Class 9 Hindi Padya bhavarth kavya saudarya :पद्य का भावार्थ प्रसंग, संदर्भ एवं काव्य सौदर्य

Class 9 Hindi Padya bhavarth kavya saudarya : कक्षा 9 की एनसीईआरटी हिंदी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-1 के काव्य खंड में शामिल कविताएँ हिंदी साहित्य की समृद्ध परंपरा और आधुनिकता को दर्शाती हैं। इन कविताओं में भक्तिकाल से आधुनिक काल तक के कवियों की रचनाएँ हैं, जो भक्ति, प्रकृति, स्वतंत्रता और सामाजिक चेतना जैसे विषयों को प्रस्तुत करती हैं। प्रत्येक कविता के प्रसंग, संदर्भ, भावार्थ और काव्य सौंदर्य का अध्ययन छात्रों को कविता की गहराई और सौंदर्य को समझने में मदद करता है।

ललद्यद की वाख निर्गुण भक्ति और आत्म-जागृति को दर्शाती है, जिसमें शिव की सर्वव्यापकता और संसार की मिथ्या प्रकृति का चित्रण है। तुलसीदास के सवैये राम भक्ति और नैतिकता को उजागर करते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी की कैदी और कोकिला स्वतंत्रता की चाह को प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत करती है। सुमित्रानंदन पंत की ग्राम श्री ग्रामीण सौंदर्य और सादगी का चित्रण करती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की मेघ आए मेघों के मानवीकरण के साथ प्रकृति के उत्साह को दर्शाती है। इन कविताओं में शृंगार, वीर और भक्ति रस, बिंब, प्रतीक और अलंकारों का उपयोग काव्य सौंदर्य को बढ़ाता है, जो भावनाओं और विचारों को प्रभावी बनाता है।

काव्य – खंडकवि / रचनाकार
साखियाँ एवं सबद कबीर
वाखललद्यद
सवैयेरसखान
कैदी और कोकिलामाखनलाल चतुर्वेदी
ग्राम श्रीसुमित्रानंदन पंत
मेघ आएसर्वेश्वर दयाल सक्सेना
बच्चे काम पर जा रहे हैं।राजेश जोशी

साखियाँ एवं सबद – कबीर

    नरसी मेहता (1414-1478) गुजरात के प्रसिद्ध संत कवि थे। उनका यह भजन गांधी जी के आश्रम में प्रार्थना के समय गाया जाता था।

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    वैष्णव जन तो… (रचयिता: नरसी मेहता)
    १. संदर्भ :
    प्रस्तुत पद्य/भजन हमारी पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग – 1 (काव्य खण्ड) में संकलित, गुजराती भक्ति-काव्य के श्रेष्ठ कवि संत नरसी मेहता द्वारा रचित है। यह भजन ‘वैष्णव जन तो’ के नाम से प्रसिद्ध है और यह महात्मा गांधी का अत्यंत प्रिय भजन था, जो उनकी नित्य प्रार्थना-सभा का अंग था।
    २. प्रसंग : इस भजन में कवि नरसी मेहता ने एक सच्चे वैष्णव जन (ईश्वर के भक्त) के लक्षणों और गुणों को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार, सच्चा भक्त वही है जो मानवतावादी गुणों, जैसे- परोपकार, समदृष्टि, संयम, सत्य और निस्वार्थ भाव से परिपूर्ण हो।
    ३. भावार्थ (व्याख्या) :
    कवि नरसी मेहता एक सच्चे वैष्णव जन को परिभाषित करते हुए कहते हैं:
    “वैष्णव जन तो तेने कहीये, जे पीड पराई जाणे रे।”
    सच्चा वैष्णव (ईश्वर का भक्त) वही कहलाता है, जो ‘पराई पीड़ा’ अर्थात् दूसरों के दुःख-दर्द को समझता है।
    “पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।”
    वह दूसरों के दुःख दूर करने के लिए उन पर उपकार तो करता है, परंतु उस उपकार के बदले में अपने मन में लेशमात्र भी अभिमान या अहंकार नहीं आने देता।
    “सकल लोकमां सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे।”
    वह संसार में सभी को आदर देता है (वंदना करता है) और भूलकर भी किसी की ‘निंदा’ (बुराई या आलोचना) नहीं करता।
    “वाच काछ मन-निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे।”
    वह अपनी ‘वाच’ (वाणी), ‘काछ’ (काया/चरित्र) और ‘मन’ को पवित्र और निश्चल (स्थिर) रखता है। ऐसे सच्चे वैष्णव जन को जन्म देने वाली माता ‘धन्य-धन्य’ है।
    “समदृष्टी ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे।”
    वह सबको ‘समदृष्टि’ (समानता की भावना) से देखता है और उसने ‘तृष्णा’ (इच्छा, लालसा, मोह) का त्याग कर दिया है। वह पराई स्त्री को माता के समान समझता है।
    “जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।”
    उसकी जीभ कभी ‘असत्य’ (झूठ) नहीं बोलती और वह ‘परधन’ (दूसरों के धन) को कभी हाथ भी नहीं लगाता (अर्थात् चोरी या बेईमानी नहीं करता)।
    “मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ़ वैराग्य जेना मनमां रे,”
    उसे सांसारिक ‘मोह-माया’ प्रभावित नहीं कर सकती (व्याप्त नहीं होती), क्योंकि उसके मन में ‘दृढ़ वैराग्य’ (संसार से अनासक्ति) का भाव होता है।
    “रामनाम्शुं ताळी लागी, सकल तीरथ तेना तनमां रे।”
    उसकी लगन (‘ताळी’) केवल प्रभु ‘राम के नाम’ (ईश्वर भक्ति) में लगी रहती है। ऐसे व्यक्ति के शरीर में ही ‘सकल तीर्थ’ (सारे तीर्थस्थल) निवास करते हैं।
    “वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,”
    वह ‘वणलोभी’ (लोभ-रहित) और ‘कपट-रहित’ (छल से दूर) होता है। उसने ‘काम’ (वासना) और ‘क्रोध’ पर विजय प्राप्त कर ली होती है (‘निवार्या रे’)।
    “भणे नरसैयो तेनुं दरसन करतां, कुळ एकोतेर तार्या रे।”
    अंत में कवि नरसी मेहता कहते हैं कि ऐसे सच्चे वैष्णव जन का ‘दर्शन’ (उसे देख लेने मात्र) से ही दर्शन करने वाले की ‘इकोत्तर पीढ़ियाँ’ (71 पीढ़ियाँ) तर जाती हैं (उनका उद्धार हो जाता है)।
    ४. काव्य-सौंदर्य:
    (क) भाव पक्ष:
    भक्ति और नीति का संगम: इस भजन में ईश्वर-भक्ति को आचरण की शुद्धता और नैतिक मूल्यों (परोपकार, सत्य, अस्तेय, संयम) से जोड़ा गया है।
    मानवतावादी दृष्टिकोण: कवि ने एक सच्चे भक्त के लिए धार्मिक कर्मकांडों के स्थान पर मानवीय गुणों को अनिवार्य माना है (जैसे ‘पीड़ पराई जाणे रे’)।
    रस: इसमें मुख्य रूप से ‘शांत रस’ है, साथ ही ईश्वर के प्रति समर्पण के कारण ‘भक्ति रस’ की भी सुंदर व्यंजना हुई है।
    आदर्श समाज की कल्पना: यह भजन एक ऐसे आदर्श व्यक्ति का चित्र प्रस्तुत करता है जो एक आदर्श समाज की नींव रख सकता है।
    (ख) कला पक्ष:
    भाषा: भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण गुजराती (सधुक्कड़ी मिश्रित गुजराती) है, जो आम जनमानस को सीधे समझ में आती है।
    शैली: शैली गीतात्मक (गेय पद) और उपदेशात्मक है। इसे आसानी से गाया जा सकता है।
    अलंकार:
    पुनरुक्ति प्रकाश: ‘धन-धन’ में।
    अनुप्रास: ‘पीड पराई’, ‘काछ मन’, ‘कपट रहित, काम क्रोध’ में वर्णों की आवृत्ति।
    रूपक: ‘रामनाम्शुं ताळी लागी’ (राम-नाम रूपी ताली), ‘सकल तीरथ तेना तनमां’ (शरीर रूपी तीर्थ)।
    गुण: ‘प्रसाद गुण’ की प्रधानता है, जिससे अर्थ तुरंत स्पष्ट हो जाता है।
    शब्दावली: तत्सम (जैसे – तृष्णा, वैराग्य) और तद्भव शब्दों का सुंदर मिश्रण है।

    साखियाँ (कवि: कबीरदास)

    साखियाँ (कवि: कबीरदास)
    संदर्भ :
    प्रस्तुत साखियाँ हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक [क्षितिज भाग – 1 (काव्य खण्ड)] में संकलित ‘साखियाँ एवं सबद’ पाठ से ली गई हैं। इसके रचयिता भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि संत कबीरदास जी हैं।
    प्रसंग :
    इन साखियों में कबीरदास जी ने ज्ञान, प्रेम, भक्ति, निष्पक्षता और श्रेष्ठ कर्मों के महत्व पर बल दिया है। उन्होंने बाहरी आडंबरों, धार्मिक भेदभाव और ऊँच-नीच की भावना का खंडन करते हुए सच्चे मनुष्य और सच्चे संत के लक्षणों को उजागर किया है।
    भावार्थ (व्याख्या)
    1. मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।
    मुकताफल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं।।

    भावार्थ: कबीरदास कहते हैं कि मन रूपी सरोवर भक्ति के जल से पूरी तरह भरा हुआ है, जिसमें जीवात्मा रूपी हंस क्रीड़ा कर रहा है। वह वहाँ आनंदपूर्वक भक्ति रूपी मोती चुग रहा है और इस आनंद को छोड़कर अब कहीं और उड़कर नहीं जाना चाहता।
    आशय: जब जीवात्मा को ईश्वर-भक्ति का परम आनंद मिल जाता है, तो वह सांसारिक मोह-माया से मुक्त हो जाता है और उसी में रमा रहता है।
    2. प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
    प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।।

    भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं ईश्वर-प्रेमी (सच्चे भक्त) को खोजता फिर रहा हूँ, परंतु मुझे कोई सच्चा भक्त नहीं मिला। जब एक सच्चे ईश्वर-प्रेमी को दूसरा सच्चा प्रेमी मिल जाता है, तो मन की सारी बुराइयाँ (विष) समाप्त हो जाती हैं और वह अच्छाइयों (अमृत) में बदल जाती हैं।
    आशय: सच्चे भक्तों की संगति से मन के सारे विकार दूर होकर भक्ति-भाव का संचार होता है।
    3. हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
    स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।।

    भावार्थ: कबीर कहते हैं कि हे साधक! तुम ज्ञान रूपी हाथी पर सहजता और सरलता का आसन (दुलीचा) बिछाकर सवारी करो। यह संसार तो कुत्ते (स्वान) के समान है, जो तुम्हें देखकर भौंकता रहेगा; उसे भौंकने दो और उसकी परवाह किए बिना अपने मार्ग पर चलते रहो।
    आशय: ज्ञानी व्यक्ति को दुनिया की निंदा या आलोचना की परवाह किए बिना अपने ज्ञान के मार्ग पर सहजता से आगे बढ़ते रहना चाहिए।
    4. पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
    निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।।

    भावार्थ: पक्ष-विपक्ष (पखापखी) अर्थात ‘मेरा-तेरा’ और विभिन्न मत-मतान्तरों के चक्कर में पड़कर सारा संसार ईश्वर को भूला हुआ है। वास्तव में वही सच्चा संत (सुजान) है, जो निष्पक्ष (निरपख) होकर ईश्वर का भजन करता है।
    आशय: सच्चा ज्ञानी या संत वही है जो साम्प्रदायिक भेदभाव से ऊपर उठकर निष्पक्ष भाव से ईश्वर की भक्ति करता है।
    5. हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ।
    कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ।।

    भावार्थ: हिंदू ‘राम-राम’ कहकर और मुसलमान ‘खुदा-खुदा’ कहकर मर जाते हैं, पर ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते। कबीर कहते हैं कि वास्तव में वही व्यक्ति जीवित के समान है, जो इन दोनों के भेदभाव के निकट नहीं जाता।
    आशय: ईश्वर राम और खुदा से परे एक है। जो इस सांप्रदायिक कट्टरता से दूर रहता है, वही सच्चे अर्थों में जीवित है।
    6. काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीमा।
    मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।।

    भावार्थ: जब मुझे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ तो मेरे लिए मुसलमानों का पवित्र तीर्थ ‘काबा’ ही हिंदुओं का तीर्थ ‘काशी’ बन गया और ‘राम’ का नाम ही ‘रहीम’ हो गया। मेरे लिए यह भेद उसी प्रकार समाप्त हो गया जैसे मोटा आटा पिसकर मैदा बन जाता है। अब मैं इस अभेद रूपी मैदे का भोजन कर रहा हूँ।
    आशय: ज्ञान प्राप्ति के बाद धार्मिक भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और व्यक्ति ईश्वर की एकता को पहचान लेता है।
    7. ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ।
    सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोइ।।

    भावार्थ: यदि कोई व्यक्ति ऊँचे कुल में जन्म लेता है, परंतु उसके कर्म (करनी) ऊँचे या श्रेष्ठ नहीं होते, तो वह निंदनीय है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे सोने (सुबरन) के कलश में यदि शराब (सुरा) भरी हो, तो सज्जन लोग (साधू) उसकी निंदा ही करते हैं।
    आशय: मनुष्य अपने कर्मों से महान बनता है, ऊँचे कुल में जन्म लेने से नहीं।
    काव्य-सौंदर्य
    (क) भाव पक्ष:
    निर्गुण भक्ति: कबीर ने ईश्वर के निर्गुण, निराकार रूप की उपासना पर बल दिया है।
    रहस्यवादी भावना: जीवात्मा और परमात्मा के संबंध को प्रतीकों के माध्यम से समझाया गया है (जैसे – मानसरोवर और हंस)।
    सामाजिक सुधार: धार्मिक आडंबर, जाति-पाँति और साम्प्रदायिकता पर गहरा प्रहार किया गया है।
    रस: संपूर्ण साखियों में शांत रस की प्रधानता है।
    (ख) कला पक्ष:
    भाषा: कबीर की भाषा ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ है, जिसमें राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, ब्रज आदि भाषाओं के शब्द मिले हुए हैं। यह सरल, सहज और भावों को व्यक्त करने में समर्थ है।
    शैली: उपदेशात्मक और मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है।
    छंद: सभी साखियाँ ‘दोहा छंद’ में लिखी गई हैं।
    अलंकार:
    रूपक अलंकार: ‘ज्ञान कौ हस्ती’, ‘स्वान रूप संसार’, ‘विष अमृत’।
    अनुप्रास अलंकार: ‘प्रेमी कौं प्रेमी’, ‘सोई संत सुजान’, ‘सुबरन कलस सुरा’।
    अन्योक्ति अलंकार: पहली और तीसरी साखी में प्रतीकों के माध्यम से गहरी बात कही गई है।
    दृष्टांत अलंकार: सातवीं साखी (‘सुबरन कलस…’) में उदाहरण देकर बात को स्पष्ट किया गया है।
    गुण: प्रसाद गुण।
    शब्द शक्ति: लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्तियों का सुंदर प्रयोग है।

    सबद (पद) 1: “मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे…”
    १. संदर्भ :
    प्रस्तुत ‘सबद’ (पद) हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक [क्षितिज भाग – 1 (काव्य खण्ड)] में संकलित ‘साखियाँ एवं सबद’ से लिया गया है। इसके रचयिता भक्तिकाल की ज्ञानाश्रयी (निर्गुण) शाखा के प्रतिनिधि कवि संत कबीरदास जी हैं।
    २. प्रसंग :
    इस पद में कबीरदास जी ने ईश्वर की सर्वव्यापकता पर बल दिया है। वे स्वयं ईश्वर के मुख से कहला रहे हैं कि मनुष्य ईश्वर को खोजने के लिए व्यर्थ ही धार्मिक स्थलों और कर्मकांडों में भटकता है, जबकि ईश्वर तो स्वयं उसके भीतर, उसकी साँसों में विद्यमान है।
    ३. भावार्थ (व्याख्या)
    कबीरदास ईश्वर का कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं:
    “मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।”
    ईश्वर मनुष्य को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे ‘बंदे’ (मनुष्य), तू मुझे कहाँ-कहाँ खोजता फिर रहा है? मैं तो तेरे बहुत ‘पास’ में (अर्थात् तेरे भीतर ही) विद्यमान हूँ।
    “ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।”
    मैं न तो हिंदुओं के मंदिर (‘देवल’) में बसता हूँ और न ही मुसलमानों की ‘मसजिद’ में। मैं न तो मुसलमानों के पवित्र तीर्थ ‘काबा’ में हूँ और न ही हिंदुओं के पवित्र पर्वत ‘कैलास’ में।
    “ना तो कौनै क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।”
    मैं किसी भी प्रकार के धार्मिक ‘क्रिया-कर्म’ (जैसे- पूजा, नमाज़, हवन) करने से नहीं मिलता। मैं न तो ‘योग’ (सांसारिक जीवन को त्यागकर कठिन तपस्या) करने से मिलता हूँ और न ही ‘वैराग’ (घर-परिवार छोड़कर संन्यासी बन जाने) से प्राप्त होता हूँ।
    “खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।”
    यदि कोई सच्चा ‘खोजी’ (खोजने वाला, सच्चा साधक) है, तो मैं उसे ‘तुरंत’ (तुरतै), क्षण भर (‘पल भर’) की खोज में ही मिल जाऊँगा।
    “कहै कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में।।”
    अंत में कबीरदास जी कहते हैं कि हे ‘साधो’ (सज्जनो), सुनो! वह ईश्वर तो सभी प्राणियों की ‘स्वाँसों की स्वाँस में’ (अर्थात् प्रत्येक जीव की आत्मा में, उसके जीवन-आधार) में बसा हुआ है।
    ४. काव्य-सौंदर्य
    (क) भाव पक्ष:
    निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन: ईश्वर के निराकार, सर्वव्यापी स्वरूप की स्थापना की गई है।
    आडंबरों का खंडन: धार्मिक कर्मकांड, तीर्थयात्रा, योग-वैराग्य आदि बाहरी दिखावों का कबीर ने पुरजोर खंडन किया है।
    ईश्वर की सहज प्राप्ति: सच्चे मन से खोजने पर ईश्वर सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।
    रस: शांत रस की प्रधानता है।
    (ख) कला पक्ष:
    भाषा: सधुक्कड़ी (पंचमेल खिचड़ी) भाषा का प्रयोग है, जो अत्यंत सरल, सहज और आम बोलचाल की है।
    शैली: उपदेशात्मक शैली है। पद में गेयता (संगीत) का गुण है।
    अलंकार:
    अनुप्रास अलंकार: ‘काबे कैलास’, ‘कौनै क्रिया-कर्म’, ‘जोग…बैराग’, ‘सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस’ में वर्णों की आवृत्ति।
    प्रतीकात्मकता: ‘स्वाँसों की स्वाँस’ आत्मा या जीवन-शक्ति का प्रतीक है।
    गुण: प्रसाद गुण है, जिससे अर्थ आसानी से समझ में आ जाता है।

    सबद (पद) 2: “संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे…”

    १. संदर्भ
    (यह पहले पद के समान ही रहेगा)
    प्रस्तुत ‘सबद’ (पद) हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक [अपनी पाठ्यपुस्तक का नाम लिखें] में संकलित ‘साखियाँ एवं सबद’ से लिया गया है। इसके रचयिता संत कबीरदास जी हैं।
    २. प्रसंग
    इस पद में कबीरदास ने ‘ज्ञान’ (आत्म-ज्ञान) के महत्व को एक शक्तिशाली आँधी के रूपक द्वारा स्पष्ट किया है। उन्होंने बताया है कि जब ज्ञान की आँधी आती है, तो वह मनुष्य के मन पर पड़े भ्रम, मोह, माया और दुर्बुद्धि के सभी पर्दों (छप्पर) को उड़ा ले जाती है, जिसके बाद ईश्वर-प्रेम की वर्षा होती है।
    ३. भावार्थ (व्याख्या)
    कबीरदास कहते हैं:
    “संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।”
    हे संत भाइयो! अब ज्ञान की आँधी आ गई है।
    “भ्रम की टाटी सबै उड़ॉनी, माया रहै न बाँधी।।”
    इस ज्ञान की आँधी के वेग से ‘भ्रम’ (संदेह) रूपी ‘टाटी’ (बाँस की पट्टियों का पर्दा) पूरी तरह उड़ गई है, और ‘माया’ रूपी रस्सी भी उसे बाँधकर नहीं रख पाई।
    “हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।”
    मन के स्वार्थ (‘हिति’) और दुविधा (‘चित्त’) रूपी दोनों खंभे (‘थूँनी’) गिर पड़े हैं, और ‘मोह’ (गहरा लगाव) रूपी मज़बूत शहतीर (‘बलिंडा’) टूट गया है।
    “त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडौ फूटा।।”
    इनके टूटने से ‘तृष्णा’ (लालसा) रूपी छप्पर (‘छाँनि’) भी नीचे आ गिरा है, और उसके नीचे रखे ‘कुबुद्धि’ (बुरे विचार) रूपी सारे बर्तन (‘भाँडौ’) फूट गए हैं।
    “जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी।”
    कबीर कहते हैं कि अब संतों ने योग और युक्ति (जोग जुगति) का प्रयोग करके एक नए (मज़बूत) छप्पर का निर्माण किया है, जो इतना पक्का है कि उसमें से वासनाओं का पानी ‘निरचू’ (बिलकुल भी) नहीं टपकता (‘चुवै’)।
    “कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी।।”
    जब ‘हरि की गति’ (ईश्वर की कृपा या वास्तविक ज्ञान) को जाना, तो शरीर (‘काया’) के भीतर भरा हुआ सारा ‘कूड़-कपट’ (पाप और छल) बाहर निकल गया।
    “आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भीनाँ।”
    ज्ञान की इस आँधी के बाद जो ‘जल’ बरसा, वह वास्तव में ईश्वरीय ‘प्रेम’ की वर्षा थी, जिसमें ‘हरि के जन’ (भक्त) पूरी तरह भीग गए।
    “कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ।।”
    कबीर कहते हैं कि इस प्रकार ज्ञान रूपी सूर्य (‘भाँन’) के ‘प्रगट’ (उदय) होने से, अज्ञान (‘तम’) का सारा अंधकार ‘खीनाँ’ (नष्ट) हो गया है।
    ४. काव्य-सौंदर्य
    (क) भाव पक्ष:
    ज्ञान का महत्व: ज्ञान को अज्ञान, मोह और माया को नष्ट करने वाली शक्ति के रूप में दर्शाया गया है।
    आध्यात्मिक शुद्धि: यह पद मन की आध्यात्मिक शुद्धि की प्रक्रिया (पहले भ्रम का नाश, फिर प्रेम की प्राप्ति) को दर्शाता है।
    रस: प्रमुख रूप से शांत रस है। ज्ञान के प्रभाव में अद्भुत रस की भी झलक है।
    (ख) कला पक्ष:
    भाषा: सधुक्कड़ी भाषा।
    रूपक अलंकार: यह पद सांगरूपक अलंकार (Extended Metaphor) का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
    ज्ञान को ‘आँधी’
    भ्रम को ‘टाटी’
    मोह को ‘बलिंडा’
    तृष्णा को ‘छाँनि’ (छप्पर)
    कुबुद्धि को ‘भाँडौ’ (बर्तन)
    ज्ञान को ‘भाँन’ (सूर्य)
    अज्ञान को ‘तम’ (अंधकार)
    ईश्वर प्रेम को ‘जल’ (वर्षा) कहा गया है।
    शैली: गेय पद (गीतात्मक) और प्रतीकात्मक शैली।
    बिंब: आँधी और छप्पर के ग्रामीण बिंब का प्रयोग कर गंभीर दार्शनिक बात को सहज बना दिया गया है।
    गुण: प्रसाद गुण।

    वाख (कवयित्री: ललद्यद)

    वाख (कवयित्री: ललद्यद)
    संदर्भ
    प्रस्तुत ‘वाख’ हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक [अपनी पाठ्यपुस्तक का नाम लिखें] में संकलित हैं। इनकी रचयिता कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय संत-कवयित्री ललद्यद (या लल्लेश्वरी) हैं। इन वाखों का हिंदी अनुवाद [अनुवादक का नाम, यदि पुस्तक में दिया हो, जैसे – मीरा कांत] ने किया है।
    प्रसंग
    इन वाखों में कवयित्री ने ईश्वर-प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अपने प्रयासों की व्यर्थता, बाहरी आडंबरों का विरोध, इंद्रिय-निग्रह (संतुलन) पर बल तथा आत्म-ज्ञान (स्वयं को जानना) को ही सच्ची ईश्वर-पहचान बताने पर ज़ोर दिया है।

    वाख 1: “रस्सी कच्चे धागे की…”

    रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
    जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
    पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
    जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे।।
    भावार्थ:
    कवयित्री ललद्यद कहती हैं कि वे अपनी जीवन-रूपी नाव को ‘कच्चे धागे’ (अर्थात् नश्वर साँसों) की रस्सी से खींच रही हैं। वे कहती हैं कि मेरे ये साँसें कभी भी टूट सकती हैं। वे व्याकुल होकर कहती हैं, “न जाने मेरे देव (ईश्वर) मेरी पुकार कब सुनेंगे और मुझे यह ‘भवसागर’ (संसार रूपी समुद्र) पार कराएँगे।”
    कवयित्री को अपने प्रयास व्यर्थ होते प्रतीत हो रहे हैं। वे अपनी तुलना एक ‘कच्चे सकोरे’ (मिट्टी का कच्चा बर्तन) से करती हैं, जिसमें से पानी लगातार टपक रहा है। अर्थात्, उनकी आयु (समय) निरंतर घटती जा रही है, और उनके ईश्वर-प्राप्ति के सारे प्रयास असफल हो रहे हैं। उनके ‘जी’ (हृदय) में रह-रहकर एक ‘हूक’ (तड़प या पीड़ा) उठती है और उन्हें ‘घर जाने’ (अर्थात् ईश्वर से मिलने या इस संसार से मुक्त होने) की तीव्र ‘चाह’ (इच्छा) ने घेर रखा है।
    काव्य-सौंदर्य:
    भाव पक्ष:
    ईश्वर-मिलन की तीव्र आतुरता और तड़प का मार्मिक चित्रण है।
    मनुष्य के नश्वर जीवन और प्रभु-कृपा की आवश्यकता को दर्शाया गया है।
    रस: भक्ति रस तथा वियोग-वेदना के कारण करुण रस की भी अनुभूति होती है।
    कला पक्ष:
    भाषा: सरल, सहज और प्रतीकात्मक हिंदी (कश्मीरी शैली से प्रभावित)।
    प्रतीक:
    ‘कच्चे धागे की रस्सी’ = नश्वर साँसें / क्षणभंगुर जीवन।
    ‘नाव’ = जीवन / शरीर।
    ‘भवसागर’ = संसार रूपी समुद्र।
    ‘कच्चे सकोरे’ = नश्वर शरीर / व्यर्थ प्रयास।
    ‘घर’ = ईश्वर का धाम / मुक्ति।
    अलंकार:
    रूपक अलंकार: ‘भवसागर’ (संसार रूपी सागर)।
    पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार: ‘रह-रह’ (भाव की तीव्रता के लिए)।
    शैली: ‘वाख’ (कश्मीरी काव्य शैली)।
    वाख 2: “खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं…”

    खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
    न खाकर बनेगा अहंकारी।
    सम खा तभी होगा समभावी,
    खुलेगी साँकल बंद द्वार की।
    भावार्थ:
    इस वाख में कवयित्री मनुष्य को जीवन में ‘मध्यम मार्ग’ (संतुलन) अपनाने की सलाह देती हैं। वे कहती हैं कि हे मनुष्य! केवल सांसारिक भोगों में लिप्त रहने (‘खा-खाकर’) से तुझे कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। परंतु, यदि तू इन भोगों का पूरी तरह त्याग कर देगा (‘न खाकर’ – जैसे तपस्या या व्रत), तो तू ‘अहंकारी’ बन जाएगा (तुझे अपने त्याग का घमंड हो जाएगा)।
    इसलिए कवयित्री कहती हैं कि तुझे ‘सम खा’ (अर्थात् संतुलन बनाकर खा, इंद्रियों पर संयम रख)ना चाहिए। ऐसा करने से ही तू ‘समभावी’ (समानता की भावना रखने वाला, सुख-दुःख से परे) बन पाएगा। जब तू समभावी बन जाएगा, तभी तेरे मन के ‘बंद द्वार’ (अज्ञान का पर्दा) की ‘साँकल’ (कुंडी) खुलेगी और तुझे ज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति होगी।
    काव्य-सौंदर्य:
    भाव पक्ष:
    सांसारिक भोग और वैराग्य, दोनों की अति का निषेध किया गया है।
    ‘मध्यम मार्ग’ (संतुलन) और ‘समभाव’ को ईश्वर-प्राप्ति का उपाय बताया गया है।
    रस: शांत रस।
    कला पक्ष:
    भाषा: सरल और उपदेशात्मक।
    प्रतीक: ‘बंद द्वार की साँकल’ = अज्ञान का पर्दा या मुक्ति के मार्ग की बाधा।
    अलंकार:
    पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार: ‘खा-खाकर’।
    शैली: उपदेशात्मक वाख।

    वाख 3: “आई सीधी राह से…”

    आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
    सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
    जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
    माझी को दूँ, क्या उतराई?
    भावार्थ:
    कवयित्री अपने जीवन पर पश्चाताप करते हुए कहती हैं कि मैं इस संसार में ‘सीधी राह से’ (अर्थात् पवित्र और निष्कपट भाव से) आई थी, परंतु यहाँ आकर ‘सीधी राह पर न गई’ (अर्थात् सांसारिक छल-कपट और मोह-माया में फँस गई)।
    वह कहती हैं कि मैंने ईश्वर-प्राप्ति के लिए सहज भक्ति का मार्ग न अपनाकर ‘सुषुम-सेतु’ (हठयोग में सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करने की कठिन साधना) का मार्ग अपना लिया और उसी पर खड़ी रही (उसी में उलझी रही)। ‘आह!’ (दुःख है कि) इसी प्रयास में मेरा सारा ‘दिन’ (जीवन) बीत गया।
    जीवन के अंत में जब भवसागर पार कराने वाले ‘माझी’ (ईश्वर/गुरु) ने ‘उतराई’ (पार उतारने का शुल्क) माँगा, तो मैंने अपनी ‘जेब टटोली’ (अपने जीवन भर के कर्मों का लेखा-जोखा किया) तो मेरे पास एक ‘कौड़ी’ (अच्छे कर्म या भक्ति रूपी धन) भी नहीं थी। अब मैं उस माझी को उतराई के रूप में क्या दूँ?
    काव्य-सौंदर्य:
    भाव पक्ष:
    सहज भक्ति के स्थान पर हठयोग जैसी कठिन साधनाओं की निरर्थकता बताई गई है।
    जीवन में सत्कर्म और भक्ति न कर पाने का गहरा पश्चाताप व्यक्त हुआ है।
    रस: शांत रस एवं पश्चाताप का भाव।
    कला पक्ष:
    भाषा: लाक्षणिक और प्रतीकात्मक।
    प्रतीक/रूपक:
    ‘माझी’ = ईश्वर या गुरु।
    ‘उतराई’ = सत्कर्म / भक्ति रूपी पुण्य।
    ‘जेब टटोलना’ = आत्म-निरीक्षण करना।
    ‘कौड़ी न पाना’ = कोई पुण्य कर्म न होना।
    ‘सुषुम-सेतु’ = हठयोग की साधना।
    शैली: आत्म-विश्लेषणात्मक वाख।

    वाख 4: “थल-थल में बसता है शिव ही…”

    थल-थल में बसता है शिव ही,
    भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।
    ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
    वही है साहिब से पहचान।।
    भावार्थ:
    इस अंतिम वाख में कवयित्री ईश्वर की सर्वव्यापकता और आत्म-ज्ञान के महत्व को बताती हैं। वे कहती हैं कि ‘शिव’ (ईश्वर) ‘थल-थल’ (कण-कण) में बसता है, वह सर्वव्यापी है। इसलिए हे मनुष्य! तू हिंदू और मुसलमान के आधार पर ‘भेद’ (भेदभाव) मत कर, क्योंकि दोनों को बनाने वाला वही एक ईश्वर है।
    कवयित्री कहती हैं कि यदि तू सचमुच ‘ज्ञानी’ है, तो सबसे पहले ‘स्वयं को जान’ (आत्म-ज्ञान प्राप्त कर)। क्योंकि जिस दिन तू स्वयं को पहचान लेगा, उसी दिन तेरी ‘साहिब’ (ईश्वर) से भी सच्ची ‘पहचान’ हो जाएगी। अर्थात्, आत्म-ज्ञान ही ईश्वर-प्राप्ति का एकमात्र सच्चा मार्ग है।
    काव्य-सौंदर्य:
    भाव पक्ष:
    ईश्वर की सर्वव्यापकता (‘थल-थल में’) पर बल।
    धार्मिक भेदभाव और सांप्रदायिकता का प्रबल खंडन।
    ‘आत्म-ज्ञान’ (Self-realization) को ही ‘परमात्म-ज्ञान’ बताया गया है।
    रस: शांत रस।
    कला पक्ष:
    भाषा: सरल, स्पष्ट और उपदेशात्मक।
    अलंकार:
    पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार: ‘थल-थल’।
    अनुप्रास अलंकार: ‘साहिब से’।
    शैली: उपदेशात्मक वाख।
    (कबीर की ‘साखी’ से भाव-साम्य है)।

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