Socialism in Europe and the Russian Revolution
निश्चित रूप से, यहाँ “यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रांति” अध्याय का विस्तृत, व्यापक हिंदी विवरण प्रस्तुत है, जो परीक्षा के गहन अध्ययन के लिए उपयुक्त है।
अध्याय 2: यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रांति Socialism in Europe and the Russian Revolution
1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद का दौर पूरे यूरोप में गहन बौद्धिक और राजनीतिक उथल-पुथल का काल था। क्रांति के स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों ने पुराने राजशाही और कुलीन वर्ग के शासन, जिसे ‘प्राचीन राजतंत्र’ (Ancien Régime) कहा जाता था, की नींव को हिलाकर रख दिया था। पहली बार, ऐसा संभव लग रहा था कि समाज में केवल सुधार ही नहीं, बल्कि उसका पूरी तरह से पुनर्गठन भी किया जा सकता है। यह अध्याय उदारवाद, रैडिकलवाद और रूढ़िवाद जैसी शक्तिशाली नई राजनीतिक विचारधाराओं के उद्भव की पड़ताल करता है, जिन्होंने यूरोपीय समाज के भविष्य पर बहस की। इसके बाद यह नए औद्योगिक युग की कठोर वास्तविकताओं की प्रतिक्रिया के रूप में समाजवाद के उदय पर गहराई से प्रकाश डालता है। अंत में, यह 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक – रूसी क्रांति – की विस्तृत जाँच पर समाप्त होता है, जहाँ समाजवादी विचारों को एक अभूतपूर्व पैमाने पर व्यवहार में लाया गया, जिसने वैश्विक इतिहास की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
१. सामाजिक परिवर्तन का युग: विचारों का संघर्ष 🌍
फ्रांसीसी क्रांति के बाद विचारों का एक जीवंत, और अक्सर हिंसक, बाज़ार तैयार हो गया। पेरिस से लेकर सेंट पीटर्सबर्ग तक, पूरे यूरोप में लोग शासन, व्यक्तिगत अधिकारों और धन तथा शक्ति के वितरण जैसे मूलभूत प्रश्नों पर बहस कर रहे थे। इन बहसों से तीन प्रमुख राजनीतिक परंपराएँ उभरीं, जिनमें से प्रत्येक ने भविष्य के लिए एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
उदारवादी: संयमित बदलाव के पक्षधर
उदारवादी परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली शक्ति का प्रतिनिधित्व करते थे, लेकिन यह एक नियंत्रित और संरचित परिवर्तन था। वे जैकोबिन की तरह के क्रांतिकारी नहीं थे।
- मूल विश्वास: इसके मूल में, उदारवाद ने व्यक्तिगत अधिकारों और स्वतंत्रताओं का समर्थन किया। उदारवादियों का दृढ़ विश्वास था कि सरकारों के पास पूर्ण, अनियंत्रित शक्ति नहीं होनी चाहिए। उन्होंने राज्य के खिलाफ व्यक्तिगत अधिकारों (जैसे भाषण, प्रेस और धर्म की स्वतंत्रता) की सुरक्षा के लिए तर्क दिया। एक प्रमुख सिद्धांत धार्मिक सहिष्णुता था; उन्होंने ऐसे राष्ट्रों की कल्पना की जहाँ सभी धर्मों का सम्मान किया जाता हो और वे शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रह सकते हों। यह उस युग में एक क्रांतिकारी विचार था जहाँ अधिकांश प्रमुख यूरोपीय राज्यों का एक आधिकारिक राजकीय धर्म था (जैसे, ब्रिटेन में चर्च ऑफ इंग्लैंड, स्पेन और ऑस्ट्रिया में कैथोलिक चर्च)।
- राजनीतिक दृष्टिकोण: राजनीतिक रूप से, उदारवादी राजाओं के वंशवादी शासन और अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों के विरोधी थे। उन्होंने एक प्रतिनिधि, निर्वाचित संसदीय सरकार की वकालत की। हालाँकि, शासन को स्थिर और तर्कसंगत सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने एक स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर भी जोर दिया जो शासकों और अधिकारियों के प्रभाव से मुक्त हो। नियंत्रण और संतुलन की यह प्रणाली उनकी सोच के केंद्र में थी।
- सीमाएँ – “गैर-लोकतंत्रवादी”: यह समझना महत्वपूर्ण है कि 19वीं सदी के उदारवादी लोकतंत्रवादी नहीं थे। प्रतिनिधित्व में उनका विश्वास सभी तक नहीं फैला था। उन्होंने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का समर्थन नहीं किया, यानी हर वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार। इसके बजाय, वे आम तौर पर मानते थे कि केवल संपत्ति वाले पुरुषों को ही वोट देने का अधिकार होना चाहिए। उन्हें डर था कि संपत्तिहीन जनता और महिलाओं को वोट देने से अस्थिरता पैदा होगी और कट्टरपंथी नेताओं का चुनाव होगा। उनका आदर्श शिक्षित, संपत्तिशाली अभिजात वर्ग द्वारा संचालित सरकार थी।
रैडिकल (आमूल परिवर्तनवादी): बहुमत के शासन के समर्थक
रैडिकल समूह ने सामाजिक परिवर्तन का एक अधिक लोकतांत्रिक और दूरगामी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। वे उदारवादियों के सतर्क दृष्टिकोण से असंतुष्ट थे।
- मूल विश्वास: रैडिकल मानते थे कि सरकार देश की अधिकांश आबादी की इच्छा पर आधारित होनी चाहिए। वे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के प्रबल समर्थक थे और महिला मताधिकार आंदोलनों के शुरुआती समर्थकों में से थे, जिन्होंने महिलाओं के वोट के अधिकार के लिए अभियान चलाया।
- आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण: सामाजिक रूप से, रैडिकल बड़े जमींदारों और अमीर कारखाना मालिकों द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों के कट्टर विरोधी थे। यद्यपि वे निजी संपत्ति की अवधारणा के खिलाफ आवश्यक रूप से नहीं थे, वे कुछ ही हाथों में धन और संपत्ति के संकेंद्रण से बहुत चिंतित थे। उनका मानना था कि इस असमानता ने अमीरों को एक अनुचित लाभ दिया और राष्ट्र के स्वास्थ्य को कमजोर किया।
रूढ़िवादी: परंपरा के संरक्षक
रूढ़िवादी, उदारवादियों और रैडिकल दोनों के बिल्कुल विपरीत खड़े थे। वे परंपरा, व्यवस्था और स्थापित संस्थानों की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे।
- मूल विश्वास: 1789 से पहले, रूढ़िवादी लगभग किसी भी प्रकार के परिवर्तन के घोर विरोधी थे। वे एक स्थिर समाज के स्तंभ के रूप में राजशाही, अभिजात वर्ग और चर्च की पवित्रता में विश्वास करते थे।
- क्रांति के बाद का विकास: फ्रांसीसी क्रांति ने रूढ़िवादियों को अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। वे यह स्वीकार करने लगे कि पूर्ण सामाजिक पतन को रोकने के लिए कुछ परिवर्तन अनिवार्य था। हालाँकि, उन्होंने यह बनाए रखा कि यह परिवर्तन धीमा, क्रमिक और अतीत का सम्मान करने वाला होना चाहिए। उनका मानना था कि परंपरा और इतिहास में मूल्यवान सबक हैं और समाज को अपनी विरासत को नहीं छोड़ना चाहिए। उनका दृष्टिकोण कट्टरपंथी पुनर्गठन के बजाय सतर्क सुधार का था।
ये तीन समूह – उदारवादी, रैडिकल और रूढ़िवादी – 19वीं शताब्दी के दौरान लगातार टकराते रहे, और उनकी बहसों और संघर्षों ने आधुनिक यूरोप के राजनीतिक परिदृश्य को आकार दिया।
२. औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन: समस्याओं की एक नई दुनिया 🏭
जब इन राजनीतिक विचारों पर बहस हो रही थी, एक और भी शक्तिशाली ताकत यूरोपीय समाज को नया आकार दे रही थी: औद्योगिक क्रांति। यह गहन आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन का दौर था जिसने कुछ के लिए अपार धन पैदा किया लेकिन कई लोगों के लिए अभूतपूर्व कठिनाइयाँ भी पैदा कीं।
औद्योगिक शहर का उदय
औद्योगिक युग की विशेषता ग्रामीण इलाकों से लोगों का नए कारखानों में काम की तलाश में शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन था। इससे तीव्र, अनियोजित शहरीकरण हुआ।
- रहने की स्थिति: मैनचेस्टर, लंदन और बर्लिन जैसे औद्योगिक शहर आश्चर्यजनक दर से बढ़े। आवास की व्यवस्था नहीं हो सकी, जिससे भीड़भाड़ वाली झुग्गियों का विकास हुआ। परिवारों को अक्सर खराब तरीके से बने मकानों में एक ही कमरे में ठूंस दिया जाता था, जहाँ बहता पानी या उचित स्वच्छता नहीं होती थी। गलियाँ कचरे और सीवेज से भरी रहती थीं, जिससे हैजा और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए एक आदर्श प्रजनन स्थल बन गया, जो नियमित रूप से इन समुदायों में फैलती थीं।
- काम करने की स्थिति: कारखानों के अंदर का जीवन अक्सर क्रूर होता था।
- काम के घंटे: कार्यदिवस बहुत लंबा होता था, अक्सर सप्ताह में छह दिन 12 से 16 घंटे तक चलता था।
- मजदूरी: वेतन बहुत कम था, जो एक मजदूर के लिए अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुश्किल से ही काफी होता था। आर्थिक मंदी के समय, जब निर्मित वस्तुओं की मांग गिर जाती थी, तो श्रमिकों को बिना किसी सूचना या मुआवजे के काम से निकाल दिया जाता था, जिससे व्यापक बेरोजगारी और गरीबी फैल जाती थी।
- सुरक्षा: वस्तुतः कोई सुरक्षा मानक नहीं थे। मशीनें खतरनाक थीं और उनमें सुरक्षा गार्डों की कमी थी। दुर्घटनाएँ आम थीं, और जो श्रमिक घायल या अपंग हो जाते थे, उन्हें कोई मदद नहीं मिलती थी।
- बाल श्रम: बच्चे कार्यबल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे, खासकर कपड़ा मिलों और कोयला खदानों में। कारखाना मालिकों द्वारा उन्हें महत्व दिया जाता था क्योंकि उनके छोटे आकार के कारण वे तंग जगहों पर काम कर सकते थे और उन्हें एक वयस्क के वेतन का एक अंश दिया जा सकता था। उनका बचपन खतरनाक परिस्थितियों में कठोर परिश्रम द्वारा छीन लिया गया था।
इस नए औद्योगिक समाज ने अमीर कारखाना मालिकों (नए बुर्जुआ वर्ग) और गरीब मजदूर वर्ग (सर्वहारा वर्ग) के बीच एक स्पष्ट विभाजन पैदा कर दिया।
३. यूरोप में समाजवाद का आना: समानता का एक दृष्टिकोण ✊
औद्योगिक पूँजीवाद की गहरी असमानताओं और अन्यायों के जवाब में, एक नई और क्रांतिकारी विचारधारा उभरी: समाजवाद। समाजवादियों ने मौजूदा व्यवस्था की एक मौलिक आलोचना की और समाज को संगठित करने का एक पूरी तरह से अलग तरीका प्रस्तावित किया।
समाजवाद का मूल विचार
समाजवाद का केंद्रीय तर्क यह था कि निजी संपत्ति सभी सामाजिक बुराईयों की जड़ है। समाजवादियों का तर्क था कि जब व्यक्ति उत्पादन के साधनों (कारखानों, भूमि, खानों) के मालिक होते हैं, तो वे व्यक्तिगत लाभ की खोज से प्रेरित होते हैं। यह अनिवार्य रूप से उन्हें अपने लाभ को अधिकतम करने के लिए अपने श्रमिकों को न्यूनतम संभव मजदूरी देकर उनका शोषण करने के लिए प्रेरित करता है।
समाजवादी समाधान संपत्ति को व्यक्तियों के हाथों से निकालकर समग्र रूप से समाज के नियंत्रण में रखना था। उनका मानना था कि यदि उत्पादन के साधन सामूहिक रूप से स्वामित्व और संचालित किए जाते हैं, तो उत्पन्न धन को समाज के सभी सदस्यों के बीच अधिक समान रूप से साझा किया जा सकता है, जिससे व्यक्तिगत लाभ पर सामूहिक कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके।
प्रारंभिक “यूटोपियन” समाजवादी
कुछ शुरुआती समाजवादियों ने छोटे पैमाने के प्रयोगों के माध्यम से अपने विचारों को व्यवहार में लाने की कोशिश की।
- रॉबर्ट ओवेन (1771-1858): एक सफल अंग्रेज निर्माता, ओवेन अधिकांश कारखानों की स्थितियों से भयभीत थे। उनका मानना था कि श्रमिकों के साथ मानवीय व्यवहार करते हुए एक लाभदायक व्यवसाय चलाना संभव है। उन्होंने स्कॉटलैंड में एक आदर्श कारखाना शहर बनाया और बाद में इंडियाना, संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यू हारमनी नामक एक सहकारी समुदाय स्थापित करने का प्रयास किया। इन समुदायों में, संपत्ति का स्वामित्व सामूहिक रूप से था, और लाभ साझा किया जाता था।
- लुई ब्लांक (1813-1882): एक फ्रांसीसी समाजवादी, ब्लांक का मानना था कि ओवेन जैसी व्यक्तिगत पहल समाज को बदलने के लिए बहुत छोटी थीं। उन्होंने तर्क दिया कि सरकार को सहकारी समितियों (जो लोग एक साथ माल का उत्पादन करते थे और प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के अनुसार लाभ विभाजित करते थे) के साथ पूँजीवादी उद्यमों को प्रतिस्थापित करके नेतृत्व करना चाहिए।
वैज्ञानिक समाजवाद: कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स
सबसे प्रभावशाली समाजवादी विचारक दो जर्मन दार्शनिक थे, कार्ल मार्क्स (1818-1882) और उनके सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स (1820-1895)। उन्होंने तर्क दिया कि पहले के समाजवादियों के विचार यूटोपियन (काल्पनिक) और अवास्तविक थे। उन्होंने “वैज्ञानिक समाजवाद” नामक एक व्यापक सिद्धांत विकसित किया, जिसने इतिहास के पाठ्यक्रम को गहराई से प्रभावित किया।
- पूँजीवाद का सिद्धांत: मार्क्स ने तर्क दिया कि औद्योगिक समाज मूल रूप से एक पूँजीवादी समाज था। इस प्रणाली में, उत्पादन के साधन पूँजीपतियों, या बुर्जुआ वर्ग के एक छोटे वर्ग के स्वामित्व में थे। अधिकांश लोग श्रमिक, या सर्वहारा वर्ग थे, जिनके पास काम करने की क्षमता के अलावा कुछ भी नहीं था।
- शोषण और वर्ग संघर्ष: मार्क्स के अनुसार, पूँजीपतियों का लाभ सीधे सर्वहारा वर्ग के शोषण से आता था। श्रमिकों को दिया जाने वाला वेतन उनके द्वारा उत्पादित माल के वास्तविक मूल्य से बहुत कम था। इस “अतिरिक्त मूल्य” को पूँजीपति ने लाभ के रूप में हथिया लिया। मार्क्स ने पूरे मानव इतिहास को वर्ग संघर्ष के इतिहास के रूप में देखा – संपत्ति के मालिक शासक वर्ग और उत्पीड़ित वर्ग के बीच संघर्ष। औद्योगिक युग में, यह बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच का संघर्ष था।
- अपरिहार्य क्रांति: मार्क्स का मानना था कि यह वर्ग संघर्ष असंगत था और अनिवार्य रूप से एक क्रांति की ओर ले जाएगा। उन्होंने भविष्यवाणी की कि सर्वहारा वर्ग, अपने साझा उत्पीड़न से एकजुट होकर, उठ खड़ा होगा और पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकेगा।
- कम्युनिस्ट (साम्यवादी) समाज: क्रांति के बाद, पुरानी व्यवस्था को खत्म करने के लिए “सर्वहारा वर्ग की तानाशाही” स्थापित की जाएगी। यह अंततः एक वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज के निर्माण की ओर ले जाएगा। इस समाज में, उत्पादन के सभी साधन सामाजिक रूप से स्वामित्व में होंगे, और “प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार” का सिद्धांत प्रबल होगा। मार्क्स के लिए, साम्यवाद मानव समाज का अंतिम, उच्चतम चरण था।
मार्क्स के शक्तिशाली विचार पूरे यूरोप में तेजी से फैल गए, जिससे ट्रेड यूनियनों और समाजवादी राजनीतिक दलों, जैसे जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) का गठन हुआ। इन संगठनों ने श्रमिकों के अधिकारों, बेहतर मजदूरी, कम काम के घंटे और वोट के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी। 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक, समाजवाद यूरोप में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन चुका था।
४. रूसी क्रांति: समाजवाद क्रियान्वयन में 🇷🇺
जबकि पूरे यूरोप में समाजवादी विचारों पर बहस हो रही थी, यह विशाल, पिछड़े रूसी साम्राज्य में था कि उन्होंने पहली बार एक सफल क्रांति का नेतृत्व किया। 1917 की रूसी क्रांति कोई एक घटना नहीं थी, बल्कि उथल-पुथल की एक श्रृंखला थी जिसने सदियों पुरानी राजशाही को उखाड़ फेंका और दुनिया का पहला समाजवादी राज्य स्थापित किया।
1914 में रूसी साम्राज्य: कगार पर खड़ा एक साम्राज्य
प्रथम विश्व युद्ध की पूर्व संध्या पर, ज़ार निकोलस द्वितीय द्वारा शासित रूसी साम्राज्य, एक गहरा अशांत राष्ट्र था।
- राजनीतिक व्यवस्था: रूस यूरोप में शेष अंतिम निरंकुश राजशाहियों में से एक था। ज़ार का मानना था कि उसे शासन करने का दैवीय अधिकार है और उसने अपनी शक्ति को सीमित करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया। कोई कामकाजी संसद नहीं थी, और राजनीतिक दल अवैध थे। एक गुप्त पुलिस बल ने सभी असंतोष को बेरहमी से दबा दिया।
- आर्थिक और सामाजिक संरचना: रूस अत्यधिक कृषि प्रधान था, इसकी लगभग 85% आबादी कृषि में लगी हुई थी। किसान गरीब, भूमि के भूखे और भारी करों से दबे हुए थे। उद्योग केवल सेंट पीटर्सबर्ग और मॉस्को जैसे कुछ प्रमुख शहरों में ही मौजूद थे। इन कारखानों में श्रमिकों को यूनियनों के गठन के कानूनी अधिकार के बिना भयानक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था। समाज एक छोटे, अत्यंत धनी अभिजात वर्ग और गरीब किसानों और श्रमिकों के विशाल जनसमूह के बीच तेजी से विभाजित था।
1905 की क्रांति: एक पूर्वाभ्यास
1905 में असंतोष उबल पड़ा। रूस-जापान युद्ध में रूस की अपमानजनक हार, गंभीर आर्थिक कठिनाई के साथ मिलकर, व्यापक अशांति का कारण बनी।
- खूनी रविवार: मुख्य घटना 22 जनवरी, 1905 को हुई। फादर गैपॉन नामक एक पादरी के नेतृत्व में श्रमिकों का एक शांतिपूर्ण जुलूस, बेहतर काम करने की स्थिति और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए एक याचिका प्रस्तुत करने के लिए सेंट पीटर्सबर्ग में ज़ार के विंटर पैलेस तक गया। ज़ार के सैनिकों ने निहत्थे भीड़ पर गोलियाँ चला दीं, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। खूनी रविवार के रूप में जानी जाने वाली इस घटना ने ज़ार की अपने लोगों के दयालु “छोटे पिता” की सदियों पुरानी छवि को चकनाचूर कर दिया।
- परिणाम: इस हत्याकांड ने पूरे साम्राज्य में हड़तालों, किसान विद्रोहों और सैन्य विद्रोहों की लहर पैदा कर दी। अपने सिंहासन को बचाने के लिए, ज़ार ने अनिच्छा से एक निर्वाचित सलाहकार संसद, ड्यूमा के निर्माण के लिए सहमति व्यक्त की। हालाँकि, उसने अपनी निरंकुश शक्तियों को बनाए रखा और पहले दो ड्यूमा को जब वे उसकी शासन के बहुत आलोचक साबित हुए तो भंग कर दिया। 1905 की क्रांति अंततः विफल रही, लेकिन इसने 1917 के लिए एक महत्वपूर्ण “पूर्वाभ्यास” के रूप में कार्य किया।
प्रथम विश्व युद्ध: अंतिम प्रहार
1914 में प्रथम विश्व युद्ध के फैलने से शुरू में ज़ार के लिए देशभक्तिपूर्ण समर्थन की लहर दौड़ गई। लेकिन युद्ध जल्द ही रूस के लिए एक आपदा बन गया।
- सैन्य पराजय: रूसी सेना खराब रूप से सुसज्जित और बुरी तरह से नेतृत्व वाली थी। इसे जर्मन सेना के हाथों भारी पराजय का सामना करना पड़ा, 1917 तक 2 मिलियन से अधिक रूसी सैनिक मारे गए।
- आर्थिक पतन: युद्ध ने रूसी अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया। श्रम की कमी के कारण उद्योग बंद हो गए, और रेलवे नेटवर्क टूटने लगा। इससे खाद्य आपूर्ति बाधित हुई, जिससे शहरों में गंभीर कमी और रोटी के लिए दंगे हुए। मुद्रास्फीति बढ़ गई, जिससे आम लोगों का जीवन असहनीय हो गया। युद्ध ने ज़ारशाही शासन की अक्षमता और भ्रष्टाचार को उजागर कर दिया।
फरवरी क्रांति (मार्च 1917)
1916-17 की सर्दियों तक, राजधानी पेट्रोग्राद (पूर्व में सेंट पीटर्सबर्ग) में स्थिति désperate थी। क्रांति 23 फरवरी (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) को शुरू हुई, जब महिला कपड़ा श्रमिकों ने रोटी की कमी का विरोध करने के लिए हड़ताल की। जल्द ही अन्य श्रमिक भी उनके साथ हो गए। हड़ताल एक बड़े विरोध प्रदर्शन में बदल गई। जब ज़ार ने सैनिकों को भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया, तो सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और क्रांति में शामिल हो गए। कुछ ही दिनों में, ज़ार ने अपनी राजधानी और अपनी सेना पर नियंत्रण खो दिया। 2 मार्च, 1917 को ज़ार निकोलस द्वितीय ने गद्दी छोड़ दी, जिससे रोमानोव शासन के तीन शताब्दियों का अंत हो गया। उदारवादी राजनेताओं के प्रभुत्व वाली एक अस्थायी सरकार का गठन किया गया।
अक्टूबर क्रांति (नवंबर 1917)
अस्थायी सरकार रूस की समस्याओं को हल करने में विफल रही। महत्वपूर्ण रूप से, इसने जर्मनी के खिलाफ अलोकप्रिय युद्ध जारी रखने का फैसला किया और किसी भी बड़े भूमि सुधार को स्थगित कर दिया। इससे एक शक्ति शून्य पैदा हो गया।
- लेनिन और बोल्शेविक: अप्रैल 1917 में, निर्वासित क्रांतिकारी नेता व्लादिमीर लेनिन रूस लौट आए। कट्टरपंथी बोल्शेविक पार्टी (रूसी समाजवादियों का एक गुट) के प्रमुख के रूप में, उन्होंने तुरंत अस्थायी सरकार की निंदा की। उन्होंने अपनी “अप्रैल थीसिस” प्रस्तुत की, जिसमें तीन सरल लेकिन शक्तिशाली मांगें की गईं: युद्ध का तत्काल अंत, सभी भूमि का किसानों को हस्तांतरण, और सभी शक्ति सोवियतों (श्रमिकों और सैनिकों की परिषदों) को हस्तांतरण। यह अत्यंत लोकप्रिय नारे में समाहित था: “शांति, भूमि और रोटी।”
- सत्ता पर कब्जा: जैसे-जैसे अस्थायी सरकार की लोकप्रियता गिरती गई, बोल्शेविकों के लिए समर्थन बढ़ता गया। लेनिन ने फैसला किया कि सत्ता पर कब्जा करने का सही समय आ गया है। 24-25 अक्टूबर, 1917 की रात को, बोल्शेविक के नेतृत्व वाले सैनिकों और सशस्त्र श्रमिकों (रेड गार्ड्स) ने पेट्रोग्राद में टेलीफोन एक्सचेंज, रेलवे स्टेशनों और सरकारी भवनों सहित प्रमुख बिंदुओं पर तेजी से नियंत्रण कर लिया। फिर उन्होंने अस्थायी सरकार की सीट विंटर पैलेस पर धावा बोल दिया और उसके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। यह अधिग्रहण तेज और अपेक्षाकृत रक्तहीन था। अक्टूबर क्रांति एक सफलता थी। लेनिन ने सोवियत को सत्ता के हस्तांतरण की घोषणा की।
५. क्रांति के बाद: एक समाजवादी राज्य का निर्माण 🛠️
बोल्शेविक, जिन्हें अब कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया गया था, को युद्ध और आंतरिक अराजकता से तबाह देश में दुनिया के पहले समाजवादी समाज के निर्माण के विशाल कार्य का सामना करना पड़ा।
तत्काल कार्रवाइयाँ और गृहयुद्ध
नई सरकार ने अपने वादों को लागू करने के लिए तेजी से कदम उठाए। इसने सभी उद्योगों और बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के फरमान जारी किए, सभी भूमि को सामाजिक संपत्ति घोषित किया ताकि किसान उसे आपस में बाँट सकें, और मार्च 1918 में जर्मनी के साथ ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की संधि पर हस्ताक्षर किए, जिससे रूस को भारी क्षेत्रीय कीमत पर प्रथम विश्व युद्ध से बाहर निकाला गया।
इन कार्रवाइयों ने एक भयंकर प्रतिक्रिया को उकसाया। 1918 से 1920 तक, रूस एक क्रूर गृहयुद्ध से त्रस्त रहा। इस संघर्ष ने बोल्शेविक “रेड्स” को “व्हाइट्स” के खिलाफ खड़ा कर दिया – ज़ार-समर्थकों, उदारवादियों और अन्य समाजवादियों सहित बोल्शेविक-विरोधी ताकतों का एक ढीला गठबंधन। व्हाइट्स को ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान जैसी विदेशी शक्तियों द्वारा सैनिकों और आपूर्तियों के साथ समर्थन दिया गया था, जो साम्यवाद के प्रसार से डरते थे। बाधाओं के बावजूद, लियोन ट्रॉट्स्की द्वारा शानदार ढंग से संगठित लाल सेना ने अंततः व्हाइट्स को हरा दिया। 1922 तक, बोल्शेविकों ने अपनी शक्ति को मजबूत कर लिया था और सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (USSR) की स्थापना की थी।
स्टालिनवाद: औद्योगीकरण और आतंक
1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद, जोसेफ़ स्टालिन सोवियत संघ के निर्विवाद नेता के रूप में उभरे। उन्होंने यूएसएसआर को एक आधुनिक औद्योगिक महाशक्ति में बदलने के लिए एक क्रूर कार्यक्रम शुरू किया।
- पंचवर्षीय योजनाएँ: 1928 से शुरू होकर, स्टालिन ने केंद्रीकृत पंचवर्षीय योजनाओं की एक श्रृंखला लागू की। इन योजनाओं ने कोयला, लोहा, इस्पात और मशीनरी के उत्पादन के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए। अर्थव्यवस्था को पूर्ण राज्य नियंत्रण में रखा गया था।
- कृषि का सामूहिकीकरण: बढ़ते औद्योगिक कार्यबल को खिलाने और मशीनरी के भुगतान के लिए अनाज का निर्यात करने के लिए, स्टालिन ने रूस के किसानों को अपनी व्यक्तिगत भूमि छोड़ने और बड़े, राज्य-नियंत्रित सामूहिक खेतों (कोलखोज) में शामिल होने के लिए मजबूर किया। सामूहिकीकरण के रूप में जानी जाने वाली इस नीति का किसानों ने हिंसक रूप से विरोध किया। राज्य ने इस प्रतिरोध को कुचलने के लिए क्रूर बल का इस्तेमाल किया, लाखों लोगों, विशेष रूप से कुलक के रूप में जाने जाने वाले अधिक समृद्ध किसानों को निर्वासित किया और मार डाला। परिणामस्वरूप अराजकता और अनाज की जब्ती ने 1932-33 में एक विनाशकारी अकाल को जन्म दिया, जिसमें लाखों और लोग मारे गए।
स्टालिन ने यूएसएसआर का तेजी से औद्योगीकरण करने में सफलता प्राप्त की, लेकिन एक अकल्पनीय मानवीय कीमत पर। उन्होंने एक अधिनायकवादी तानाशाही स्थापित की, जिसमें शुद्धिकरण और आतंक की लहर में सभी विरोधियों को खत्म करने के लिए गुप्त पुलिस का इस्तेमाल किया गया।
६. रूसी क्रांति का वैश्विक प्रभाव 🌐
रूसी क्रांति अपार वैश्विक महत्व की घटना थी। पहली बार, मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित एक पार्टी ने राज्य की सत्ता पर कब्जा कर लिया था और एक समाजवादी समाज बनाने का प्रयास कर रही थी।
- क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा: इस क्रांति ने दुनिया भर के श्रमिकों और उत्पीड़ित लोगों में आशा जगाई। सोवियत उदाहरण पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टियाँ कई देशों में बनाई गईं। बोल्शेविकों ने विश्व क्रांति को बढ़ावा देने और समन्वय करने के लिए कॉमिन्टर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) का निर्माण किया।
- एक नई वैश्विक शक्ति: यूएसएसआर एक नए प्रकार के राज्य के रूप में उभरा – एक “श्रमिकों का राज्य” जिसने पूँजीवादी दुनिया के लिए एक शक्तिशाली चुनौती पेश की। इसने उपनिवेशवाद-विरोधी के कारण का समर्थन किया और एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को प्रेरित किया।
- एक विवादित विरासत: जबकि यूएसएसआर ने द्वितीय विश्व युद्ध में नाजी जर्मनी की हार में एक निर्णायक भूमिका निभाई और साक्षरता और स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सामाजिक प्रगति हासिल की, इसकी प्रतिष्ठा स्टालिनवादी युग की तानाशाही, आतंक और दमन से हमेशा के लिए धूमिल हो गई। 20वीं सदी के मध्य तक, यह स्पष्ट हो गया था कि सोवियत राज्य की वास्तविकता 1917 में क्रांति को प्रेरित करने वाले स्वतंत्रता और समानता के समाजवादी आदर्शों से बहुत दूर भटक गई थी। फिर भी, रूसी क्रांति ने 20वीं सदी के राजनीतिक मानचित्र को मौलिक रूप से नया आकार दिया और इसकी विरासत पर आज भी बहस जारी है।