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फ्रांसीसी क्रांति: आसान नोट्स और महत्वपूर्ण बातें
फ्रांसीसी क्रांति सिर्फ फ्रांस की नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की सोच बदलने वाली घटना थी। ये नोट्स आपको इस क्रांति को आसानी से समझने में मदद करेंगे।
1. क्रांति क्यों हुई? (18वीं सदी का फ्रांसीसी समाज)
क्रांति की शुरुआत अचानक नहीं हुई, बल्कि कई वजहों से लोगों में गुस्सा भरा हुआ था।
1.1. राजा और खाली खजाना
- राजा लुई XVI: 1774 में लुई सोलहवाँ फ्रांस का राजा बना। उसकी उम्र सिर्फ 20 साल थी और उसकी शादी ऑस्ट्रिया की मेरी एन्तोएनेत से हुई थी।
- खजाना खाली क्यों?
- लंबे युद्ध: फ्रांस ने खूब लड़ाइयाँ लड़ीं, जिससे सारा पैसा खत्म हो गया।
- शान-शौकत: वर्साय के बड़े महल और राजदरबार पर बेतहाशा खर्च होता था।
- अमेरिका की मदद: फ्रांस ने अमेरिका को ब्रिटेन से आज़ाद कराने में मदद की, जिससे उस पर 10 अरब लिब्रे (फ्रांस की पुरानी मुद्रा) का नया कर्ज चढ़ गया। पहले से ही 2 अरब लिब्रे का कर्ज था।
- बढ़ता ब्याज: कर्ज़ देने वाले अब 10% ब्याज मांगने लगे।
- समाधान? टैक्स बढ़ाना! राजा ने सेना, महल और सरकारी दफ्तरों का खर्च चलाने के लिए टैक्स बढ़ाने का फैसला किया, लेकिन यह काफी नहीं था।
1.2. समाज का बँटवारा: तीन ‘एस्टेट’
फ्रांस का समाज तीन बड़े हिस्सों में बंटा हुआ था, जिसे ‘एस्टेट’ कहते थे।
- पहला एस्टेट: पादरी वर्ग (चर्च के लोग)।
- दूसरा एस्टेट: कुलीन वर्ग (अमीर और ताकतवर लोग)।
- तीसरा एस्टेट: आम लोग (किसान, कारीगर, व्यापारी, वकील – सब इसमें थे)।
- खास बात: जन्म से विशेषाधिकार
- पहले और दूसरे एस्टेट को जन्म से ही खास अधिकार मिले हुए थे।
- सबसे बड़ा अधिकार था कोई टैक्स न देना!
- कुलीन लोग किसानों से सामंती कर वसूलते थे।
- किसानों को अपने मालिकों के लिए मुफ्त में काम करना पड़ता था (जैसे खेत में, सड़कों पर, सेना में)।
- सारा बोझ तीसरे एस्टेट पर:
- सिर्फ तीसरे एस्टेट के लोग ही टैक्स देते थे।
- चर्च भी किसानों से ‘टाइद’ (एक तरह का धार्मिक टैक्स) लेता था।
- सरकार ‘टाइल’ (सीधा टैक्स) और नमक-तंबाकू जैसे अप्रत्यक्ष टैक्स भी तीसरे एस्टेट से लेती थी।
- यानी, सारा खर्चा आम जनता उठा रही थी।
1.3. रोटी का संकट (खाने-पीने की दिक्कत)
- जनसंख्या बढ़ी: 1715 से 1789 तक फ्रांस की आबादी 2.3 करोड़ से बढ़कर 2.8 करोड़ हो गई।
- खाने की कमी: आबादी बढ़ने से अनाज की मांग बढ़ गई, लेकिन उत्पादन उतना नहीं बढ़ा।
- रोटी महंगी: लोगों का मुख्य भोजन पावरोटी (ब्रेड) बहुत महंगी हो गई।
- मजदूरी कम: मजदूरों की मजदूरी महंगाई के हिसाब से नहीं बढ़ी। इससे अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ गई।
- भुखमरी का डर: सूखा या ओले पड़ने पर फसल बर्बाद हो जाती थी, जिससे खाने-पीने का बड़ा संकट (जिसे जीविका संकट कहते हैं) आ जाता था।
1.4. नए विचार और ‘मध्य वर्ग’
- मध्य वर्ग का उदय: 18वीं सदी में एक नया समूह उभरा – मध्य वर्ग। ये लोग पढ़े-लिखे थे और व्यापार, कपड़े बनाने या वकालत जैसे कामों से अमीर बने थे।
- क्या सोचा इन्होंने? इनका मानना था कि किसी को भी जन्म से कोई खास अधिकार नहीं मिलना चाहिए। लोगों की पहचान उनकी काबिलियत से होनी चाहिए।
- महान दार्शनिकों के विचार:
- जॉन लॉक: कहा कि राजा को भगवान से कोई खास ताकत नहीं मिली है, उसकी ताकत असीमित नहीं है।
- ज़्याँ ज़ाक रूसो: बताया कि सरकार लोगों के और उनके प्रतिनिधियों के बीच एक समझौते पर बननी चाहिए।
- मॉन्तेस्क्यू: समझाया कि सरकार की ताकत को तीन हिस्सों में बांट देना चाहिए – कानून बनाने वाला (विधायिका), लागू करने वाला (कार्यपालिका), और न्याय करने वाला (न्यायपालिका)। (जैसे आज भारत में है!)
- विचारों का फैलाव: इन विचारों पर कॉफ़ी हाउस और सभाओं में खूब बहस होती थी। किताबें, अखबार और पर्चे गाँव-गाँव तक पहुंचाए जाते थे, ताकि अनपढ़ लोग भी उन्हें समझ सकें।
- गुस्सा भड़का: जब राजा ने फिर टैक्स बढ़ाने की खबर दी, तो विशेषाधिकारों के खिलाफ लोगों का गुस्सा और भड़क गया।
2. क्रांति की शुरुआत: बास्तील पर हमला
गुस्सा और नए विचारों ने मिलकर क्रांति की आग जलाई।
2.1. एस्टेट्स जनरल की बैठक (5 मई 1789)
- राजा की मजबूरी: राजा अपनी मर्जी से टैक्स नहीं बढ़ा सकता था। उसे एस्टेट्स जनरल (सभी वर्गों के प्रतिनिधियों की सभा) की बैठक बुलानी पड़ती थी। आखिरी बैठक 1614 में हुई थी।
- बुलावा: लुई सोलहवें ने 5 मई 1789 को नए टैक्सों की मंजूरी के लिए यह बैठक बुलाई।
- कौन-कौन आया?
- पहले और दूसरे एस्टेट से 300-300 प्रतिनिधि आए।
- तीसरे एस्टेट से 600 प्रतिनिधि आए, जो ज़्यादा पढ़े-लिखे थे। किसान, औरतें और कारीगरों को आने की इजाजत नहीं थी, लेकिन उनके 40,000 पत्रों में उनकी शिकायतें लिखी थीं।
2.2. वोटिंग का झगड़ा और नेशनल असेंबली
- पुराना तरीका: हर एस्टेट को सिर्फ एक वोट मिलता था, चाहे उसमें कितने भी प्रतिनिधि हों।
- तीसरे एस्टेट की मांग: तीसरे एस्टेट ने कहा कि इस बार पूरी सभा में हर सदस्य का एक वोट होना चाहिए (जो रूसो के लोकतांत्रिक विचार पर आधारित था)।
- राजा ने मना किया: जब राजा ने यह बात नहीं मानी, तो तीसरे एस्टेट के प्रतिनिधि विरोध में बाहर चले गए।
- टेनिस कोर्ट की शपथ (20 जून): तीसरे एस्टेट के प्रतिनिधियों ने खुद को पूरे फ्रांस का प्रवक्ता माना। 20 जून को वे वर्साय के एक टेनिस कोर्ट में इकट्ठा हुए।
- नेशनल असेंबली का ऐलान: उन्होंने खुद को नेशनल असेंबली घोषित किया और कसम खाई कि जब तक राजा की ताकत कम करने वाला संविधान नहीं बन जाता, तब तक वे अलग नहीं होंगे।
- नेता: मिराब्यो (जो खुद कुलीन होकर भी विशेषाधिकारों के खिलाफ थे) और आबे सिए (एक पादरी, जिन्होंने ‘तीसरा एस्टेट क्या है?’ नामक प्रसिद्ध पर्चा लिखा) ने उनका नेतृत्व किया।
2.3. जनता का विद्रोह: बास्तील पर हमला (14 जुलाई 1789)
- पूरे फ्रांस में गुस्सा: नेशनल असेंबली जब संविधान बना रही थी, तब भी पूरे फ्रांस में गुस्सा फैल रहा था।
- फसल खराब होने से रोटी बहुत महंगी हो गई। बेकरी वाले जमाखोरी कर रहे थे। गुस्साई औरतों ने दुकानों पर हमला बोल दिया।
- राजा ने सेना को पेरिस आने का आदेश दे दिया था।
- बास्तील का पतन: गुस्से में भरी भीड़ ने 14 जुलाई को बास्तील किले की जेल पर हमला करके उसे तोड़ डाला।
- बास्तील का कमांडर मारा गया और कैदी छुड़ा लिए गए (हालांकि सिर्फ सात ही थे)।
- बास्तील राजा की असीमित ताकत का प्रतीक था, इसलिए इसे लोगों ने नफरत से तोड़ दिया और इसके टुकड़े यादगार के तौर पर बेचे गए।
- गाँवों में विद्रोह: गाँवों में अफवाह फैली कि जमींदारों ने लुटेरे बुलाए हैं। किसानों ने डरकर किलों पर हमला किया, अनाज लूटा और लगान के कागज़ जला दिए। डरकर कई कुलीन अपनी जागीरें छोड़कर भाग गए।
2.4. राजा की हार और विशेषाधिकारों का अंत
- राजा ने झुका सर: लुई सोलहवें ने जनता की ताकत देखी और आखिरकार नेशनल असेंबली को मान लिया। उसने यह भी माना कि अब उसकी ताकत पर संविधान का अंकुश होगा।
- सामंती व्यवस्था खत्म (4 अगस्त 1789): नेशनल असेंबली ने 4 अगस्त 1789 की रात को टैक्स, काम और बंधनों वाली सामंती व्यवस्था को खत्म कर दिया।
- पादरी वर्ग को भी अपने खास अधिकार छोड़ने पड़े।
- धार्मिक टैक्स (‘टाइद’) खत्म हो गया।
- चर्च की जमीनें सरकार ने जब्त कर लीं, जिससे सरकार को लगभग 20 अरब लिब्रे की संपत्ति मिली।
3. फ्रांस बना गणतंत्र: राजा का अंत
संविधान बनने के बाद भी फ्रांस में शांति नहीं आई, बल्कि और बड़े बदलाव हुए।
3.1. संवैधानिक राजतंत्र (1791)
- संविधान पूरा: नेशनल असेंबली ने 1791 में संविधान बना लिया। इसका मकसद राजा की ताकतों को सीमित करना था।
- ताकत का बँटवारा: राजा की ताकत को विधायिका (कानून बनाने वाली), कार्यपालिका (कानून लागू करने वाली) और न्यायपालिका (न्याय करने वाली) में बांट दिया गया। इससे फ्रांस में संवैधानिक राजतंत्र की शुरुआत हुई।
- वोट देने का अधिकार:
- कानून नेशनल असेंबली बनाती थी, जिसका चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता था।
- सभी को वोट का अधिकार नहीं था।
- ‘सक्रिय नागरिक’ (पुरुष): 25 साल से ऊपर के ऐसे पुरुष, जो कम से कम 3 दिन की मजदूरी जितना टैक्स देते थे, उन्हें ही वोट का अधिकार था।
- ‘निष्क्रिय नागरिक’: बाकी पुरुष और सभी महिलाओं को वोट का अधिकार नहीं था।
- अधिकार घोषणापत्र: संविधान की शुरुआत ‘पुरुष एवं नागरिक अधिकार घोषणापत्र’ से हुई। इसमें जीवन, बोलने की आज़ादी और कानून के सामने बराबरी को जन्मसिद्ध और छीने न जा सकने वाले अधिकार बताया गया।
3.2. युद्ध और जैकोबिन क्लब
- राजा की साजिश: संविधान बनने के बाद भी लुई सोलहवाँ प्रशा के राजा के साथ गुपचुप बात कर रहा था।
- युद्ध की घोषणा (अप्रैल 1792): नेशनल असेंबली ने अप्रैल 1792 में प्रशा और ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया।
- जनता की जंग: हज़ारों लोग सेना में भर्ती हुए, उन्होंने इसे राजाओं और कुलीनों के खिलाफ जनता की लड़ाई माना।
- ‘मार्सिले’ गीत: देशभक्ति का गीत ‘मार्सिले’ (जो अब फ्रांस का राष्ट्रगान है) पहली बार पेरिस की ओर बढ़ते स्वयंसेवकों ने गाया था।
- जैकोबिन क्लब: 1791 के संविधान से सिर्फ अमीरों को राजनीतिक अधिकार मिलने से लोग नाराज़ थे। उन्होंने राजनीतिक क्लब बनाए। जैकोबिन क्लब सबसे सफल था।
- सदस्य: छोटे दुकानदार, कारीगर, नौकर, दिहाड़ी मजदूर (कम अमीर वर्ग से)।
- नेता: मैक्समिलियन रोबेस्प्येर।
- ‘सौं कुलॉत’: जैकोबिनों ने लंबी धारीदार पतलून पहनना शुरू किया (कुलीनों के छोटे ब्रीचेस से अलग दिखने के लिए)। उन्हें ‘सौं कुलॉत’ (बिना घुटने वाले) कहा गया। वे लाल टोपी (आज़ादी का प्रतीक) भी पहनते थे।
3.3. राजा का अंत और गणतंत्र की स्थापना
- ट्यूलेरिए पर हमला (10 अगस्त 1792): 1792 की गर्मियों में जैकोबिनों ने महंगाई से नाराज़ पेरिसवासियों के साथ मिलकर महल पर हमला किया। उन्होंने राजा के रक्षकों को मार डाला और राजा को कई घंटों तक बंधक बनाए रखा।
- राजा को जेल: असेंबली ने शाही परिवार को जेल में डालने का प्रस्ताव पास किया।
- नए चुनाव और सबको वोट (पुरुष): नए चुनाव हुए। अब 21 साल से ऊपर के सभी पुरुषों को वोट देने का अधिकार मिला, चाहे उनके पास संपत्ति हो या न हो।
- कन्वेंशन: नई चुनी हुई असेंबली को कन्वेंशन नाम दिया गया।
- गणतंत्र का ऐलान (21 सितंबर 1792): 21 सितंबर 1792 को कन्वेंशन ने राजतंत्र को खत्म कर दिया और फ्रांस को एक ‘गणतंत्र’ (Republic) घोषित किया। (गणतंत्र वह सरकार है जहाँ नेता जनता द्वारा चुने जाते हैं, राजा-रानी के बच्चे नहीं बनते)।
- लुई XVI को फांसी (21 जनवरी 1793): लुई सोलहवें को देशद्रोह के आरोप में मौत की सज़ा मिली और 21 जनवरी 1793 को उसे खुलेआम फाँसी दे दी गई। रानी मेरी एन्तोएनेत का भी यही हश्र हुआ।
4. आतंक राज (1793-1794)
अब गणतंत्र तो बन गया, लेकिन एक नया और भयानक दौर शुरू हुआ।
4.1. रोबेस्प्येर का कठोर शासन
- आतंक का युग: 1793 से 1794 का समय आतंक का युग कहलाया।
- रोबेस्प्येर की नीति: मैक्समिलियन रोबेस्प्येर ने बहुत सख्त नियम लागू किए।
- शत्रुओं का सफाया: उसके हिसाब से गणतंत्र के दुश्मन (कुलीन, पादरी, दूसरे दलों के नेता, यहां तक कि उसकी पार्टी के असंतुष्ट लोग) सभी को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाता था।
- गिलोटिन: अगर अदालत उन्हें दोषी पाती, तो उन्हें गिलोटिन पर चढ़ाकर सिर कलम कर दिया जाता था। (गिलोटिन एक मशीन थी, जिसका नाम उसके आविष्कारक डॉ. गिलोटिन के नाम पर पड़ा)।
4.2. रोबेस्प्येर के खास कानून
- मजदूरी और चीज़ों की कीमतों की अधिकतम सीमा तय कर दी गई।
- गोश्त और पावरोटी की राशनिंग की गई (यानी एक निश्चित मात्रा में ही मिलती थी)।
- किसानों को अपना अनाज शहरों में सरकार द्वारा तय कीमत पर बेचने के लिए मजबूर किया गया।
- महंगे सफेद आटे पर रोक लगा दी गई। सभी के लिए ‘समता रोटी’ (पूरे गेहूँ से बनी, बराबरी का प्रतीक) खाना ज़रूरी कर दिया गया।
- बराबरी का संबोधन: ‘महाशय’ और ‘महोदया’ (मॉन्स्यूर और मदाम) की जगह अब सभी पुरुषों को ‘नागरिक’ (सितोयेन) और महिलाओं को ‘नागरिका’ (सितोयीन) कहा जाने लगा।
- चर्च बंद: चर्चों को बंद करके उनकी इमारतों को सेना की बैरक या दफ्तर बना दिया गया।
4.3. रोबेस्प्येर का अंत
- रोबेस्प्येर ने अपनी नीतियों को इतनी सख्ती से लागू किया कि उसके अपने समर्थक भी परेशान हो गए।
- आखिरकार, जुलाई 1794 में अदालत ने उसे दोषी ठहराया और अगले ही दिन उसे गिलोटिन पर चढ़ा दिया गया।
5. डिरेक्ट्री का राज (जैकोबिन के बाद)
रोबेस्प्येर के बाद, फ्रांस में सरकार का एक नया रूप आया।
- सत्ता अमीरों के हाथ में: जैकोबिन सरकार के गिरने के बाद, मध्य वर्ग के अमीर लोगों के हाथ में सत्ता आ गई।
- वोट का अधिकार फिर सीमित: नए संविधान के तहत, जिनके पास संपत्ति नहीं थी, उनसे वोट का अधिकार छीन लिया गया।
- डिरेक्ट्री का गठन: इस संविधान में दो चुनी हुई विधान परिषदें थीं। इन परिषदों ने पांच सदस्यों वाली एक ‘डिरेक्ट्री’ को चुना, जो सरकार चलाने वाली कार्यपालिका थी। इसका मकसद एक व्यक्ति की तानाशाही (जैकोबिनों जैसी) से बचना था।
- राजनीतिक अस्थिरता: डिरेक्टरों का विधान परिषदों से अक्सर झगड़ा होता रहता था। इस झगड़े और राजनीतिक अस्थिरता ने एक सैनिक तानाशाह – नेपोलियन बोनापार्ट – के आने का रास्ता खोल दिया।
6. दास-प्रथा का उन्मूलन: एक लंबा संघर्ष
क्रांति का असर दूर-दराज के उपनिवेशों तक भी पहुंचा, खासकर दास-प्रथा पर।
- उपनिवेशों का महत्व: फ्रांस के कैरिबियाई उपनिवेश (जैसे मार्टिनिक) तम्बाकू, नील, चीनी और कॉफी जैसी चीज़ों के बड़े उत्पादक थे।
- श्रम की कमी: यूरोपीय लोग वहाँ जाकर काम नहीं करना चाहते थे, इसलिए मजदूरों की कमी हुई।
- त्रिकोणीय दास-व्यापार (17वीं सदी से): यूरोप, अफ्रीका और अमेरिका के बीच दासों का व्यापार शुरू हुआ। फ्रांसीसी व्यापारी अफ्रीका से दास खरीदते, उन्हें जहाज़ों में भरकर कैरिबियाई ले जाते और बागान मालिकों को बेच देते। दास-श्रम से यूरोप में चीनी, कॉफी की मांग पूरी होती थी। बोर्दे और नान्टेस जैसे बंदरगाह इसी व्यापार से अमीर बने।
- शुरुआत में विरोध नहीं: 18वीं सदी में दास-प्रथा की ज़्यादा निंदा नहीं होती थी। नेशनल असेंबली में इस पर लंबी बहस हुई, लेकिन दास व्यापारियों के डर से कोई कानून नहीं बना।
- पहली बार उन्मूलन (1794): 1794 में कन्वेंशन ने फ्रांसीसी उपनिवेशों में सभी दासों को आज़ाद करने का कानून पास किया। यह जैकोबिन शासन का बड़ा सुधार था।
- नेपोलियन ने फिर शुरू की: यह कानून थोड़े समय ही चला। दस साल बाद नेपोलियन ने दास-प्रथा फिर से शुरू कर दी। बागान मालिकों को फिर से अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाने की छूट मिल गई।
- अंतिम उन्मूलन (1848): फ्रांसीसी उपनिवेशों से दास-प्रथा का अंतिम रूप से खात्मा 1848 में हुआ।
7. क्रांति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर
क्रांति ने सिर्फ सरकार नहीं बदली, बल्कि लोगों के जीने, बोलने और सोचने के तरीके को भी बदला।
- स्वतंत्रता और समानता: क्रांतिकारी सरकारों ने कानून बनाकर स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों को आम लोगों के जीवन में उतारने की कोशिश की।
- सेंसरशिप खत्म (1789):
- बास्तील के गिरने के बाद सेंसरशिप खत्म कर दी गई।
- पुराने समय में राजा की इजाजत के बिना कोई किताब, अखबार या नाटक छप या खेला नहीं जा सकता था।
- लेकिन अब ‘अधिकारों के घोषणापत्र’ ने बोलने और लिखने की आज़ादी को जन्मसिद्ध अधिकार बना दिया।
- ज्ञान का फैलाव: शहरों और गाँवों में अखबार, पर्चे, किताबें और तस्वीरें खूब फैल गईं।
- प्रेस की आज़ादी का मतलब था कि किसी भी बात पर अलग-अलग विचार भी छापे जा सकते थे।
- नाटक, संगीत और जुलूसों से भी स्वतंत्रता और न्याय के विचार आम लोगों तक पहुंचे।
8. क्रांति का सारांश और विरासत
फ्रांसीसी क्रांति एक बड़ा मोड़ थी, जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
भारत में टीपू सुल्तान और राजा राममोहन रॉय जैसे नेता भी फ्रांसीसी क्रांति के विचारों से प्रेरित हुए।
नेपोलियन सम्राट बना (1804): 1804 में नेपोलियन बोनापार्ट ने खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया। उसने पड़ोसी यूरोपीय देशों को जीतना शुरू किया और पुराने राजाओं को हटाकर अपने परिवार के लोगों को बैठाया।
आधुनिक बदलाव: नेपोलियन खुद को यूरोप को आधुनिक बनाने वाला मानता था। उसने निजी संपत्ति की सुरक्षा के कानून बनाए और नाप-तौल की एक समान दशमलव प्रणाली शुरू की।
हार (1815): शुरू में नेपोलियन मुक्तिदाता लगा, पर जल्द ही उसकी सेनाओं को लोग हमलावर मानने लगे। आखिरकार 1815 में वॉटरलू में उसकी हार हुई।
क्रांति की महान विरासत:
स्वतंत्रता और जनवादी अधिकारों के विचार फ्रांसीसी क्रांति की सबसे बड़ी देन थे।
ये विचार 19वीं सदी में फ्रांस से निकलकर पूरे यूरोप में फैले और वहाँ सामंती व्यवस्था को खत्म करने में मदद की।
उपनिवेशों में भी लोगों ने आजादी के लिए आवाज उठाई।