MP Board Class 10th SST Vinirmaan Udyog Question Answer
विनिर्माण उद्योग
विनिर्माण क्या है?
विनिर्माण या वस्तु निर्माण (manufacturing) वह प्रक्रिया है जिसमें कच्चे माल को अधिक मात्रा में मूल्यवान उत्पादों में परिवर्तित किया जाता है। यह मूल रूप से वस्तुओं के बड़े पैमाने पर उत्पादन से संबंधित है।
विनिर्माण के कुछ उदाहरण
आपके दिए गए टेक्स्ट में कुछ सामान्य उदाहरण दिए गए हैं कि कैसे कच्चे माल को तैयार उत्पादों में बदला जाता है:
- कागज लकड़ी से बनता है।
- चीनी गन्ने से बनती है।
- लोहा-इस्पात लौह-अयस्क से बनता है।
- एल्यूमिनियम बॉक्साइट से बनता है।
- कई किस्म के कपड़े ऐसे रेशों से बनते हैं जो रेशा उद्योग में निर्मित होते हैं।
द्वितीयक कार्य (Secondary Activities)
जो व्यक्ति द्वितीयक कार्यों (secondary activities) में लगे होते हैं, वे कच्चे माल को परिष्कृत वस्तुओं (finished goods) में बदलते हैं। इस श्रेणी में विभिन्न उद्योगों में कार्यरत श्रमिक शामिल हैं, जैसे:
- स्टील उद्योग
- कार उद्योग
- कपड़ा उद्योग
- बेकरी उद्योग
- पेय पदार्थों से संबंधित उद्योग
कुछ लोग सेवाओं (services) में भी रोजगार पाते हैं, लेकिन इस अध्याय में मुख्य ध्यान द्वितीयक क्रियाओं के अंतर्गत विनिर्माण उद्योगों पर है।
विनिर्माण का महत्व
किसी भी देश की आर्थिक उन्नति (economic progress) को विनिर्माण उद्योगों के विकास से मापा जाता है। इसका मतलब है कि एक मजबूत विनिर्माण क्षेत्र किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।
कृषि का आधुनिकीकरण और रोज़गार सृजन
विनिर्माण उद्योग सिर्फ़ कारखानों तक सीमित नहीं हैं; वे कृषि के आधुनिकीकरण में भी सहायक होते हैं। यह उद्योगों द्वारा आधुनिक उपकरण और तकनीक उपलब्ध कराने से संभव होता है। इसके साथ ही, ये उद्योग द्वितीयक (secondary) और तृतीयक (tertiary) सेवाओं में रोज़गार के अवसर पैदा करते हैं। इसका सीधा परिणाम यह होता है कि कृषि पर हमारी निर्भरता कम होती है, जिससे अर्थव्यवस्था अधिक संतुलित और विविध बनती है।
बेरोज़गारी और गरीबी उन्मूलन
औद्योगिक विकास देश में बेरोज़गारी (unemployment) और गरीबी (poverty) को खत्म करने के लिए एक ज़रूरी शर्त है। भारत में, सार्वजनिक और संयुक्त क्षेत्र (public and joint sector) में स्थापित उद्योगों का मूल विचार यही था। इन उद्योगों को जनजातीय और पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित करने का उद्देश्य भी क्षेत्रीय असमानताओं (regional disparities) को कम करना था, ताकि इन क्षेत्रों का भी विकास हो सके और वहां के लोगों को रोज़गार मिल सके।
विदेशी मुद्रा और आर्थिक विकास
निर्मित वस्तुओं का निर्यात (export of manufactured goods) वाणिज्य व्यापार (commercial trade) को बढ़ावा देता है, जिससे देश को विदेशी मुद्रा (foreign exchange) प्राप्त होती है। जिन देशों में कच्चे माल को विभिन्न और अधिक मूल्यवान तैयार माल में बदला जाता है, वे ही देश विकसित माने जाते हैं।
कृषि और उद्योग: पूरक संबंध
यह समझना महत्वपूर्ण है कि कृषि और उद्योग एक-दूसरे से अलग नहीं हैं, बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं। वे मिलकर एक देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करते हैं।
उदाहरण के लिए, भारत में:
- कृषि-आधारित उद्योग (agro-based industries) कृषि पैदावार बढ़ाने में मदद करते हैं। ये उद्योग सीधे तौर पर कच्चे माल के लिए कृषि पर निर्भर करते हैं (जैसे चीनी उद्योग गन्ने पर, कपड़ा उद्योग कपास पर)।
- वहीं, किसान भी इन उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों पर निर्भर करते हैं। इनमें शामिल हैं:
- सिंचाई के लिए पंप
- उर्वरक
- कीटनाशक दवाएँ
- प्लास्टिक पाइप
- मशीनें
- कृषि औजार
इस प्रकार, विनिर्माण उद्योग के विकास और उनमें बढ़ती प्रतिस्पर्धा से न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला है, बल्कि पूरी उत्पादन प्रक्रिया भी अधिक सक्षम हुई है। यह एक सकारात्मक चक्र बनाता है जहां एक क्षेत्र का विकास दूसरे को भी लाभ पहुंचाता है।
वैश्वीकरण और उद्योगों के लिए चुनौतियां
आज के वैश्वीकरण (globalization) के युग में भारतीय उद्योगों के सामने एक बड़ी चुनौती है। उन्हें केवल आत्मनिर्भर होने से काम नहीं चलेगा। हमारे उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धी (competitive) और सक्षम (efficient) होने की आवश्यकता है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए, हमारी वस्तुओं की गुणवत्ता अंतर्राष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए। यदि हमारे उत्पाद गुणवत्ता में वैश्विक मानकों को पूरा नहीं करते, तो हम अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में पीछे रह जाएंगे। इसलिए, गुणवत्ता और दक्षता पर ध्यान केंद्रित करना अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
उद्योगों का वर्गीकरण
यहां उद्योगों के कुछ प्रमुख वर्गीकरण दिए गए हैं:
1. प्रयुक्त कच्चे माल के स्रोत के आधार पर
यह वर्गीकरण बताता है कि उद्योग किस प्रकार के कच्चे माल का उपयोग करते हैं:
- कृषि आधारित उद्योग: ये उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि उत्पादों पर निर्भर करते हैं।
- उदाहरण: सूती वस्त्र, ऊनी वस्त्र, पटसन, रेशम वस्त्र, रबर, चीनी, चाय, कॉफी और वनस्पति तेल उद्योग।
- खनिज आधारित उद्योग: ये उद्योग खनिजों और अयस्कों को अपने कच्चे माल के रूप में उपयोग करते हैं।
- उदाहरण: लोहा तथा इस्पात, सीमेंट, एल्युमीनियम, मशीन, औजार और पेट्रो-रसायन उद्योग।
2. प्रमुख भूमिका के आधार पर
यह वर्गीकरण उद्योगों की अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका को दर्शाता है:
- आधारभूत उद्योग (Basic Industries): ये वे उद्योग हैं जिनके उत्पादन या कच्चे माल पर अन्य उद्योग निर्भर करते हैं। इन्हें ‘की’ इंडस्ट्रीज भी कहा जा सकता है।
- उदाहरण: लोहा इस्पात, तांबा प्रगलन और एल्युमीनियम प्रगलन उद्योग।
- उपभोक्ता उद्योग (Consumer Industries): ये उद्योग ऐसे उत्पाद बनाते हैं जो सीधे उपभोक्ताओं द्वारा उपयोग किए जाते हैं।
- उदाहरण: चीनी, दंतमंजन, कागज, पंखे और सिलाई मशीन।
3. पूँजी निवेश के आधार पर
यह वर्गीकरण किसी उद्योग में किए गए अधिकतम निवेश की मात्रा पर आधारित है:
- लघु उद्योग (Small Scale Industries): एक लघु उद्योग को परिसंपत्ति (asset) में अधिकतम निवेश मूल्य के आधार पर परिभाषित किया जाता है। यह निवेश सीमा समय के साथ बदलती रहती है।
- वर्तमान में, भारत में लघु उद्योगों के लिए अधिकतम स्वीकार्य निवेश ₹1 करोड़ (एक करोड़ रुपये) तक है। इसका मतलब है कि यदि किसी उद्योग की परिसंपत्ति में निवेश ₹1 करोड़ तक है, तो उसे लघु उद्योग माना जाएगा।
4. स्वामित्व के आधार पर
यह वर्गीकरण इस बात पर आधारित है कि उद्योग का मालिक कौन है और उसका प्रबंधन कौन करता है:
- सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग (Public Sector Industries): ये उद्योग सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित और सरकार द्वारा संचालित होते हैं।
- उदाहरण: भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड (BHEL) और स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL)।
- निजी क्षेत्र के उद्योग (Private Sector Industries): इन उद्योगों का स्वामित्व और संचालन एक व्यक्ति द्वारा या व्यक्तियों के समूह द्वारा किया जाता है।
- उदाहरण: टिस्को (TISCO), बजाज ऑटो लिमिटेड (Bajaj Auto Limited) और रिलायंस इंडस्ट्रीज (Reliance Industries)।
- संयुक्त उद्योग (Joint Sector Industries): ये वे उद्योग होते हैं जो राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के संयुक्त प्रयासों से चलाए जाते हैं। इसमें सरकार और निजी संस्था दोनों की हिस्सेदारी होती है।
- उदाहरण: ऑयल इंडिया लिमिटेड (Oil India Limited)।
- सहकारी उद्योग (Cooperative Industries): ये वे उद्योग होते हैं जिनका स्वामित्व (ownership) कच्चे माल की पूर्ति करने वाले उत्पादकों (producers), श्रमिकों (workers) या इन दोनों के हाथों में होता है।
- इन उद्योगों में संसाधनों का कोष संयुक्त होता है, यानी सभी सदस्य मिलकर संसाधनों का योगदान करते हैं।
- लाभ-हानि का विभाजन भी सदस्यों के बीच आनुपातिक होता है, यानी जिसने जितना योगदान किया है, उसे उसी अनुपात में लाभ या हानि मिलती है।
- उदाहरण: महाराष्ट्र के चीनी उद्योग (जहां गन्ना किसान सहकारी समितियों के सदस्य होते हैं) और केरल के नारियल पर आधारित उद्योग।
6. कच्चे तथा तैयार माल की मात्रा व भार के आधार पर
यह वर्गीकरण उद्योग में उपयोग होने वाले कच्चे माल और उत्पादित तैयार माल के वजन और मात्रा पर आधारित है:
- भारी उद्योग (Heavy Industries): ये वे उद्योग हैं जो भारी और अधिक मात्रा वाले कच्चे माल का उपयोग करते हैं और भारी तैयार माल का उत्पादन करते हैं।
- उदाहरण: लोहा तथा इस्पात उद्योग।
- हल्के उद्योग (Light Industries): ये वे उद्योग हैं जो कम भार वाले कच्चे माल का प्रयोग करते हैं और हल्के तैयार माल का उत्पादन करते हैं।
- उदाहरण: विद्युतीय उद्योग (जैसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, बल्ब आदि बनाने वाले उद्योग)।
कृषि-आधारित उद्योग
कृषि-आधारित उद्योग वे हैं जो अपने कच्चे माल के लिए सीधे कृषि उत्पादों पर निर्भर करते हैं। जैसा कि आपने बताया, इनमें शामिल हैं:
- सूती वस्त्र उद्योग
- पटसन उद्योग
- रेशम उद्योग
- ऊनी वस्त्र उद्योग
- चीनी उद्योग
- वनस्पति तेल उद्योग
ये सभी उद्योग किसानों द्वारा उगाए गए उत्पादों को मूल्यवान तैयार वस्तुओं में बदलते हैं।
वस्त्र उद्योग: एक विस्तृत अवलोकन
भारतीय अर्थव्यवस्था में वस्त्र उद्योग का अपना एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान है। इसका कारण यह है कि यह औद्योगिक उत्पादन में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता है। भारत के लिए यह एक अकेला ऐसा उद्योग है जो कच्चे माल से लेकर उच्चतम अतिरिक्त मूल्य वाले उत्पाद (जैसे तैयार कपड़े या परिधान) तक की पूरी श्रृंखला में परिपूर्ण और आत्मनिर्भर है। इसका मतलब है कि भारत में कच्चे माल की उपलब्धता, प्रोसेसिंग, बुनाई, रंगाई, सिलाई और अंतिम उत्पाद तैयार करने तक की सारी प्रक्रियाएं देश के भीतर ही पूरी हो सकती हैं।
सूती वस्त्र उद्योग: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
प्राचीन भारत में, सूती वस्त्र हाथ से कताई (spinning) और हथकरघा (handloom) बुनाई तकनीकों का उपयोग करके बनाए जाते थे। यह हमारी पारंपरिक शिल्प कौशल का एक उत्कृष्ट उदाहरण था और भारतीय सूती वस्त्रों की विश्व भर में बहुत मांग थी।
हालाँकि, अठारहवीं शताब्दी के बाद, विद्युतीय करघों (power looms) का उपयोग शुरू हुआ, जिसने उत्पादन की गति और पैमाने को बढ़ा दिया। औपनिवेशिक काल के दौरान, हमारे इन परंपरागत उद्योगों को बहुत हानि हुई। इसका मुख्य कारण यह था कि हमारे हाथ से बने उत्पाद इंग्लैंड की मशीन-निर्मित सस्ती और अधिक मात्रा में उत्पादित वस्त्रों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए। इस दौर में भारतीय वस्त्र उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ा और हमारी आत्मनिर्भरता भी प्रभावित हुई।
वस्त्र उद्योग में अतिरिक्त मूल्य उत्पाद का प्रवाह
आपका दिया गया चित्र 6.1 वस्त्र उद्योग की उत्पादन प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से समझाता है, जहाँ कच्चे रेशे (raw fiber) से लेकर तैयार परिधान (garment) तक विभिन्न चरणों में मूल्य जोड़ा जाता है:
1. कच्चा रेशा (Raw Fiber): यह प्रक्रिया का प्रारंभिक बिंदु है, जहाँ कृषि से या अन्य स्रोतों से कच्चा रेशा प्राप्त किया जाता है (जैसे कपास, जूट, ऊन, रेशम, या कृत्रिम रेशे)।
2. धुनाई (Ginning/Carding – प्रारंभिक प्रसंस्करण): कच्चे रेशे को साफ करने और गांठों को हटाने की प्रक्रिया। यह सुनिश्चित करता है कि रेशे बुनाई के लिए तैयार हैं।
3. कताई (Spinning): धुनाई किए गए रेशों को एक साथ मोड़कर सूत (yarn) बनाया जाता है। यह वह चरण है जहाँ पतले, मजबूत धागे बनते हैं।
4. बुनाई (Weaving): कताई किए गए सूत को करघों (looms) पर बुनकर कपड़ा (fabric/cloth) बनाया जाता है। यह कपड़ा अभी अपनी मूल अवस्था में होता है।
5. रंगाई व परिष्करण (Dyeing & Finishing): तैयार कपड़े को उसकी अंतिम उपयोगिता के अनुसार रंगा (dyed) जाता है और उस पर परिष्करण (finished) प्रक्रियाएं की जाती हैं। इसमें ब्लीचिंग, प्रिंटिंग, श्रिंक-रेसिस्टेंस ट्रीटमेंट, क्रीज-रेसिस्टेंस आदि शामिल हो सकते हैं, जो कपड़े को वांछित रूप और गुण प्रदान करते हैं।
6. विनिर्माण (Manufacturing – गारमेंट निर्माण): यह अंतिम चरण है जहाँ परिष्कृत कपड़े को काटकर और सिलकर तैयार परिधान (garment) या अन्य वस्त्र उत्पाद (जैसे चादरें, तौलिये) बनाए जाते हैं। यहीं पर उत्पाद अंतिम उपभोक्ता के लिए तैयार होता है और सबसे अधिक मूल्य जोड़ा जाता है।
सूती वस्त्र उद्योग का स्थानीयकरण और विस्तार
आरंभिक वर्षों में, सूती वस्त्र उद्योग मुख्य रूप से महाराष्ट्र और गुजरात के कपास उत्पादन क्षेत्रों तक ही सीमित था। इसके स्थानीयकरण के पीछे कई महत्वपूर्ण कारक थे:
- कपास की उपलब्धता: इन क्षेत्रों में कच्चे माल यानी कपास की भरपूर आपूर्ति थी।
- बाज़ार: तैयार उत्पादों को बेचने के लिए बड़ा बाज़ार मौजूद था।
- परिवहन: कच्चे माल और तैयार उत्पादों के परिवहन के लिए अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध थीं।
- पत्तनों की समीपता: बंदरगाहों (पत्तनों) के करीब होने से आयात-निर्यात में आसानी होती थी।
- श्रम: उद्योग के लिए आवश्यक कुशल और अकुशल श्रमिकों की उपलब्धता थी।
- नमीयुक्त जलवायु: कपास की कताई के लिए नमीयुक्त जलवायु अनुकूल होती है, जो इन तटीय क्षेत्रों में स्वाभाविक रूप से पाई जाती है।
कृषि और अन्य उद्योगों से संबंध
सूती वस्त्र उद्योग का कृषि से बहुत गहरा संबंध है। यह न केवल कपास के किसानों को बल्कि पूरी मूल्य श्रृंखला में शामिल कई अन्य लोगों को भी जीविका प्रदान करता है, जैसे:
- कपास चुनने वाले
- गाँठ बनाने वाले
- कताई करने वाले
- रंगाई करने वाले
- डिजाइन बनाने वाले
- पैकेट बनाने वाले
- सिलाई करने वाले
इसके अलावा, यह उद्योग कई अन्य उद्योगों की माँग को भी बढ़ाता है, जिससे उनका भी विकास होता है। इनमें शामिल हैं:
- रसायन उद्योग
- रंजक (रंग) उद्योग
- मिल-स्टोर उद्योग
- पैकेजिंग सामग्री उद्योग
- इंजीनियरिंग उद्योग (मशीनरी और उपकरण बनाने वाले)
कताई बनाम बुनाई: एक विरोधाभास
भारत में सूती वस्त्र उद्योग में एक रोचक विरोधाभास देखने को मिलता है:
- कताई कार्य (Spinning): यह मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु में केंद्रित है। भारत का कताई उत्पादन विश्व स्तर का है और हम उच्च गुणवत्ता वाले धागे का उत्पादन करते हैं।
- बुनाई कार्य (Weaving): इसके विपरीत, बुनाई अत्यधिक विकेंद्रीकृत (decentralized) है। यह देश के विभिन्न हिस्सों में फैला हुआ है, जहाँ सूती, रेशम और ज़री-कशीदाकारी जैसे बुनाई के परंपरागत कौशल और डिज़ाइन प्रचलित हैं।
हालांकि, एक बड़ी चुनौती यह है कि भारत में उत्पादित उच्च गुणवत्ता वाले धागे का पूरा उपयोग बुने हुए वस्त्रों में नहीं हो पाता, जिसके कारण भारत का बुना वस्त्र अक्सर कम गुणवत्ता वाला होता है। बुनाई का कार्य विभिन्न स्तरों पर होता है:
- हथकरघे (Handlooms): पारंपरिक और श्रम-प्रधान।
- विद्युतकरघे (Powerlooms): अधिक आधुनिक और कुशल।
- मिलें (Mills): बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए।
खादी: कुटीर उद्योग और रोज़गार
हाथ से बुनी खादी एक महत्वपूर्ण कुटीर उद्योग (cottage industry) है। यह बुनकरों को उनके घरों में ही बड़े पैमाने पर रोज़गार प्रदान करता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में। खादी न केवल सांस्कृतिक महत्व रखती है बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा देती है।
पटसन उद्योग: एक अवलोकन
भारत पटसन (जूट) और पटसन से निर्मित सामान का विश्व में सबसे बड़ा उत्पादक है। हालाँकि, निर्यात के मामले में यह बांग्लादेश के बाद दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
साल 2010-11 में, भारत में लगभग 80 पटसन उद्योग थे। इनमें से अधिकांश उद्योग पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के तट पर केंद्रित हैं। ये उद्योग लगभग 98 किलोमीटर लंबी और 3 किलोमीटर चौड़ी एक संकरी पट्टी में स्थित हैं।
पटसन उद्योग का इतिहास और विभाजन का प्रभाव
भारत में पहला पटसन उद्योग 1855 में कोलकाता के पास रिशरा (Rishra) में स्थापित किया गया था।
1947 में देश के विभाजन (भारत और पाकिस्तान के बँटवारे) के बाद, पटसन उद्योग को एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। अधिकांश पटसन मिलें तो भारत में रह गईं, लेकिन तीन-चौथाई जूट उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान (जो बाद में बांग्लादेश बना) में चले गए। इस भौगोलिक विभाजन ने भारतीय पटसन उद्योग के लिए कच्चे माल की उपलब्धता को प्रभावित किया।
हुगली नदी तट पर पटसन उद्योगों के स्थानीयकरण के कारण
हुगली नदी के किनारे पटसन उद्योगों के केंद्रित होने के कई महत्वपूर्ण कारण हैं, जो इसकी स्थापना और विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करते हैं:
- पटसन उत्पादक क्षेत्रों की निकटता: पश्चिम बंगाल में और उसके आसपास पटसन की खेती बड़े पैमाने पर होती है, जिससे कच्चे माल की आसानी से उपलब्धता सुनिश्चित होती है।
- सस्ता जल परिवहन: हुगली नदी के माध्यम से कच्चे माल और तैयार उत्पादों का परिवहन सस्ता और सुविधाजनक हो जाता है।
- परिवहन का सघन जाल: सड़क, रेल और जल परिवहन का एक विकसित नेटवर्क कच्चे माल को मिलों तक लाने और तैयार उत्पादों को बाजारों तक ले जाने में सहायक होता है।
- प्रचुर जल उपलब्धता: कच्चे पटसन को संसाधित करने (विशेषकर जूट को गलाने) के लिए बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है, जो हुगली नदी से आसानी से उपलब्ध होता है।
- सस्ते श्रमिक: पश्चिम बंगाल और पड़ोसी राज्यों जैसे ओडिशा, बिहार और उत्तर प्रदेश से सस्ते और पर्याप्त श्रमिक उपलब्ध होते हैं।
- कोलकाता का नगरीय केंद्र: कोलकाता एक बड़ा नगरीय केंद्र है जो उद्योगों को बैंकिंग, बीमा और जूट के सामान के निर्यात के लिए पत्तन (बंदरगाह) जैसी आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करता है।
चीनी उद्योग की विशेषताएँ
- कच्चे माल का स्वरूप: इस उद्योग में उपयोग किया जाने वाला कच्चा माल (गन्ना) भारी होता है, और ढुलाई में इसकी सुक्रोस (चीनी) की मात्रा घट जाती है। यही कारण है कि चीनी मिलें अक्सर गन्ना उत्पादक क्षेत्रों के करीब स्थापित की जाती हैं।
- भौगोलिक फैलाव: चीनी मिलें भारत के कई राज्यों में फैली हुई हैं, जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश शामिल हैं। हालाँकि, 60% चीनी मिलें अकेले उत्तर प्रदेश और बिहार में केंद्रित हैं।
- मौसमी उद्योग: चीनी उद्योग एक मौसमी उद्योग (seasonal industry) है, क्योंकि यह गन्ने की कटाई के मौसम पर निर्भर करता है। गन्ना एक निश्चित समय में ही उपलब्ध होता है, जिससे मिलें साल के कुछ ही महीनों तक काम कर पाती हैं।
मौसमी उद्योग और सहकारी क्षेत्र की उपयुक्तता
जब कोई उद्योग मौसमी होता है, तो उसका संचालन साल भर नहीं होता। ऐसे में, यदि यह एक निजी उद्योग होता, तो मालिक को गैर-कार्यशील महीनों में भी श्रमिकों को बनाए रखने या उन्हें फिर से भर्ती करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता। वहीं, सहकारी क्षेत्र में, किसान (गन्ना उत्पादक) ही अक्सर मिल के सदस्य या मालिक होते हैं।
- उत्पादकों का हित: किसान सीधे तौर पर मिल के मालिक होने के कारण अपनी उपज (गन्ना) को सीधे मिल तक पहुँचाने में अधिक रुचि रखते हैं।
- संसाधनों का साझाकरण: वे मिल के संचालन में वित्तीय और श्रम संसाधन साझा करते हैं, जिससे मौसमी निष्क्रियता के दौरान लागत का बोझ कम होता है।
- लाभ का सीधा वितरण: मुनाफे का वितरण सीधे सदस्यों (किसानों) के बीच होता है, जिससे उन्हें अपनी उपज का उचित मूल्य मिलता है और वे मिल की सफलता में भागीदार महसूस करते हैं।
इस प्रकार, मौसमी प्रकृति के कारण, सहकारी मॉडल चीनी उद्योग के लिए अधिक स्थिर और लाभदायक साबित होता है, क्योंकि यह किसानों और श्रमिकों के हितों को सीधे जोड़ता है।
दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में चीनी मिलों का विस्तार
पिछले कुछ वर्षों से, चीनी मिलों की संख्या दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में, विशेषकर महाराष्ट्र में, बढ़ी है। इसके मुख्य कारण हैं:
- गन्ने में अधिक सुक्रोस की मात्रा: इन क्षेत्रों में उगाए जाने वाले गन्ने में सुक्रोस की मात्रा (चीनी की उच्च उपज) अधिक होती है, जिससे अधिक चीनी का उत्पादन होता है।
- ठंडी जलवायु: अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु गन्ने की खेती और उसमें चीनी की मात्रा के संरक्षण के लिए गुणकारी मानी जाती है।
- सहकारी समितियों की सफलता: इन राज्यों में सहकारी समितियाँ भी अधिक सफल रही हैं, जिन्होंने किसानों को संगठित करके चीनी मिलों के विकास को बढ़ावा दिया है।
लोहा तथा इस्पात उद्योग: अर्थव्यवस्था की रीढ़
लोहा तथा इस्पात उद्योग को आधारभूत (basic) उद्योग कहा जाता है क्योंकि अन्य सभी भारी, हल्के और मध्यम उद्योग इनसे बनी मशीनरी पर निर्भर करते हैं। इस्पात के बिना आधुनिक औद्योगिक उत्पादन लगभग असंभव है।
इस्पात की आवश्यकता विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण के लिए होती है, जैसे:
- इंजीनियरिंग सामान
- निर्माण सामग्री (जैसे भवन, पुल)
- रक्षा उपकरण
- चिकित्सा उपकरण
- टेलीफोन
- वैज्ञानिक उपकरण
- और विविध प्रकार की उपभोक्ता वस्तुएँ (जैसे रसोई के बर्तन, घरेलू उपकरण)
इस्पात: विकास का पैमाना
इस्पात के उत्पादन और खपत को अक्सर एक देश के विकास का पैमाना माना जाता है। इसका सीधा सा कारण यह है कि किसी भी औद्योगिक विकास के लिए इस्पात एक मूलभूत आवश्यकता है। जितना अधिक इस्पात का उत्पादन और उपयोग होता है, उतनी ही अधिक औद्योगिक गतिविधियाँ होती हैं, जो देश की आर्थिक प्रगति को दर्शाती हैं।
एक भारी उद्योग: चुनौतियाँ और आवश्यकताएँ
लोहा तथा इस्पात उद्योग को भारी उद्योग (heavy industry) की श्रेणी में रखा जाता है। इसके मुख्य कारण हैं:
- कच्चा माल और तैयार माल दोनों ही भारी और स्थूल (bulky) होते हैं।
- इसके लिए अधिक परिवहन लागत की आवश्यकता होती है, चाहे वह कच्चा माल लाने में हो या तैयार उत्पाद भेजने में।
कच्चे माल का अनुपात
इस उद्योग के लिए प्रमुख कच्चे माल हैं: लौह-अयस्क (iron ore), कोकिंग कोल (coking coal) और चूना पत्थर (limestone)। इनका आदर्श अनुपात लगभग 4:2:1 का होता है। यानी, 4 टन लौह-अयस्क, 2 टन कोकिंग कोल और 1 टन चूना पत्थर। इस्पात को कठोर बनाने के लिए इसमें मैंगनीज़ की कुछ मात्रा भी मिलाई जाती है।
आदर्श स्थापना स्थल
एक इस्पात उद्योग की आदर्श स्थापना ऐसे स्थान पर होनी चाहिए जहाँ:
- कच्चे माल की उपलब्धता आसानी से और सस्ते में हो।
- उत्पादित माल को बाज़ार और उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के लिए सक्षम परिवहन की व्यवस्था हो।
इन कारकों को देखते हुए, अक्सर इस्पात उद्योग या तो कच्चे माल के स्रोतों के करीब या प्रमुख परिवहन मार्गों (जैसे बंदरगाहों या रेलवे हब) के पास स्थापित किए जाते हैं।
भारत में इस्पात उद्योगों का संकेंद्रण
भारत में अधिकांश लोहा तथा इस्पात उद्योग छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में संकेंद्रित (concentrated) हैं। इस क्षेत्र में इस उद्योग के विकास के लिए अत्यधिक अनुकूल सापेक्षिक परिस्थितियाँ मौजूद हैं:
- लौह अयस्क की कम लागत: इस क्षेत्र में उच्च गुणवत्ता वाले लौह अयस्क के विशाल भंडार मौजूद हैं, जिससे कच्चे माल की लागत कम रहती है।
- उच्च कोटि के कच्चे माल की निकटता: कोकिंग कोल और अन्य आवश्यक खनिजों की निकटता भी एक बड़ा फायदा है।
- सस्ते श्रमिक: इस क्षेत्र में सस्ते और पर्याप्त श्रमिकों की उपलब्धता है।
- स्थानीय बाज़ार में माँग की विशाल संभाव्यता: देश के पूर्वी और उत्तरी हिस्सों में औद्योगिक और उपभोक्ता बाजार की बड़ी मांग इस क्षेत्र के उद्योगों के लिए एक बड़ा अवसर प्रदान करती है।
क्रियाकलाप: इस्पात से बनी उन सभी पदार्थों की सूची बनाएँ जो आप सोच सकते हैं। यह एक मजेदार अभ्यास है! इस्पात से बनी चीजों की एक छोटी सूची यहाँ दी गई है:
- कारें, ट्रक, ट्रेन
- जहाज, पनडुब्बियां
- पुल, गगनचुंबी इमारतें
- रेफ्रिजरेटर, वॉशिंग मशीन जैसे घरेलू उपकरण
- सर्जिकल उपकरण, ऑपरेशन टेबल
- कंटेनर, पाइप
- स्क्रू, नट, बोल्ट
- स्टील फर्नीचर
- सिक्के (कुछ प्रकार के)
इस्पात निर्माण प्रक्रिया: चरण-दर-चरण
यहां इस्पात निर्माण की प्रक्रिया को आपके दिए गए बिंदुओं के आधार पर समझाया गया है:
1. कच्चे माल का कारखानों तक परिवहन
यह प्रक्रिया का प्रारंभिक चरण है। इस्पात बनाने के लिए आवश्यक कच्चे माल – जैसे लौह-अयस्क (iron ore), कोकिंग कोल (coking coal) और चूना पत्थर (limestone) – को उत्पादन स्थल तक पहुँचाया जाता है।
2. झोंकदार भट्टी (Blast Furnace): ढलवाँ लोहे का निर्माण
यह इस्पात निर्माण का पहला मुख्य चरण है जहाँ लौह-अयस्क को पिघलाया जाता है:
- लौह-अयस्क का गलाया जाना: लौह-अयस्क को झोंकदार भट्टी में उच्च तापमान पर पिघलाया जाता है।
- सहायक खनिज: चूना पत्थर एक सहायक खनिज के रूप में इसमें मिलाया जाता है। यह अशुद्धियों को हटाने में मदद करता है और धातु का मैल (slag) बनाता है, जिसे बाद में हटा दिया जाता है।
- ईंधन: अयस्क को गर्म करने के लिए कोक (कोकिंग कोल से प्राप्त) का ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कोक न केवल गर्मी प्रदान करता है बल्कि लौह-अयस्क से ऑक्सीजन को हटाने (अपचयन) में भी मदद करता है।
- ढलवाँ लोहा (Pig Iron): पिघले हुए तरल पदार्थ को साँचों में डाला जाता है, जिससे ढलवाँ लोहा (pig iron) तैयार होता है। यह लोहा अभी भी कच्चा होता है और इसमें उच्च कार्बन सामग्री तथा अन्य अशुद्धियाँ होती हैं।
3. इस्पात बनाना (Steel Making)
ढलवाँ लोहे से इस्पात बनाने की प्रक्रिया में अशुद्धियों को हटाना और वांछित गुण प्राप्त करना शामिल है:
- पुनः गलाना और शुद्धिकरण: ढलवाँ लोहे को पुनः गलाकर (re-melting) और ऑक्सीकरण (oxidation) द्वारा अशुद्धियाँ हटाकर शुद्ध किया जाता है। ऑक्सीकरण प्रक्रिया में हवा या ऑक्सीजन को पिघले हुए लोहे में से गुजारा जाता है, जिससे कार्बन और अन्य अशुद्धियाँ गैसों के रूप में बाहर निकल जाती हैं।
- मिश्रधातु मिलाना: इस्पात को वांछित गुण (जैसे कठोरता, जंग-प्रतिरोध) देने के लिए इसमें मैंगनीज़, निकल, क्रोमियम जैसे मिश्रधातु (alloys) मिलाए जाते हैं। यह इसे विशिष्ट प्रकार का इस्पात बनाता है।
4. धातु को आकार देना (Shaping the Metal)
इस्पात बनने के बाद, इसे विभिन्न उत्पादों में ढालने के लिए आकार दिया जाता है:
- रोलिंग (Rolling): इस्पात को रोलर के बीच से गुजारकर चादरों, छड़ों या अन्य आकृतियों में बदला जाता है।
- प्रेसिंग (Pressing): उच्च दबाव का उपयोग करके इस्पात को आकार दिया जाता है।
- ढलाई (Casting): पिघले हुए इस्पात को साँचों में डालकर सीधे वांछित आकार में ठोस किया जाता है।
- गढ़ाई (Forging): इस्पात को गर्म करके हथौड़े या प्रेस की मदद से उसे आकार दिया जाता है, जिससे उसकी संरचना मजबूत होती है।
यह उद्योग भारत में धातु शोधन (metal refining) के क्षेत्र में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण उद्योग है।
एल्यूमिनियम प्रगलन: एक महत्वपूर्ण धातु शोधन उद्योग
एल्यूमिनियम धातु कई विशिष्ट गुणों के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है:
- हल्का (Lightweight): यह इसे विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए आदर्श बनाता है जहाँ वजन कम रखना महत्वपूर्ण है।
- जंग अवरोधी (Corrosion Resistant): यह आसानी से जंग नहीं खाता, जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ जाती है।
- ऊष्मा का सुचालक (Good Conductor of Heat): यह ऊष्मा को अच्छी तरह से संचालित करता है, जो इसे बर्तन और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं के लिए उपयुक्त बनाता है।
- लचीला (Malleable/Ductile): इसे आसानी से विभिन्न आकृतियों में ढाला जा सकता है और तार के रूप में खींचा जा सकता है।
- मिश्र धातुओं में कठोरता (Harder in Alloys): इसे अन्य धातुओं के मिश्रण से अधिक कठोर बनाया जा सकता है, जिससे इसकी मजबूती बढ़ती है।
इन गुणों के कारण, एल्यूमिनियम का उपयोग कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में होता है, जैसे:
- हवाई जहाज बनाने में: इसके हल्केपन और मजबूती के कारण।
- बर्तन बनाने में: ऊष्मा की सुचालकता के कारण।
- तार बनाने में: इसकी लचीलेपन और विद्युत चालकता के कारण।
कई उद्योगों में इसका महत्व इस्पात, ताँबा, जस्ता और सीसे के विकल्प (substitute) के रूप में प्रयुक्त होने से बढ़ा है। यह इन धातुओं के स्थान पर इस्तेमाल किया जा सकता है जहाँ इसके विशिष्ट गुण अधिक फायदेमंद होते हैं।
एल्यूमिनियम प्रगलन संयंत्रों का वितरण
भारत में एल्यूमिनियम प्रगलन संयंत्र कई राज्यों में स्थित हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों में इसके उत्पादन को दर्शाते हैं:
- ओडिशा
- पश्चिम बंगाल
- केरल
- उत्तर प्रदेश
- छत्तीसगढ़
- महाराष्ट्र
- तमिलनाडु
एल्यूमिनियम निर्माण प्रक्रिया और इसकी आवश्यकताएँ
एल्यूमिनियम प्रगालकों (smelters) में बॉक्साइट (bauxite) का उपयोग कच्चे पदार्थ के रूप में किया जाता है। बॉक्साइट एक भारी, गहरे लाल रंग की चट्टान जैसा होता है।
एल्यूमिनियम निर्माण प्रक्रिया को चित्र 6.5 (जैसा कि आपने उल्लेख किया) में प्रवाह चार्ट के माध्यम से दर्शाया जा सकता है, जिसमें बॉक्साइट से एल्यूमिनियम धातु के निष्कर्षण के विभिन्न चरण शामिल होते हैं।
इस उद्योग की स्थापना के लिए दो महत्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं:
- नियमित ऊर्जा की पूर्ति (Regular Supply of Energy): एल्यूमिनियम प्रगलन एक अत्यधिक ऊर्जा-गहन प्रक्रिया है। इसे चलाने के लिए बहुत अधिक और लगातार बिजली की आवश्यकता होती है। इसलिए, ऊर्जा संयंत्रों के करीब या जहाँ ऊर्जा की विश्वसनीय आपूर्ति हो, वहाँ इनकी स्थापना आदर्श होती है।
- कम कीमत पर कच्चे माल (बॉक्साइट) की सुनिश्चित उपलब्धता (Assured Availability of Raw Material at Low Cost): बॉक्साइट भारी होता है, और इसकी ढुलाई लागत को कम रखने के लिए, प्रगलन संयंत्रों को बॉक्साइट खदानों के करीब स्थापित किया जाना चाहिए।
एल्यूमिनियम विनिर्माण प्रक्रिया: एक चरण-वार विश्लेषण
यह प्रक्रिया कई महत्वपूर्ण चरणों और इनपुट पर निर्भर करती है:
1. कच्चे माल का परिवहन
- बॉक्साइट खनन (Bauxite Mining): एल्यूमिनियम का प्राथमिक कच्चा माल बॉक्साइट होता है, जो भारी और गहरे लाल रंग का होता है। इसका खनन किया जाता है।
- परिवहन: खनन के बाद, भारी बॉक्साइट अयस्क को प्रगालक स्थल (Smelter Site) तक पहुँचाया जाता है। यह परिवहन अक्सर सतत रेल या समुद्री जहाज के माध्यम से होता है ताकि भारी मात्रा में अयस्क को कुशलतापूर्वक ले जाया जा सके।
2. एल्यूमिना शोधशाला (Refinery) में प्रसंस्करण
- शोधशाला (Refinery): प्रगालक स्थल पर पहुँचने के बाद, बॉक्साइट को शोधशाला में भेजा जाता है।
- बॉक्साइट दलन (Crushing): सबसे पहले, बॉक्साइट को छोटे-छोटे टुकड़ों में दला (crushed) जाता है।
- एल्यूमिना घुलन (Dissolving Alumina): दले हुए बॉक्साइट को एक रासायनिक प्रक्रिया (आमतौर पर बेयर प्रक्रिया) के माध्यम से संसाधित किया जाता है, जिससे उसमें से एल्यूमिना (Alumina) निकाला जाता है। एल्यूमिना एल्यूमिनियम ऑक्साइड है।
3. एल्यूमिनियम प्रगालक (Smelter) में अंतिम रूप देना
एल्यूमिना शोधशाला से निकलने के बाद, एल्यूमिना को एल्यूमिनियम प्रगालक में भेजा जाता है, जहाँ वास्तविक धातु पिघलाई जाती है:
- इनपुट:
- एल्यूमिना (Alumina): शोधशाला से प्राप्त शुद्ध एल्यूमिना।
- क्रायोलाइट (Cryolite): यह एक पिघली हुई धातु है जो इलेक्ट्रोलाइट का काम करती है। एल्यूमिना को पिघले हुए क्रायोलाइट में घोला जाता है, जिससे वह विद्युत अपघटन के लिए तैयार हो जाता है। क्रायोलाइट एल्यूमिना के गलनांक को कम करता है और विद्युत चालकता को बढ़ाता है।
- कैल्सियम युक्त पेट्रोलियम कोक (Calcined Petroleum Coke): यह कोयला खानों से प्राप्त पिच के साथ मिलाया जाता है और इसका उपयोग एनोड (धनात्मक इलेक्ट्रोड) के रूप में किया जाता है, जो विद्युत अपघटन प्रक्रिया में भाग लेता है।
- विद्युत (Electricity): एल्यूमिनियम प्रगलन एक अत्यधिक ऊर्जा-गहन प्रक्रिया है। जैसा कि आपके चार्ट में दिखाया गया है, प्रति टन अयस्क पर 18,600 किलोवाट (kW) विद्युत की आवश्यकता होती है। यह भारी मात्रा में बिजली की खपत को दर्शाता है।
- प्रगलन (Smelting): विद्युत अपघटन (electrolysis) की प्रक्रिया के माध्यम से, पिघले हुए एल्यूमिना से शुद्ध एल्यूमिनियम धातु को अलग किया जाता है।
भारतीय रसायन उद्योग: एक विकासशील क्षेत्र
भारत में रसायन उद्योग तेजी से विकसित हो रहा है और लगातार फैल रहा है। इसकी भागीदारी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में लगभग 3 प्रतिशत है, जो इसकी आर्थिक महत्ता को दर्शाता है। वैश्विक स्तर पर, यह उद्योग एशिया का तीसरा सबसे बड़ा और विश्व में आकार की दृष्टि से 12वें स्थान पर है।
इस उद्योग में लघु (small) और बृहत् (large) दोनों प्रकार की विनिर्माण इकाइयाँ शामिल हैं, जो इसकी विविधता को दर्शाती हैं। हाल के वर्षों में, अकार्बनिक (inorganic) और कार्बनिक (organic) दोनों क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है।
अकार्बनिक रसायन
अकार्बनिक रसायन वे होते हैं जिनमें कार्बन-हाइड्रोजन बंधन नहीं होता। इनमें शामिल हैं:
- सल्फ्यूरिक अम्ल (Sulphuric Acid): यह रसायन विभिन्न उद्योगों में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है, जैसे:
- उर्वरक (fertilizers)
- कृत्रिम वस्त्र (synthetic fibers)
- प्लास्टिक (plastics)
- गोंद (adhesives)
- रंग-रोगन (paints and varnishes)
- डाई (dyes) आदि के निर्माण में।
- नाइट्रिक अम्ल (Nitric Acid)
- क्षार (Alkalies)
- सोडा ऐश (Soda Ash): इसका उपयोग मुख्य रूप से निम्न उद्योगों में होता है:
- काँच (glass)
- साबुन (soap)
- शोधक या अपमार्जक (detergents)
- कागज़ (paper) में प्रयुक्त होने वाले रसायन।
- कास्टिक सोडा (Caustic Soda) आदि।
इन उद्योगों का देश में विस्तृत फैलाव है। आपने पूछा है कि ऐसा क्यों है?
इसका मुख्य कारण है कि अकार्बनिक रसायनों की मांग बहुत व्यापक है। ये रसायन विभिन्न प्रकार के उपभोक्ता उत्पादों और अन्य उद्योगों के लिए बुनियादी कच्चे माल के रूप में काम करते हैं। जहाँ भी कोई विनिर्माण इकाई, चाहे वह उर्वरक की हो, साबुन की हो या कपड़ा बनाने की, स्थापित होती है, उसे इन रसायनों की आवश्यकता होती है। इसलिए, बाजार की निकटता और परिवहन लागत को कम करने के लिए ये उद्योग अक्सर पूरे देश में फैले होते हैं, ताकि उपभोक्ताओं तक इनकी पहुँच आसान हो सके। साथ ही, कुछ अकार्बनिक रसायनों के उत्पादन के लिए आवश्यक कच्चे माल (जैसे नमक, चूना पत्थर) भी व्यापक रूप से उपलब्ध होते हैं।
कार्बनिक रसायन
कार्बनिक रसायन वे होते हैं जिनमें कार्बन-हाइड्रोजन बंधन होता है। इनमें मुख्य रूप से पेट्रो-रसायन (petrochemicals) शामिल हैं। इनका उपयोग निम्न के बनाने में किया जाता है:
- कृत्रिम वस्त्र (synthetic fibers)
- कृत्रिम रबर (synthetic rubber)
- प्लास्टिक (plastics)
- रंजक पदार्थ (dye-stuffs)
- दवाइयाँ (drugs)
- औषध रसायन (pharmaceuticals)
ये उद्योग अक्सर तेल शोधन शालाओं (oil refineries) या पेट्रो-रसायन संयंत्रों के समीप स्थापित होते हैं। इसका कारण यह है कि पेट्रो-रसायन तेल और गैस के उप-उत्पादों से बनते हैं। तेल शोधन शालाएँ और पेट्रो-रसायन संयंत्र ही इन प्राथमिक कच्चे माल के स्रोत होते हैं। कच्चे माल के स्रोत के करीब होने से परिवहन लागत कम होती है और उत्पादन प्रक्रिया अधिक कुशल बनती है।
र्वरक उद्योग: एक अवलोकन
उर्वरक उद्योग मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रकार के उर्वरकों के उत्पादन पर केंद्रित है:
- नाइट्रोजनी उर्वरक (Nitrogenous Fertilizers): इनमें मुख्यतः यूरिया (Urea) शामिल है। नाइट्रोजन पौधों के विकास के लिए एक आवश्यक पोषक तत्व है।
- फॉस्फेटिक उर्वरक (Phosphatic Fertilizers): जैसे डीएपी (DAP – Di-ammonium Phosphate)। फास्फेट भी पौधों की जड़ और फूल-फल के विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
- अमोनियम फॉस्फेट (Ammonium Phosphate)
- मिश्रित उर्वरक (Complex Fertilizers): इनमें तीन मुख्य पोषक तत्व शामिल होते हैं – नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश (N-P-K)।
पोटाश का आयात
यह जानना महत्वपूर्ण है कि पोटाश (Potash) पूर्णतः आयात किया जाता है। इसका कारण यह है कि भारत में वाणिज्यिक रूप से या किसी भी अन्य रूप में प्रयुक्त होने वाले पोटाश या पोटेशियम यौगिकों के भंडार नहीं हैं। इसलिए, अपनी पोटाश की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भारत पूरी तरह से दूसरे देशों पर निर्भर है।
हरित क्रांति और भौगोलिक फैलाव
हरित क्रांति (Green Revolution) के पश्चात्, उर्वरकों की मांग में भारी वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप यह उद्योग देश के अनेक भागों में फैल गया।
प्रमुख उत्पादक राज्य:
- गुजरात
- तमिलनाडु
- उत्तर प्रदेश
- पंजाब
- केरल
ये पांच राज्य मिलकर कुल उर्वरक उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।
अन्य महत्वपूर्ण उत्पादक राज्य:
- आंध्र प्रदेश
- ओडिशा
- राजस्थान
- बिहार
- महाराष्ट्र
- असम
- पश्चिम बंगाल
- गोवा
- दिल्ली
- मध्य प्रदेश
- कर्नाटक
सीमेंट उद्योग: निर्माण का आधार
सीमेंट विभिन्न प्रकार के निर्माण कार्यों के लिए एक अनिवार्य सामग्री है। इसकी आवश्यकता लगभग हर बड़े या छोटे निर्माण परियोजना में होती है, जैसे:
- घर
- कारखाने
- पुल
- सड़कें
- हवाई अड्डे
- बाँध
- और अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान
कच्चे माल और ऊर्जा की आवश्यकताएँ
सीमेंट उद्योग को भारी और स्थूल कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इनमें मुख्य रूप से शामिल हैं:
- चूना पत्थर (Limestone)
- सिलिका (Silica)
- जिप्सम (Gypsum)
इनके अलावा, सीमेंट उत्पादन एक ऊर्जा-गहन प्रक्रिया है। इसलिए, कोयला तथा विद्युत ऊर्जा की भी बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है। कच्चे माल के भारी होने के कारण, रेल परिवहन सीमेंट उद्योग के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सीमेंट विनिर्माण इकाइयों की स्थापना: आर्थिक व्यावहारिकता
आपने एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है: सीमेंट विनिर्माण इकाइयों की स्थापना कहाँ पर आर्थिक रूप से व्यावहारिक होगी?
सीमेंट उद्योग की इकाइयों की स्थापना वहाँ सबसे अधिक आर्थिक रूप से व्यावहारिक होती है जहाँ:
- कच्चे माल (चूना पत्थर, सिलिका, जिप्सम) के स्रोत के निकटता हो, क्योंकि ये भारी और सस्ते होते हैं और इनकी ढुलाई लागत अधिक होती है।
- कोयला और बिजली की निरंतर और सस्ती उपलब्धता हो।
- बाजार की निकटता हो, ताकि तैयार सीमेंट को आसानी से और कम लागत पर उपभोक्ताओं तक पहुँचाया जा सके।
- उत्कृष्ट परिवहन सुविधाएँ (विशेषकर रेल) उपलब्ध हों।
उदाहरण के लिए, गुजरात में सीमेंट इकाइयाँ इसलिए लगाई गई हैं, क्योंकि यहाँ से इसे खाड़ी के देशों के बाज़ार की उपलब्धता है, जिससे निर्यात के अच्छे अवसर मिलते हैं।
भारत में सीमेंट उद्योग का विस्तार
भारत में पहला सीमेंट उद्योग सन् 1904 में चेन्नई में लगाया गया था। स्वतंत्रता के पश्चात, देश के तीव्र विकास के साथ-साथ इस उद्योग का भी व्यापक प्रसार हुआ।
भारत में यह उद्योग अन्य किन राज्यों में स्थित है?
कच्चे माल की उपलब्धता और बाजार की मांग के कारण सीमेंट उद्योग देश के कई अन्य राज्यों में भी फैला हुआ है। कुछ प्रमुख राज्य जहाँ सीमेंट उद्योग स्थित है, वे हैं:
- राजस्थान: चूना पत्थर के बड़े भंडार के कारण।
- मध्य प्रदेश: चूना पत्थर की उपलब्धता।
- आंध्र प्रदेश और तेलंगाना: चूना पत्थर और बाजार की निकटता।
- कर्नाटक: चूना पत्थर के भंडार।
- महाराष्ट्र: बाजार की विशालता।
- छत्तीसगढ़: चूना पत्थर के विशाल भंडार और कोयले की उपलब्धता।
- तमिलनाडु: दक्षिणी बाजार की मांग।
- हिमाचल प्रदेश: पहाड़ी क्षेत्रों में मांग और कच्चे माल की उपलब्धता।
मोटरगाड़ी उद्योग: परिवहन का आधार
मोटरगाड़ियाँ आधुनिक जीवन में यात्रियों तथा सामान के तीव्र परिवहन के महत्वपूर्ण साधन हैं। भारत में, यह उद्योग विभिन्न प्रकार के वाहनों का निर्माण करता है, जिनमें शामिल हैं:
- ट्रक
- बसें
- कारें
- मोटरसाइकिल
- स्कूटर
- तिपहिया वाहन (ऑटो-रिक्शा)
- बहुउपयोगी वाहन (Multi-Utility Vehicles – MUVs/SUVs)
उदारीकरण और उद्योग का विकास
1991 के उदारीकरण (liberalization) की नीतियों के पश्चात्, भारतीय मोटरगाड़ी उद्योग में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। उदारीकरण ने:
- नए और आधुनिक मॉडल के वाहनों के बाज़ार को खोल दिया। विदेशी कंपनियों को भारत में निवेश करने और अपनी तकनीकों तथा डिजाइनों को लाने की अनुमति मिली।
- वाहनों की माँग में भारी वृद्धि हुई। बढ़ती आय, बदलती जीवनशैली और बेहतर सड़कों ने वाहनों की खरीद को प्रोत्साहित किया।
इन कारकों के कारण, इस उद्योग में, विशेषकर कार, दोपहिया तथा तिपहिया वाहनों के उत्पादन में अपार वृद्धि हुई है। भारत आज दुनिया के सबसे बड़े दोपहिया वाहन बाजारों में से एक है और कार उत्पादन में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
मोटरगाड़ी उद्योग के प्रमुख केंद्र
मोटरगाड़ी उद्योग की इकाइयाँ भारत के कई महत्वपूर्ण शहरों और उनके आस-पास केंद्रित हैं। ये स्थान अक्सर परिवहन के अच्छे साधनों, श्रम की उपलब्धता, और बाज़ार की निकटता के कारण चुने जाते हैं:
- दिल्ली
- गुड़गाँव (गुरुग्राम) – विशेष रूप से कार निर्माण का एक प्रमुख हब।
- मुंबई
- पुणे – महाराष्ट्र में एक महत्वपूर्ण ऑटोमोबाइल हब।
- चेन्नई – जिसे “भारत की डेट्रॉइट” भी कहा जाता है, कार निर्माण का एक बड़ा केंद्र।
- कोलकाता
- लखनऊ
- इंदौर
- हैदराबाद
- जमशेदपुर – टाटा मोटर्स का एक महत्वपूर्ण केंद्र।
- बेंगलुरु
ये केंद्र न केवल वाहन निर्माण करते हैं, बल्कि ऑटोमोबाइल कंपोनेंट (पुर्जे) उद्योग और अनुसंधान एवं विकास (R&D) गतिविधियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। यह उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने, रोजगार सृजित करने और आधुनिक परिवहन बुनियादी ढांचे को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इलेक्ट्रॉनिक उद्योग: उत्पादों की विस्तृत श्रृंखला
इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के अंतर्गत उत्पादों की एक बहुत विस्तृत श्रृंखला आती है, जो हमारे दैनिक जीवन और विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग होती है। इनमें शामिल हैं:
- ट्रांजिस्टर
- टेलीविजन
- टेलीफ़ोन
- सेल्युलर टेलीकॉम (मोबाइल फ़ोन और संबंधित उपकरण)
- टेलीफ़ोन एक्सचेंज
- राडार
- कंप्यूटर
- और दूरसंचार उद्योग के लिए उपयोगी अनेक अन्य उपकरण
प्रमुख इलेक्ट्रॉनिक और IT हब
भारत में इलेक्ट्रॉनिक सामान के महत्वपूर्ण उत्पादक और IT उद्योग के केंद्र कई शहरों में फैले हुए हैं:
- बेंगलुरु को भारत की इलेक्ट्रॉनिक राजधानी के रूप में जाना जाता है। यह शहर सॉफ्टवेयर विकास, अनुसंधान और स्टार्टअप के लिए एक वैश्विक केंद्र बन गया है।
- अन्य महत्वपूर्ण उत्पादक केंद्र और संकेंद्रण क्षेत्र हैं:
- मुंबई
- दिल्ली
- हैदराबाद
- पुणे
- चेन्नई
- कोलकाता
- लखनऊ
- नोएडा (दिल्ली के करीब)
इस उद्योग का सर्वाधिक संकेंद्रण वास्तव में बेंगलुरु, नोएडा, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और पुणे जैसे शहरों में देखा जाता है, जो इन क्षेत्रों को IT और इलेक्ट्रॉनिक गतिविधियों के प्रमुख केंद्रों के रूप में स्थापित करते हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग की सफलता का रहस्य
यह जानना अत्यंत रोचक है कि भारत में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के सफल होने का मुख्य कारण हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनों का निरंतर विकास है। हालाँकि, भारत की वैश्विक पहचान मुख्य रूप से इसके सॉफ्टवेयर विकास कौशल के कारण बनी है। भारतीय IT पेशेवर और कंपनियाँ दुनिया भर में सॉफ्टवेयर सेवाओं, आउटसोर्सिंग और IT समाधानों में अग्रणी हैं। हार्डवेयर में भी धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता बढ़ रही है।
इस उद्योग ने लाखों रोजगार के अवसर पैदा किए हैं, विदेशी मुद्रा अर्जित की है, और भारत को वैश्विक प्रौद्योगिकी मानचित्र पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है।
औद्योगिक प्रदूषण: एक गंभीर चुनौती
इसमें कोई संदेह नहीं कि उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, पर इनके द्वारा होने वाले भूमि, वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। उद्योगों को मुख्य रूप से चार प्रकार के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है:
- (क) वायु प्रदूषण (Air Pollution)
- (ख) जल प्रदूषण (Water Pollution)
- (ग) भूमि प्रदूषण (Land Pollution)
- (घ) ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution)
ताप विद्युतगृह (Thermal power plants) भी प्रदूषण करने वाले प्रमुख उद्योगों में शामिल हैं।
वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण तब होता है जब हवा में अधिक मात्रा में अनचाही गैसें मौजूद होती हैं, जैसे सल्फर डाइऑक्साइड (Sulphur Dioxide) और कार्बन मोनोऑक्साइड (Carbon Monoxide)। वायु में निलंबित कणनुमा पदार्थों में ठोस और द्रवीय दोनों प्रकार के कण होते हैं, जैसे:
- धूलि (Dust)
- स्प्रे (Spray)
- कुहासा (Mist)
- धुआँ (Smoke)
कई उद्योग, जैसे रसायन व कागज़ उद्योग, ईंटों के भट्टे, तेल शोधनशालाएँ, प्रगलन उद्योग, जीवाश्म ईंधन दहन (fossil fuel combustion) और छोटे-बड़े कारखाने, प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन करते हुए धुआँ निष्कासित करते हैं। जहरीली गैसों का रिसाव बहुत भयानक तथा दूरगामी प्रभावों वाला हो सकता है।
भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) इसका एक विदारक उदाहरण है। दिसंबर 1984 में भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस का रिसाव हुआ था, जिससे हज़ारों लोग मारे गए और लाखों प्रभावित हुए, जिनके दूरगामी स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभाव आज भी देखे जा सकते हैं।
वायु प्रदूषण मानव स्वास्थ्य (श्वसन संबंधी बीमारियाँ), पशुओं, पौधों, इमारतों (जैसे ताजमहल पर अम्लीय वर्षा का प्रभाव) तथा पूरे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
जल प्रदूषण
उद्योगों द्वारा कार्बनिक तथा अकार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों को नदियों और अन्य जल निकायों में छोड़ने से जल प्रदूषण फैलता है। जल प्रदूषण के प्रमुख कारक उद्योग और उनके द्वारा छोड़े जाने वाले पदार्थ हैं:
- कागज़, लुग्दी, रसायन, वस्त्र तथा रंगाई उद्योग: ये उद्योग रंग, अपमार्जक (detergents), अम्ल और लवण जैसे रसायन जल में छोड़ते हैं।
- तेल शोधनशालाएँ: तेल रिसाव और अन्य पेट्रोलियम उत्पाद।
- चमड़ा उद्योग: इसमें भारी धातुएँ और अन्य हानिकारक रसायन शामिल होते हैं।
- इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग: ये भारी धातुएँ जैसे सीसा (lead) और पारा (mercury) जल में वाहित करते हैं।
- कीटनाशक (pesticides), उर्वरक (fertilizers), कार्बन, प्लास्टिक और रबर सहित कृत्रिम रसायन भी जल को प्रदूषित करते हैं।
भारत के मुख्य अपशिष्ट पदार्थों में फ्लाई ऐश (fly ash), फॉस्फो-जिप्सम (phospho-gypsum) तथा लोहा-इस्पात की अशुद्धियाँ (iron & steel slags) शामिल हैं।
तापीय प्रदूषण
तापीय प्रदूषण तब होता है जब कारखानों तथा तापघरों से गर्म जल को बिना ठंडा किए ही नदियों तथा तालाबों में छोड़ दिया जाता है।
जलीय जीवन पर इसका प्रभाव: गर्म पानी छोड़ने से जल निकायों का तापमान बढ़ जाता है। इससे:
- जल में ऑक्सीजन का स्तर घट जाता है, क्योंकि गर्म पानी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है।
- यह जलीय जीवों, जैसे मछली और अन्य पौधों और जानवरों के लिए जीवन को कठिन बना देता है, क्योंकि वे एक विशिष्ट तापमान सीमा में रहने के अनुकूल होते हैं।
- कुछ प्रजातियाँ मर जाती हैं या विस्थापित हो जाती हैं, जिससे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है।
- यह शैवाल के पनपने (algal blooms) को भी बढ़ावा दे सकता है, जिससे पानी की गुणवत्ता और खराब हो जाती है।
परमाणु अपशिष्ट और मृदा/जल प्रदूषण का संबंध
- परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के अपशिष्ट तथा परमाणु शस्त्र उत्पादक कारखानों से निकलने वाले रेडियोधर्मी पदार्थ अत्यंत खतरनाक होते हैं। इनसे कैंसर, जन्मजात विकार (birth defects) तथा अकाल प्रसव (premature births) जैसी गंभीर बीमारियाँ होती हैं। इन अपशिष्टों का सुरक्षित निपटान एक बड़ी चुनौती है।
- मृदा (मिट्टी) और जल प्रदूषण आपस में संबंधित हैं। मलबे का ढेर, विशेषकर काँच, हानिकारक रसायन, औद्योगिक बहाव, पैकिंग सामग्री, लवण तथा कूड़ा-कर्कट मृदा को अनुपजाऊ बनाता है।
- जब वर्षा जल इन प्रदूषकों पर गिरता है, तो वे जमीन से रिसते हुए भूमिगत जल (groundwater) तक पहुँच जाते हैं और उसे भी प्रदूषित कर देते हैं। इस प्रकार, मृदा का प्रदूषण अंततः जल प्रदूषण का भी कारण बनता है, जिससे पेयजल और कृषि के लिए पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
आपने ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution) और पर्यावरणीय निम्नीकरण की रोकथाम (Prevention of Environmental Degradation) के लिए उठाए जाने वाले कदमों पर विस्तृत जानकारी दी है। ये दोनों ही बिंदु टिकाऊ औद्योगिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
ध्वनि प्रदूषण: एक अदृश्य खतरा
ध्वनि प्रदूषण सिर्फ़ असुविधा और उत्तेजना ही नहीं पैदा करता, बल्कि इसके गंभीर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभाव भी होते हैं। यह:
- श्रवण असक्षमता (hearing impairment) का कारण बन सकता है।
- हृदय गति (heart rate) और रक्तचाप (blood pressure) को बढ़ा सकता है।
- अन्य शारीरिक व्यथाएँ (physiological stress) पैदा कर सकता है।
- अनचाही ध्वनि उत्तेजना और मानसिक चिंता का स्रोत भी होती है।
औद्योगिक और निर्माण कार्य ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं। इनमें शामिल हैं:
- कारखानों के उपकरण
- जेनरेटर
- लकड़ी चीरने के कारखाने
- गैस यांत्रिकी
- विद्युत ड्रिल (Drill)
ये सभी अत्यधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं, जिससे आसपास के वातावरण में शोर का स्तर बढ़ता है।
पर्यावरणीय निम्नीकरण की रोकथाम: समाधान और उपाय
उद्योगों द्वारा होने वाले पर्यावरणीय निम्नीकरण को रोकने के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं, खासकर पानी के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि कारखानों द्वारा निष्कासित एक लीटर अपशिष्ट से लगभग आठ गुना स्वच्छ जल दूषित होता है।
स्वच्छ जल को औद्योगिक प्रदूषण से बचाने के कुछ महत्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित हैं:
- जल का न्यूनतम उपयोग: विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं में जल का कम से कम उपयोग करना चाहिए।
- जल का पुनर्चक्रण और पुनः उपयोग: जल को दो या अधिक अवस्थाओं में पुनर्चक्रण (recycling) करके उसका पुनः उपयोग (re-use) करना चाहिए।
- वर्षा जल संग्रहण (Rainwater Harvesting): जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए वर्षा जल का संग्रहण करना एक प्रभावी तरीका है।
- अपशिष्ट जल का शोधन (Treatment of Wastewater): नदियों और तालाबों में गर्म जल और अपशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित करने से पहले उनका शोधन (treatment) करना अनिवार्य है। औद्योगिक अपशिष्ट का शोधन तीन चरणों में किया जा सकता है:
- (अ) यांत्रिक साधनों द्वारा प्राथमिक शोधन: इसमें अपशिष्ट पदार्थों की छँटनी (screening), उनके छोटे-छोटे कणों को हटाना, ढकना तथा तलाछट जमाव (sedimentation) आदि शामिल हैं।
- (ब) जैविक प्रक्रियाओं द्वारा द्वितीयक शोधन: इस चरण में सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके जैविक अशुद्धियों को तोड़ा जाता है।
- (स) जैविक, रासायनिक तथा भौतिक प्रक्रियाओं द्वारा तृतीयक शोधन: यह सबसे उन्नत चरण है, जिसमें अपशिष्ट जल को पुनर्चक्रण द्वारा पुनः प्रयोग योग्य बनाया जाता है।
अन्य महत्वपूर्ण रोकथाम उपाय:
- भूमिगत जल पर नियंत्रण: जहाँ भूमिगत जल का स्तर कम है, वहाँ उद्योगों द्वारा इसके अत्यधिक निष्कासन पर कानूनी प्रतिबंध होना चाहिए ताकि जल संसाधनों का संरक्षण हो सके।
- वायु प्रदूषण कम करने के लिए:
- कारखानों में ऊँची चिमनियाँ होनी चाहिए ताकि प्रदूषक अधिक ऊँचाई पर फैलें।
- चिमनियाँ में इलेक्ट्रोस्टैटिक अवक्षेपक (electrostatic precipitators), स्क्रबर उपकरण (scrubber devices) तथा गैसीय प्रदूषक पदार्थों को जड़त्वीय रूप से पृथक करने (inertial separators) के लिए उपकरण होने चाहिए।
- कारखानों में कोयले की अपेक्षा तेल व गैस के प्रयोग से धुएँ के निष्कासन में कमी लायी जा सकती है, क्योंकि ये तुलनात्मक रूप से स्वच्छ ईंधन हैं।
- ध्वनि प्रदूषण कम करने के लिए:
- मशीनों व उपकरणों का पुनः डिजाइन किया जा सकता है ताकि वे कम शोर करें।
- जेनरेटरों में साइलेंसर (silencers) लगाया जा सकता है।
- ऐसी मशीनरी का प्रयोग किया जाए जो ऊर्जा सक्षम हों तथा कम ध्वनि प्रदूषण करे।
- ध्वनि अवशोषित करने वाले उपकरणों (sound-absorbing materials) के इस्तेमाल के साथ-साथ श्रमिकों को कानों में शोर नियंत्रण उपकरण (ear protection devices) भी पहनने चाहिए।
सतत पोषणीय विकास (Sustainable Development) की चुनौतियों का सामना करने के लिए, हमें पर्यावरणीय संचेतना से युक्त आर्थिक विकास की ज़रूरत है। इसका अर्थ है कि आर्थिक प्रगति पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना होनी चाहिए, ताकि भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी संसाधन उपलब्ध रहें।
राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (NTPC) भारत में विद्युत प्रदान करने वाली एक प्रमुख निगम है और यह पर्यावरण प्रबंधन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के लिए जाना जाता है। NTPC के पास पर्यावरण प्रबंधन तंत्र (EMS) के लिए ISO 14001 प्रमाण पत्र है, जो पर्यावरण मानकों के प्रति उसकी गंभीरता को दर्शाता है।
NTPC प्राकृतिक पर्यावरण और संसाधनों जैसे जल, खनिज तेल, गैस तथा ईंधन संरक्षण नीति का प्रबल हिमायती है। यह इन महत्वपूर्ण पहलुओं को ध्यान में रखकर ही अपने विद्युत संयंत्रों की स्थापना और संचालन करता है।
NTPC द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण के उपाय
NTPC पर्यावरणीय स्थिरता और संसाधन संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए कई महत्वपूर्ण उपाय अपनाता है। ये उपाय निम्नलिखित तरीकों से संभव होते हैं:
- नवीनतम तकनीकों का उपयोग: विद्युत उत्पादन में नवीनतम और पर्यावरण-अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाना। इससे प्रदूषण कम होता है और संसाधन दक्षता बढ़ती है।
- उपकरणों का इष्टतम उपयोग: संयंत्रों में लगे उपकरणों का अधिकतम और कुशल उपयोग सुनिश्चित करना, जिससे ऊर्जा की खपत कम हो और अपशिष्ट उत्पादन भी नियंत्रित रहे।
- अपशिष्ट उत्पादन को कम करना: उत्पादन प्रक्रियाओं से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा को न्यूनतम करना।
- राख (Ash) का अधिकतम उपयोग: ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले के दहन से बड़ी मात्रा में राख (fly ash और bottom ash) निकलती है। NTPC इस राख का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करता है, जैसे सीमेंट निर्माण, ईंट बनाने, सड़क निर्माण और भूमि भराव में।
- हरित पट्टी (Green Belt) का विकास: संयंत्रों के चारों ओर और आसपास के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कर हरित पट्टी विकसित करना। यह वायु प्रदूषण को कम करने, धूल को रोकने और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।
- पर्यावरणीय निगरानी: पर्यावरण मानकों का नियमित रूप से पालन सुनिश्चित करने के लिए नियमित पर्यावरणीय ऑडिट और समीक्षाएँ करना। इसमें वायु गुणवत्ता, जल निकासी और ध्वनि स्तर की लगातार निगरानी शामिल है।
- जल संरक्षण और प्रबंधन:
- जल का न्यूनतम उपयोग और विभिन्न प्रक्रियाओं में पुनर्चक्रण व पुनः उपयोग (Reduce, Reuse, Recycle – 3R सिद्धांत) को लागू करना।
- वर्षा जल संग्रहण (Rainwater Harvesting) प्रणालियों को स्थापित करना।
- ताप संयंत्रों से निकलने वाले गर्म जल को सीधे नदियों या जलाशयों में छोड़ने से पहले ठंडा करना और अपशिष्ट जल का शोधन (treatment) करना।
- ज़ीरो लिक्विड डिस्चार्ज (ZLD) प्रणालियों को लागू करने का लक्ष्य रखना, जहाँ संभव हो।
- ईंधन दक्षता: ईंधन (जैसे कोयला, तेल और गैस) का कुशलतापूर्वक उपयोग करना ताकि प्रति यूनिट बिजली उत्पादन में ईंधन की खपत कम हो। यह न केवल लागत बचाता है बल्कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी कम करता है।
- सामाजिक उत्तरदायित्व: संयंत्रों की स्थापना से प्रभावित समुदायों के पुनर्वास और विकास में सक्रिय रूप से भाग लेना, जिससे स्थानीय स्तर पर पर्यावरण और सामाजिक स्थिरता बनी रहे।
NTPC का यह दृष्टिकोण दर्शाता है कि आर्थिक विकास और ऊर्जा उत्पादन को पर्यावरणीय संवेदनशीलता और संसाधन संरक्षण के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है, जिससे एक सतत पोषणीय भविष्य की नींव रखी जा सके।
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- कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित करना विनिर्माण कहलाता है।
- उद्योग देश की आर्थिक उन्नति का मापन है ।
- कृषि तथा उद्योग एक-दूसरे के पूरक हैं।
- चीनी उद्योग में भारत का विश्व में दूसरा स्थान है।
- सूती वस्त्र, पटसन, रेशम, चीनी, चाय और कॉफी आदि कृषि आधारित उद्योग हैं।
- लौह इस्पात, पेट्रो रसायन, सीमेन्ट, मशीन, औजार आदि खनिज आधारित उद्योग हैं।
- BHEL का पूर्ण रूप भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड है।
- SAIL का पूर्ण रूप स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड है ।
- भारत प्रथम सफल सूती वस्त्र उद्योग 1854 में लगाया गया था।
- भारत प्रथम सूती वस्त्र उद्योग मुम्बई में लगाया गया था।
- भारत पटसन से निर्मित सामान का सबसे बड़ा निर्यातक देश है।
- भारत, बांग्लादेश के पश्चात् पटसन का दूसरा बड़ा निर्यातक देश है।
- भारत का प्रथम पटसन उद्योग कोलकाता के निकट रिशरा में लगाया गया ।
- भारत का प्रथम पटसन उद्योग कोलकाता में 1855 में लगाया गया।
- वे उद्योग जो खनिज व धातुओं को कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं, खनिज आधारित उद्योग कहलाते हैं।
- इस्पात को कठोर बनाने के लिए इसमें मैंगनीज़ मिलाया जाता है।
- भारत के छोटानागपुर के पठार में अधिकांश लौह तथा इस्पात उद्योग स्थापित हैं।
- भारत में एल्यूमिनियम प्रगलन, धातु शोधन उद्योग है।
- एल्यूमिनियम में बॉक्साइट को कच्चे पदार्थ के रूप में प्रयोग किया जाता है।
- भारत में रसायन उद्योग एशिया का तीसरा बड़ा उद्योग है।
- भारत, रसायन उद्योग में विश्व में 12वें स्थान पर है।
- D. A. P. एक उर्वरक उद्योग है।
- रसायन उद्योग की भागीदारी सकल घरेलू उत्पाद में तीन प्रतिशत है ।
- उर्वरक उद्योग नाइट्रोजनी उर्वरक मुख्यतः यूरिया से सम्बन्धित है।
- गुजरात, तमिलनाडु, उ.प्र., पंजाब और केरल राज्य कुल उर्वरक उत्पादन का 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।
- चूना पत्थर, सिलिका और जिप्सम को सीमेंट उद्योग में कच्चे माल के रूप में उपयोग किया जाता है I
- बेंगलुरू भारत की इलैक्टॉनिक राजधानी है।
- इलेक्ट्रानिक उद्योग के अन्तर्गत दूरभाष, कम्प्यूटर, टेलीविजन आदि निर्मित किए जाते हैं ।
- कार्बनिक तथा अकार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों से जल प्रदूषण फैलता है।
- उद्योगों से औद्योगिक प्रदूषण होता है ।
- उद्योगों से चार प्रकार के प्रदूषण होते हैं – वायु, जल, भूमि एवं ध्वनि ।
- अनचाही गैसों जैसे कि सल्फर डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोआक्साइड वायु प्रदूषण का कारण हैं।
अध्याय – 7
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखाएँ
- जो व्यक्ति उत्पाद को परिवहन द्वारा उपभोक्ताओं तक पहुँचाते हैं वे व्यापारी कहलाते हैं ।
- परिवहन के तीन साधन होते हैं – स्थल, जल और वायु ।
- भारत विश्व का दूसरा सर्वाधिक सड़क जाल वाला देश है ।
- भारत में सड़क जाल लगभग 62.16 लाख किमी. तक फैला है।
- सड़क परिवहन, अन्य परिवहन साधनों को जोड़ने का कार्य करता है ।
- उत्तर-दक्षिण गलियारा श्रीनगर को कन्याकुमारी से जोड़ता है ।
- पूर्व-पश्चिम गलियारा सिलचर (असम) को पोरबन्दर (गुजरात) से जोड़ता है।
- स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग का उद्देश्य भारत के मेगासिटी के मध्य की दूरी को कम करना है।
- स्वर्णिम चतुर्भुज महा राजमार्ग भारत के राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र में आता है ।
- NHAI का पूर्ण रूप भारत का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण है।
- राष्ट्रीय राजमार्ग देश के दूरस्थ भागों को जोड़ते हैं।
- • CPWD का पूर्ण रूप केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग है ।
- भारत में सड़कों का रखरखाव व निर्माण केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है ।
- प्रसिद्ध शेरशाह सूरी मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-1 के नाम से जाना जाता है।
- ऐतिहासिक शेरशाह सूरी मार्ग दिल्ली व अमृतसर को आपस में जोड़ता है।
- राज्य राजमार्गों का निर्माण व रखरखाव का दायित्व राज्य के सार्वजनिक निर्माण विभाग का होता है।
- PWD का पूर्ण रूप सार्वजनिक निर्माण विभाग का होता है ।
- जिला मार्गों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व जिला परिषद् का होता है।
- भारत देश के प्रत्येक गांव को प्रमुख शहरों से सड़कों द्वारा जोड़ने का कार्य ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना’ के तहत किया जाता है ।
- भारत सरकार प्राधिकरण के अधीन सीमा सड़क संगठन को 1960 में बनाया गया ।
- सीमा सड़क संगठन देश की सीमांत क्षेत्रों की सड़कों का निर्माण व रखरखाव देखती है।
- भारत के उत्तर तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों की सामरिक महत्व की सड़कों का उत्तरदायित्व सीमा सड़क संगठन
- विश्व की सबसे लम्बी राजमार्ग सुरंग भारत में स्थित है जिसकी लंबाई 9.02 किमी. है।
- विश्व की सबसे लम्बी राजमार्ग सुरंग-अटल टनल है ।
- अटल टनल भारत सरकार की सीमा सड़क संगठन द्वारा बनाई गई है ।
- अटल टनल पूरे साल मनाली को लाहौल-स्पीति घाटी से जोड़ती है।
- भारत की अटल टनल हिमालय की पीरपंजाल पर्वतमाला में स्थित है ।
- भारत की अटल टनल समुद्र तल से 8000 मीटर की ऊँचाई पर बनी है। भारत देश की पहली रेलगाड़ी 1853 में चलाई गई ।
- भारत देश की पहली रेलगाड़ी मुम्बई और थाणे के मध्य चलाई गई ।
- भारत देश की पहली रेलगाड़ी 34 किमी. की दूरी तय करती थी ।
- भारतीय रेल परिवहन को 16 रेल प्रखंडों में बाँटा गया है।
- भारत देश में पाइपलाइन परिवहन के तीन प्रमुख जाल हैं ।
- भारत देश की पहली हजीरा – विजयपुर – जगदीशपुर (एच.वी.जे.) गैस पाइपलाइन 1700 किमी. लम्बी है ।
- भारत की समुद्री तट रेखा 7,516.6 किमी. लम्बी है ।
- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कच्छ में कांडला पहले पत्तन के रूप में विकसित किया गया।
- भारत का 95 प्रतिशत विदेशी व्यापार प्रमुख समुद्री पत्तनों से होता है।
- भारत का प्रमुख पहला पत्तन कांडला है ।
- भारत के कांडला पत्तन को दीनदयाल पत्तन के नाम से भी जाना जाता है
- भारत का कांडला पत्तन एक ज्वारीय पत्तन है ।
- भारत मुम्बई वृहत्तम पत्तन है ।
- भारत के मुम्बई पत्तन के अधिक परिवहन को कम करने के लिए जवाहरलाल नेहरू पत्तन विकसित किया गया है।
- भारत के कुल निर्यात का 50 प्रतिशत लौह-अयस्क का निर्यात मारमागाओं पत्तन के द्वारा किया जाता है
- मैंगलोर पत्तन कुद्रेमुख (कर्नाटक) में स्थित है।
- भारत का कोची पत्तन सुदूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।
- कोची पत्तन एक प्राकृतिक पोताश्रय है ।
- चेन्नई हमारे देश का प्राचीनतम कृत्रिम पत्तन है।
- विशाखापट्टनम पत्तन स्थल से घिरा, गहरा व सुरक्षित पत्तन है ।
- भारत का पारादीप पत्तन ओडिशा राज्य में स्थित है ।
- कोलकाता एक अन्तः स्थलीय नदीय पत्तन है।
- कोलकाता एक ज्वारीय पत्तन होने के कारण इसे नियमित रूप से साफ करना पड़ता है।
- सन् 1953 में वायु परिवहन का राष्ट्रीयकरण किया गया ।
- एयर इंडिया घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वायु सेवाएँ प्रदान करती है ।
- पवन हंस दूरगामी क्षेत्रों में हेलीकॉप्टर सेवाएँ उपलबध करवाता है।
- दूरदर्शन, रेडियो, समाचार-पत्र आदि देश के प्रमुख संचार साधन हैं ।
- विश्व का वृहत्तम डाक-संचार भारत में है।
- डिजिटल भारत, सूचना प्रौद्योगिकरी को समझने का एक विशाल कार्यक्रम है।
- दूर संचार तंत्र में भारत एशिया महाद्वीप में अग्रणी है।
- भारत में समाचार-पत्र लगभग 100 भाषाओं में प्रकाशित होते हैं।
- भारत विश्व में सर्वाधिक चलचित्रों का उत्पादक भी है।
- बाज़ार एक ऐसी जगह है जहाँ वस्तुओं का विनिमय होता है।
- दो देशों के मध्य व्यापार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कहलाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रगति किसी राष्ट्र की आर्थिक बैरोमीटर कहलाती है ।
- कोलकाता पत्तन पर बढ़ते व्यापार के दबाव को कम करने के लिए हल्दिया पत्तन विकसित किया गया है।
- हल्दिया तथा इलाहाबाद के मध्य गंगा जलमार्ग 1620 किमी. लम्बा है।
- नौगम्य जलमार्ग संख्या-1 हल्दिया को इलाहाबाद से जोड़ती है।
- भारतीय व विदेशी सभी फिल्मों को प्रमाणित करने का अधिकार केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को है।