथार्थ:
- कवि की विनम्रता उनकी आत्मकथा को साधारण और सामान्य व्यक्ति की कहानी के रूप में प्रस्तुत करने में दिखती है।
- वे अपने जीवन के अभाव और सादगी को स्वीकार करते हैं, जो उनकी दार्शनिक गहराई को दर्शाता है।
प्रमुख बिंदु
- प्रकाशन: 1932 में हंस पत्रिका के आत्मकथा विशेषांक में।
- प्रेरणा: आत्मकथा लिखने की असहमति और जीवन की सादगी का चित्रण।
- विषय: यथार्थ, अभाव, विनम्रता, और मौन की श्रेष्ठता।
- शैली: छायावादी, प्रतीकात्मक, और लालित्यपूर्ण
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘: उत्साह और अट नहीं रही है
उत्साह: कविता का परिचय
उत्साह सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की एक प्रसिद्ध आह्वान गीत शैली की कविता है, जो बादल को संबोधित करती है। निराला के लिए बादल एक प्रिय विषय है, जो उनके काव्य में बार-बार प्रकट होता है। इस कविता में बादल दोहरी भूमिका निभाता है:
- पीड़ित-प्यासे जन की आकांक्षा का पूरक: बादल वर्षा के माध्यम से प्यासे लोगों और सूखी धरती को राहत देता है।
- क्रांति और विप्लव का प्रतीक: बादल नई कल्पना, नए अंकुर, और सामाजिक बदलाव के लिए विध्वंस और क्रांति की चेतना को प्रेरित करता है।
विशेषताएँ:
- ललित कल्पना और क्रांति-चेतना:
- कविता में छायावादी ललित कल्पना का सुंदर चित्रण है, जहाँ बादल प्रकृति का सौंदर्य और शक्ति दोनों दर्शाता है।
- साथ ही, यह क्रांति और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा देता है, जो निराला के विद्रोही स्वभाव को प्रतिबिंबित करता है।
- नवजीवन और नूतन कविता:
- निराला बादल को नवजीवन का प्रतीक मानते हैं, जो समाज में नई चेतना और साहित्य में नूतन कविता का संदेश लाता है।
- सामाजिक क्रांति में साहित्य की भूमिका को कवि ने बादल के प्रतीक के माध्यम से रेखांकित किया है।
- मुक्त छंद:
- निराला ने इस कविता में मुक्त छंद का प्रयोग किया, जो उनकी काव्य-शैली की नवीनता को दर्शाता है।
- प्रकृति और समाज का समन्वय:
- कवि जीवन को व्यापक और समग्र दृष्टि से देखता है, जहाँ बादल प्रकृति और समाज दोनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
अट नहीं रही है: कविता का परिचय
अट नहीं रही है निराला की एक और छायावादी कविता है, जो फागुन (वसंत ऋतु) की मादकता और सर्वव्यापक सौंदर्य को चित्रित करती है। यह कविता कवि के मन की प्रसन्नता और प्रकृति के उल्लास को व्यक्त करती है।
विशेषताएँ:
- फागुन का सौंदर्य:
- कविता में फागुन की सुंदरता को अनेक संदर्भों में दर्शाया गया है। यह ऋतु मन की प्रसन्नता का प्रतीक है, जो हर ओर सौंदर्य और उल्लास बिखेरती है।
- कवि का मन जब प्रसन्न होता है, तो उसे हर जगह फागुन का ही सौंदर्य दिखाई देता है।
- ललित शब्द-चयन:
- निराला ने सुंदर और भावपूर्ण शब्दों का चयन किया है, जो कविता को फागुन की तरह ही ललित और आकर्षक बनाता है।
- कविता में छायावादी शैली की कोमलता और प्रतीकात्मकता स्पष्ट है।
- प्रकृति और मन का समन्वय:
- कविता में प्रकृति (फागुन) और मानव मन की भावनाओं का सुंदर मिश्रण है। फागुन का उल्लास कवि के हृदय की मादकता को प्रतिबिंबित करता है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- छायावाद की विशेषताएँ:
- दोनों कविताएँ छायावादी शैली में हैं, जिनमें प्रकृति, प्रतीकात्मकता, और भावात्मक गहराई प्रमुख है।
- उत्साह में बादल का प्रतीकात्मक चित्रण क्रांति और सौंदर्य को जोड़ता है, जबकि अट नहीं रही है में फागुन की मादकता मन की उमंग को व्यक्त करती है।
- मुक्त छंद और शिल्प:
- निराला ने मुक्त छंद का प्रयोग कर काव्य-शिल्प में नवीनता लाई, जो उनकी रचनाओं को पारंपरिक छंदों से मुक्त और लयबद्ध बनाता है।
- सामाजिक चेतना:
- उत्साह में सामाजिक क्रांति और शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति का भाव है, जो निराला के विद्रोही स्वभाव को दर्शाता है।
- अट नहीं रही है में व्यक्तिगत और प्रकृतिगत सौंदर्य का चित्रण है, जो कवि की संवेदनशीलता को उजागर करता है।
- भाषा:
- निराला की भाषा में संस्कृतनिष्ठ हिंदी, ब्रज, और खड़ी बोली का मिश्रण है।
- शब्दों का चयन ललित, भावपूर्ण, और प्रतीकात्मक है, जैसे “मादकता”, “नवजीवन”, और “नूतन कविता”।
महत्व
- उत्साह: यह कविता निराला के क्रांतिकारी दृष्टिकोण और साहित्य में सामाजिक बदलाव की भूमिका को रेखांकित करती है। बादल का प्रतीक कविता को प्रकृति और क्रांति का सुंदर समन्वय बनाता है।
- अट नहीं रही है: यह कविता छायावाद की सौंदर्यपरकता और मन की उमंग को व्यक्त करती है, जो फागुन के उल्लास के साथ कवि की संवेदनशीलता को जोड़ती है।
- निराला का योगदान: दोनों कविताएँ निराला की बहुमुखी प्रतिभा, छायावादी शैली, और सामाजिक चेतना को दर्शाती हैं।
उत्साह: सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘
मूल पाठ
बादल, गरजो!
घेर घेर घोर गगन, धराधार ओ !
ललित-ललित, काले घुँघराले,
बाल कल्पना के से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो-
बादल, गरजो!
विकल विकल उन्मन थे उन्मन
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आए अज्ञात दिशा से अनंत के घन!
तप्त धरा,जल से फिर
शीतल कर दो-
बादल, गरजो!
संदर्भ
उत्साह निराला की एक प्रसिद्ध आह्वान गीत शैली की कविता है, जो बादल को संबोधित करती है। यह कविता छायावाद की विशेषताओं—ललित कल्पना, प्रतीकात्मकता, और भावात्मक तीव्रता—के साथ-साथ निराला के क्रांतिकारी और सामाजिक दृष्टिकोण को दर्शाती है। बादल यहाँ दोहरे प्रतीक के रूप में है: यह प्यासे और पीड़ित जन की आकांक्षा को पूरा करता है और साथ ही क्रांति, विध्वंस, और नवजीवन का प्रतीक है।
भावार्थ
- बादल का आह्वान:
कवि बादल को “गरजो” कहकर उत्साहपूर्वक पुकारते हैं। बादल को “ललित-बाल-घन-के-से काले घुँघराले” और “विद्युत-छबि उर में” कहकर उसका सौंदर्य और शक्ति चित्रित करते हैं। यह बादल कवि के लिए नवजीवन और नूतन कविता का प्रतीक है। - क्रांति और नवजीवन:
बादल में “वज्र छिपा” है, जो क्रांति और विध्वंस की शक्ति का प्रतीक है। कवि बादल से आग्रह करते हैं कि वह “नूतन कविता” (नए विचार और साहित्यिक चेतना) को प्रेरित करे। - प्यासे जन और तप्त धरती:
विश्व के “निदाघ” (ग्रीष्म की तपन) से पीड़ित और “विकल” (व्याकुल) जन बादल से राहत की उम्मीद करते हैं। कवि बादल को “अनंत के घन” कहकर उसकी अनंत शक्ति और अज्ञात दिशा से आने वाली प्रेरणा का वर्णन करते हैं। वे बादल से तप्त धरती को जल से शीतल करने की प्रार्थना करते हैं। - सामाजिक और साहित्यिक संदेश:
बादल केवल प्रकृति का तत्व नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति और नवजीवन का प्रतीक है। यह शोषित और पीड़ित जन की आकांक्षाओं को पूरा करने और समाज में बदलाव लाने की प्रेरणा देता है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- छायावादी शैली:
- कविता में छायावाद की ललित कल्पना और प्रतीकात्मकता स्पष्ट है। उदाहरण: “ललित-बाल-घन-के-से काले घुँघराले” और “विद्युत-छबि उर में”।
- प्रकृति (बादल) के माध्यम से मानवीय भावनाओं और सामाजिक चेतना का चित्रण।
- मुक्त छंद:
- निराला ने मुक्त छंद का प्रयोग किया, जो कविता को लयबद्ध और स्वतंत्र बनाता है।
- प्रतीक और बिंब:
- बादल: क्रांति, नवजीवन, और राहत का प्रतीक।
- विद्युत: शक्ति और प्रेरणा का बिंब।
- वज्र: विध्वंस और क्रांति का प्रतीक।
- निदाघ और तप्त धरा: शोषण और पीड़ा का प्रतीक।
- भाषा:
- संस्कृतनिष्ठ हिंदी: “उन्मन”, “निदाघ”, “अनंत के घन” जैसे शब्द।
- ललित शब्द-चयन: “काले घुँघराले”, “ललित-बाल-घन” जैसे भावपूर्ण शब्द।
- आह्वान शैली: “बादल, गरजो!” में उत्साह और प्रेरणा की तीव्रता।
- सामाजिक चेतना:
- कविता शोषित जन की पीड़ा और सामाजिक क्रांति की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
- निराला का विद्रोही स्वभाव “वज्र छिपा” और “नूतन कविता” जैसे प्रतीकों में झलकता है।
महत्व
- उत्साह निराला की छायावादी और क्रांतिकारी दृष्टि का सुंदर समन्वय है। यह कविता प्रकृति के सौंदर्य और सामाजिक बदलाव की प्रेरणा को जोड़ती है।
- बादल का प्रतीक कविता को बहुआयामी बनाता है, जो प्रकृति, साहित्य, और समाज तीनों को संबोधित करता है।
- निराला का मुक्त छंद और नवीन शिल्प हिंदी काव्य में एक क्रांति का प्रतीक है।
अट नहीं रही है: सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘
मूल पाठ
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो, घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ त हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में मंद-गंध-पुष्प-माल,
शोभा-श्री पाट-पाट पट नहीं रही है।
अट नहीं रही है।
संदर्भ
अट नहीं रही है सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की एक छायावादी कविता है, जो फागुन (वसंत ऋतु) की सर्वव्यापक सुंदरता और मादकता को चित्रित करती है। यह कविता कवि के प्रसन्न मन और प्रकृति के उल्लास को व्यक्त करती है। फागुन का सौंदर्य और उसका प्रभाव इतना गहरा है कि वह कवि के मन, तन, और आँखों से “अट” नहीं रहा, अर्थात् उसका प्रभाव कहीं रुकता नहीं और हर जगह व्याप्त है।
भावार्थ
- फागुन की मादकता:
कवि कहते हैं कि फागुन की सुंदरता और आभा उनके तन-मन से सट रही है और वह कहीं रुक नहीं रही। यह सौंदर्य सर्वव्यापी है और हर जगह फैल रहा है। - प्रकृति का उल्लास:
- फागुन की साँसें हर घर को भर देती हैं, जैसे वह जीवन और उमंग का संदेश लाती हो।
- यह उड़ने को आतुर है और आकाश में पंख फैलाकर (पर-पर) हर दिशा में अपनी शोभा बिखेरती है।
- कवि की आँखें इस सौंदर्य से हटाना चाहती हैं, पर यह सौंदर्य “हट नहीं रही है”, अर्थात् यह मन को बाँधे रखता है।
- प्रकृति का चित्रण:
- पत्तों से लदी डालियाँ हरी और लाल रंगों में सजी हैं, जो वसंत की विविधता और सौंदर्य को दर्शाती हैं।
- “मंद-गंध-पुष्प-माल” कवि के हृदय में सुगंध और सौंदर्य की माला बनकर बस जाती है।
- फागुन की शोभा और श्री (सौंदर्य और वैभव) हर ओर “पाट-पाट” (हर तरफ) फैली है और रुकने का नाम नहीं लेती।
- मन और प्रकृति का समन्वय:
कविता में फागुन का सौंदर्य कवि के प्रसन्न मन का प्रतीक है। यह सौंदर्य केवल बाहरी नहीं, बल्कि कवि के अंतर्मन को भी आल्हादित करता है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- छायावादी शैली:
- कविता में छायावाद की ललित कल्पना, प्रतीकात्मकता, और भावात्मक सूक्ष्मता स्पष्ट है।
- फागुन का सौंदर्य प्रकृति और मानव मन की भावनाओं का समन्वय दर्शाता है।
- उदाहरण: “आभा फागुन की तन सट नहीं रही है” में फागुन की सर्वव्यापकता और मन की उमंग का चित्रण।
- मुक्त छंद:
- निराला ने मुक्त छंद का प्रयोग किया, जो कविता को स्वतंत्र और लयबद्ध बनाता है।
- कविता की लय फागुन की उमंग और गति को प्रतिबिंबित करती है।
- बिंब और प्रतीक:
- आभा फागुन की: वसंत की मादकता और सौंदर्य का प्रतीक।
- पत्तों से लदी डाल कहीं हरी, कहीं लाल: प्रकृति की विविधता और रंगबिरंगी शोभा।
- मंद-गंध-पुष्प-माल: मन में बसी सुगंध और सौंदर्य की भावना।
- पाट-पाट: सौंदर्य की सर्वव्यापकता।
- भाषा:
- संस्कृतनिष्ठ हिंदी: “आभा”, “शोभा-श्री”, “मंद-गंध” जैसे शब्द।
- ललित शब्द-चयन: “पर-पर”, “पाट-पाट”, “उर में” जैसे भावपूर्ण शब्द कविता को मादक और आकर्षक बनाते हैं।
- संगीतमयता: कविता की लय और शब्दों का चयन फागुन की उमंग को जीवंत करता है।
- अलंकार:
- उपमा: “पत्तों से लदी डाल कहीं हरी, कहीं लाल” में प्रकृति की तुलना रंगीन डालियों से।
- अनुप्रास: “सट नहीं रही है”, “पाट-पाट पट नहीं रही है” में ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- प्रतीक: फागुन का सौंदर्य मन की प्रसन्नता और जीवन की उमंग का प्रतीक।
महत्व
- अट नहीं रही है निराला की छायावादी शैली की उत्कृष्ट कविता है, जो प्रकृति और मानव मन की संवेदनाओं का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करती है।
- फागुन का चित्रण कविता को उल्लासपूर्ण और ललित बनाता है, जो कवि की संवेदनशीलता और सौंदर्यबोध को दर्शाता है।
- कविता में निराला का प्रकृति-प्रेम और भावात्मक गहराई छायावाद की विशेषताओं को उजागर करती है।
नागार्जुन: यह दंतुरित मुसकान और फसल
नागार्जुन का साहित्यिक परिचय (जारी)
नागार्जुन को आधुनिक कबीर कहा जाता है, क्योंकि उनकी कविताएँ सामाजिक विसंगतियों, भ्रष्टाचार, और शोषण पर तीखा व्यंग्य करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे कबीर ने अपने दोहों में किया। छायावादोत्तर दौर के वे एकमात्र कवि हैं, जिनकी रचनाएँ गाँव की चौपालों और साहित्यिक मंचों पर समान रूप से लोकप्रिय रहीं। उनकी आंदोलनधर्मी कविताओं ने सामयिक बोध को गहराई से व्यक्त किया, जिससे उन्हें व्यापक जन-समर्थन मिला। वे वास्तविक जनकवि हैं।
नागार्जुन ने छंदबद्ध और मुक्त छंद दोनों में काव्य-रचना की। उनकी भाषा लोक-संस्कृति से जुड़ी, सरल, और प्रभावशाली है, जो सामान्य जन तक आसानी से पहुँचती है।
यह दंतुरित मुसकान: कविता का परिचय
यह दंतुरित मुसकान नागार्जुन की एक कोमल और भावपूर्ण कविता है, जिसमें एक छोटे बच्चे की मनोहारी मुसकान को केंद्र में रखा गया है।
विशेषताएँ:
- भाव और बिंब:
- कवि बच्चे की दंतुरित मुसकान (दिखाई देने वाले छोटे दाँतों वाली हँसी) को देखकर अभिभूत है। इस मुसकान में जीवन का संदेश छिपा है।
- मुसकान की सुंदरता को अनेक बिंबों (प्रतीकों) के माध्यम से व्यक्त किया गया है, जैसे नज़रों का बाँकपन (आँखों की चंचलता)।
- यह मुसकान इतनी मोहक है कि कठोर से कठोर मन भी पिघल जाए।
- सौंदर्य की व्याप्ति:
- बच्चे की मुसकान की सुंदरता सर्वव्यापी है, जो हर दिल को छू लेती है।
- नज़रों का बाँकपन इसकी आकर्षकता को और बढ़ाता है, जो कविता को भावनात्मक गहराई देता है।
- लोक-संवेदना:
- कविता में नागार्जुन की लोक-संवेदना झलकती है, जो साधारण जीवन की छोटी-छोटी खुशियों को गहनता से चित्रित करती है।
- भाषा और शैली:
- सरल और बोलचाल की भाषा, जो पाठक के हृदय तक सीधे पहुँचती है।
- कोमल और लयबद्ध शैली, जो बच्चे की मुसकान की मासूमियत को उजागर करती है।
फसल: कविता का परिचय
फसल कविता में नागार्जुन ने कृषि-संस्कृति और प्रकृति-मनुष्य के सहयोग को केंद्र में रखा है। यह कविता फसल के सृजन की प्रक्रिया को गहराई से दर्शाती है।
विशेषताएँ:
- फसल का अर्थ और सृजन:
- “फसल” शब्द सुनते ही लहलहाते खेत आँखों के सामने आते हैं, लेकिन कविता यह बताती है कि फसल केवल अनाज नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव श्रम का संयुक्त प्रयास है।
- फसल के सृजन में प्रकृति (सूर्य, जल, मिट्टी) और मनुष्य (किसान का परिश्रम) का योगदान महत्वपूर्ण है।
- प्रकृति और मनुष्य का सहयोग:
- कविता रेखांकित करती है कि सृजन के लिए प्रकृति और मनुष्य का तालमेल आवश्यक है।
- यह उपभोक्ता-संस्कृति के दौर में कृषि-संस्कृति की महत्ता को उजागर करती है।
- भाषा और लय:
- बोलचाल की भाषा का उपयोग, जो कविता को सहज और प्रभावशाली बनाता है।
- लयबद्ध शैली, जो कृषि कार्य की गति और मेहनत को प्रतिबिंबित करती है।
- सामाजिक संदेश:
- कविता उपभोक्ता-संस्कृति के प्रभुत्व में कृषि और किसान के महत्व को पुनः स्थापित करती है।
- यह सामाजिक जागरूकता और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देती है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- लोक-संवेदना:
- दोनों कविताएँ लोक-जीवन से गहराई से जुड़ी हैं। यह दंतुरित मुसकान बच्चे की मासूमियत को, और फसल किसान की मेहनत को चित्रित करती हैं।
- व्यंग्य और संवेदना का समन्वय:
- जहाँ नागार्जुन की अन्य कविताएँ व्यंग्य में माहिर हैं, वहीं इन कविताओं में कोमल संवेदना और सौंदर्यबोध प्रमुख है।
- प्रतीकात्मकता:
- यह दंतुरित मुसकान में बच्चे की हँसी जीवन की सादगी और आनंद का प्रतीक है।
- फसल में फसल प्रकृति-मनुष्य सहयोग और सृजन का प्रतीक है।
- भाषा:
- सरल, सहज, और लोकभाषा से युक्त।
- बोलचाल के शब्द और मुहावरे कविताओं को जनसामान्य के करीब लाते हैं।
- छायावादोत्तर यथार्थवाद:
- नागार्जुन की कविताएँ छायावाद की काल्पनिकता से हटकर यथार्थवादी और जनवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं।
महत्व
- यह दंतुरित मुसकान: यह कविता नागार्जुन की संवेदनशीलता को दर्शाती है, जो साधारण जीवन की सुंदरता को उजागर करती है। बच्चे की मुसकान के माध्यम से यह जीवन की आशा और सकारात्मकता का संदेश देती है।
- फसल: यह कविता कृषि-संस्कृति की महत्ता और प्रकृति-मनुष्य के सहयोग को रेखांकित करती है। यह उपभोक्ता-संस्कृति के युग में पर्यावरण और किसान के योगदान पर ध्यान आकर्षित करती है।
- नागार्जुन का योगदान: उनकी कविताएँ सामाजिक जागरूकता, लोक-संवेदना, और यथार्थवादी दृष्टिकोण के लिए जानी जाती हैं, जो उन्हें आधुनिक कबीर और जनकवि बनाती हैं।
यह दंतुरित मुसकान: नागार्जुन
मूल पाठ
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात…
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में
खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े
शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो? आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती
आज मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!
यह दंतुरित मुसकान: नागार्जुन
संदर्भ
यह दंतुरित मुसकान नागार्जुन की एक संवेदनशील और भावपूर्ण कविता है, जिसमें एक छोटे बच्चे की मासूम, दंतुरित मुसकान (दिखाई देने वाले छोटे दाँतों वाली हँसी) को केंद्र में रखा गया है। कविता लोक-जीवन की सादगी, प्रकृति की सुंदरता, और मानवीय रिश्तों की कोमलता को चित्रित करती है। बच्चे की मुसकान में ऐसी शक्ति और आकर्षण है कि वह कठोर हृदय को भी पिघला देती है और जीवन को आनंद से भर देती है। यह कविता नागार्जुन की जनवादी दृष्टि और छायावादोत्तर यथार्थवाद की विशेषताओं को दर्शाती है।
भावार्थ
- मुसकान की जीवनदायिनी शक्ति:
- “तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान मृतक में भी डाल देगी जान”: बच्चे की मुसकान इतनी प्रभावशाली है कि वह मृतप्राय व्यक्ति में भी जीवन का संचार कर सकती है। यह मुसकान आशा, जीवन, और सकारात्मकता का प्रतीक है।
- सादगी और ग्रामीण जीवन:
- “धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात”: बच्चे का शरीर धूल से सना हुआ है, जो उसकी सादगी और ग्रामीण जीवन से गहरा जुड़ाव दर्शाता है। यह सादगी कवि के लिए आकर्षक और प्रेरणादायक है।
- प्रकृति और बच्चे का समन्वय:
- “छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात”: बच्चा तालाब के कमल (जलजात) को छोड़कर कवि की साधारण झोंपड़ी में आया है, और उसकी उपस्थिति से झोंपड़ी में भी कमल की तरह सुंदरता खिल उठी है। यह प्रकृति और मानव जीवन के सौंदर्य का समन्वय है।
- मुसकान का कोमल प्रभाव:
- “परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण”: बच्चे की मुसकान और उसके स्पर्श (परस) में ऐसी शक्ति है कि कठोर पत्थर भी पिघलकर जल की तरह कोमल हो जाता है। यह मुसकान की भावनात्मक गहराई को दर्शाता है।
- प्रकृति का सौंदर्य:
- “छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल”: बच्चे के स्पर्श से शेफालिका (हरसिंगार) के फूल झरने लगते हैं, जो प्रकृति की संवेदनशीलता और बच्चे के सौंदर्य का मेल दर्शाता है।
- “बाँस था कि बबूल?”: कवि बच्चे से मजाकिया अंदाज में पूछता है कि क्या वह बाँस या बबूल जैसे कठोर पेड़ से बना है, जो उसकी चंचलता और मासूमियत को हल्के-फुल्के ढंग से व्यक्त करता है।
- परिचय की अनभिज्ञता:
- “तुम मुझे पाए नहीं पहचान?”: कवि बच्चे से पूछता है कि क्या वह उसे नहीं पहचानता, जो उनकी अनौपचारिक और आत्मीय बातचीत को दर्शाता है।
- “देखते ही रहोगे अनिमेष! थक गए हो? आँख लूँ मैं फेर?”: बच्चा कवि को एकटक देख रहा है, और कवि मजाक में पूछता है कि क्या वह थक गया है या कवि अपनी नजर हटाए। यह पंक्ति बच्चे की जिज्ञासा और मासूमियत को उजागर करती है।
- माँ का महत्व:
- “यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज मैं न सकता देख”: बच्चे की माँ ने कवि और बच्चे के बीच मुलाकात संभव की, जिसके कारण कवि इस मुसकान को देख सका।
- “धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!”: कवि बच्चे और उसकी माँ दोनों की सराहना करता है, जो मातृत्व और बच्चे की मासूमियत के प्रति सम्मान दर्शाता है।
- कवि का परिचय और आत्म-चिंतन:
- “चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!”: कवि स्वयं को एक सतत यात्री (प्रवासी) और भिन्न (अन्य) बताता है, जो उसकी घुमक्कड़ प्रकृति और समाज से कुछ हटकर होने का भाव व्यक्त करता है।
- “इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क”: कवि, जो एक अतिथि है, बच्चे से अपने संबंध की अनौपचारिकता पर विचार करता है।
- मधुर रिश्ता:
- “उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क”: माँ की उँगलियाँ बच्चे के माध्यम से कवि का स्वागत (मधुपर्क) करती हैं, जो आतिथ्य और स्नेह का प्रतीक है।
- “देखते तुम इधर कनखी मार और होतीं जब कि आँखें चार”: बच्चा चंचलता से कनखियों से देखता है, और जब दोनों की आँखें मिलती हैं, तब उसकी दंतुरित मुसकान और भी छविमान (आकर्षक) लगती है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- लोक-संवेदना:
- कविता में ग्रामीण जीवन की सादगी, बच्चे की मासूमियत, और माँ-बच्चे के रिश्ते को चित्रित किया गया है।
- “धूलि-धूसर गात” और “मेरी झोंपड़ी” जैसे शब्द लोक-जीवन से गहरा जुड़ाव दिखाते हैं।
- प्रतीक और बिंब:
- दंतुरित मुसकान: जीवन, आशा, और सौंदर्य का प्रतीक।
- जलजात (कमल): शुद्धता और सुंदरता का बिंब।
- शेफालिका के फूल: प्रकृति की संवेदनशीलता और सौंदर्य।
- पिघलकर जल बन गया कठिन पाषाण: कठोरता से कोमलता में परिवर्तन का बिंब।
- भाषा और शैली:
- बोलचाल की भाषा: “बाँस था कि बबूल?”, “आँख लूँ मैं फेर?” जैसे वाक्य सहज और आत्मीय हैं।
- लयबद्धता: कविता की पंक्तियाँ लयात्मक हैं, जो भावनाओं को प्रभावशाली बनाती हैं।
- संस्कृतनिष्ठ शब्द: “धूलि-धूसर”, “जलजात”, “मधुपर्क” जैसे शब्द साहित्यिक गहराई देते हैं।
- हास्य और चंचलता: बच्चे से मजाकिया संवाद कविता को जीवंत बनाता है।
- छायावादोत्तर यथार्थवाद:
- कविता छायावाद की काल्पनिकता से हटकर यथार्थवादी है, जो साधारण जीवन की सुंदरता को उजागर करती है।
- बच्चे की मुसकान के माध्यम से कवि जीवन की सकारात्मकता पर जोर देते हैं।
- अलंकार:
- उपमा: “मृतक में भी डाल देगी जान” में मुसकान की तुलना जीवनदायिनी शक्ति से।
- रूपक: “पिघलकर जल बन गया कठिन पाषाण” में कठोर हृदय का जल में परिवर्तन।
- अनुप्रास: “धूलि-धूसर”, “कनखी मार” में ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- प्रश्नोक्ति: “बाँस था कि बबूल?”, “थक गए हो?” जैसे प्रश्न हास्य और आत्मीयता पैदा करते हैं।
महत्व
- यह दंतुरित मुसकान नागार्जुन की कोमल और संवेदनशील रचनात्मकता को दर्शाती है। यह साधारण जीवन की छोटी-छोटी खुशियों में छिपे सौंदर्य को उजागर करती है।
- बच्चे की मुसकान के माध्यम से कविता जीवन की आशा, सादगी, और मानवीय संवेदना का संदेश देती है।
- यह कविता नागार्जुन के व्यंग्यात्मक और आंदोलनधर्मी लेखन से भिन्न है, जो उनकी रचनाओं की विविधता को प्रदर्शित करती है।
- कविता लोक-संस्कृति, प्रकृति, और रिश्तों की महत्ता को रेखांकित करती है, जो इसे जनसामान्य के लिए प्रिय बनाती है।
फसल मूल पाठ – नागार्जुन
एक की नहीं,
दो की नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू
एक की नहीं,
दो की नहीं,
लाख लाख कोटी कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा
एक की नहीं,दो की नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुणधर्म।
फसल क्या है?
और तो कुछ नहीं, है वह
नदियों के पानी का जादू,
हाथों के स्पर्श की महिमा,
भूरी, काली, संदली मिट्टी का गुणधर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का,
हवा की थिरकन का सिमटा हुआ संकोच।
फसल नागार्जुन की एक जनवादी और यथार्थवादी कविता है, जो कृषि-संस्कृति की महत्ता और प्रकृति-मानव सहयोग को चित्रित करती है। कविता में फसल को केवल अनाज के रूप में नहीं, बल्कि प्रकृति के तत्वों (पानी, मिट्टी, सूरज, हवा) और मानव श्रम के संयुक्त सृजन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह कविता उपभोक्ता-संस्कृति के दौर में कृषि और किसान के महत्व को रेखांकित करती है। नागार्जुन की लोक-संवेदना और सहज भाषा कविता को प्रभावशाली बनाती है।
भावार्थ
- फसल का सृजन:
- “एक की नहीं, दो की नहीं, ढेर सारी नदियों के पानी का जादू”: फसल केवल एक या दो नदियों के पानी से नहीं बनती, बल्कि असंख्य नदियों के जल का जादू इसमें समाहित है।
- “लाख लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा”: फसल में अनगिनत किसानों के हाथों का श्रम और मेहनत शामिल है, जो इसके सृजन की गरिमा को बढ़ाता है।
- “हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुणधर्म”: फसल विभिन्न खेतों की मिट्टी के गुणों का परिणाम है, जो इसकी विविधता और विशेषता को दर्शाता है।
- फसल की परिभाषा:
- “फसल क्या है? और तो कुछ नहीं”: कवि फसल को साधारण शब्दों में परिभाषित करता है, लेकिन उसकी गहराई को प्रकट करता है।
- फसल नदियों के पानी का जादू, हाथों के स्पर्श की महिमा, और मिट्टी का गुणधर्म है।
- यह सूरज की किरणों का रूपांतर और हवा की थिरकन का सिमटा हुआ संकोच (सौंदर्य और गति) है।
- प्रकृति और मानव का सहयोग:
- कविता में फसल को प्रकृति (पानी, मिट्टी, सूरज, हवा) और मानव श्रम के समन्वय का प्रतीक बताया गया है।
- यह सहयोग सृजन की प्रक्रिया को दर्शाता है, जो जीवन और संस्कृति का आधार है।
- कृषि-संस्कृति की महत्ता:
- कविता उपभोक्ता-संस्कृति के युग में कृषि की महत्ता को पुनः स्थापित करती है।
- फसल केवल भोजन नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव की मेहनत का सांस्कृतिक प्रतीक है।
साहित्यिक विशेषताएँ
- लोक-संवेदना:
- कविता में किसान और कृषि-जीवन की महत्ता को चित्रित किया गया है, जो नागार्जुन की लोक-संवेदना को दर्शाता है।
- “लाख लाख कोटि-कोटि हाथों” जैसे शब्द सामूहिक श्रम की गरिमा को उजागर करते हैं।
- प्रतीक और बिंब:
- नदियों का पानी: जीवन और सृजन का प्रतीक।
- हाथों का स्पर्श: मानव श्रम और मेहनत का बिंब।
- मिट्टी का गुणधर्म: प्रकृति की विविधता और शक्ति का प्रतीक।
- सूरज की किरणें और हवा की थिरकन: प्रकृति की ऊर्जा और सौंदर्य का बिंब।
- भाषा और शैली:
- बोलचाल की भाषा: “एक की नहीं, दो की नहीं” जैसे दोहराव युक्त वाक्य सहज और लयबद्ध हैं।
- लयात्मकता: कविता की पंक्तियाँ गीतात्मक हैं, जो कृषि कार्य की गति को प्रतिबिंबित करती हैं।
- सादगी और प्रभावशीलता: “भूरी, काली, संदली मिट्टी” जैसे शब्द ग्रामीण जीवन की सादगी को दर्शाते हैं।
- छायावादोत्तर यथार्थवाद:
- कविता छायावाद की काल्पनिकता से हटकर यथार्थवादी है।
- यह फसल के सृजन की प्रक्रिया को वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करती है।
- अलंकार:
- पुनरावृत्ति: “एक की नहीं, दो की नहीं” का दोहराव कविता को प्रभावशाली और लयबद्ध बनाता है।
- रूपक: “नदियों के पानी का जादू” और “हवा की थिरकन का सिमटा हुआ संकोच” में फसल को प्रकृति के तत्वों के रूप में चित्रित किया गया है।
- अनुप्रास: “लाख लाख कोटि-कोटि” में ‘ल’ और ‘क’ की ध्वनि की पुनरावृत्ति।
- जनवादी दृष्टिकोण:
- कविता में किसानों के श्रम की गरिमा और प्रकृति के योगदान को सम्मान दिया गया है।
- यह उपभोक्ता-संस्कृति के सामने कृषि-संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करती है।
महत्व
- फसल कविता नागार्जुन की जनवादी दृष्टि और लोक-संवेदना का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह फसल को केवल भोजन के रूप में नहीं, बल्कि प्रकृति और मानव के सहयोग का प्रतीक बनाती है।
- कविता कृषि-संस्कृति की महत्ता को रेखांकित करती है और उपभोक्ता-संस्कृति के दौर में पर्यावरण और किसान के योगदान पर ध्यान आकर्षित करती है।
- सहज भाषा और लयबद्ध शैली कविता को आम जन तक पहुँचाने में सफल बनाती है।
- यह कविता सामाजिक जागरूकता और प्रकृति के प्रति सम्मान का संदेश देती है।
संगतकार: मंगलेश डबराल
मूल पाठ:
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमज़ोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद
तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई
उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढांढ़स बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए ।
सार:
कविता संगीत में संगतकार की भूमिका के महत्व को दर्शाती है, जो मुख्य गायक का साथ देता है। यह समाज और इतिहास में पृष्ठभूमि के सहयोगियों की महत्ता को रेखांकित करती है। संगतकार की आवाज़ मुख्य गायक को सँभालती, प्रेरित करती, और अकेलेपन से बचाती है। कविता संवेदनशीलता सिखाती है कि सहायक की हिचक और पृष्ठभूमि में रहना उसकी मनुष्यता का प्रतीक है। संगीत की सूक्ष्मता और दृश्यात्मकता कविता को जीवंत बनाती है।
साहित्यिक विशेषताएँ:
- सौंदर्यबोध: संगीत के स्वर, ताल, और लय का सूक्ष्म चित्रण।
- प्रतीकात्मकता: संगतकार निस्वार्थ सहयोग और मानवीयता का प्रतीक।
- दृश्यात्मकता: मंच पर गायक और संगतकार के समन्वय का जीवंत बिंब।
- भाषा और शैली: पारदर्शी, सहज, संगीतमय लय, भावनात्मक गहराई।
- सामाजिक चेतना: पृष्ठभूमि में रहने वालों की गरिमा और महत्व को उजागर करना।
महत्व:
- सहयोग, निस्वार्थता, और मानवीयता के मूल्यों को स्थापित करती है।
- पृष्ठभूमि के सहयोगियों के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान सिखाती है।
- संगीत, साहित्य, और समाज के बीच सेतु बनाती है।
- सामूहिकता और आशावाद का संदेश देती है।