कक्षा 9अध्याय 4: संस्थाओं का कामकाज : MP board Class 9 SST Chapter 4 Working of Institutions

MP board Class 9 SST Chapter 4 Working of Institutions : कक्षा 9 के छात्रों के लिए उनकी परीक्षा की तैयारी हेतु “संस्थाओं का कामकाज” पर यह एक विस्तृत और संपूर्ण लेख है। इसमें उचित शीर्षक, उप-शीर्षक और महत्वपूर्ण अंग्रेजी शब्दों को भी शामिल किया गया है।

अध्याय 4: संस्थाओं का कामकाज (Working of Institutions)

भूमिका (Introduction)

पिछले अध्यायों में हमने लोकतंत्र (Democracy) और चुनावी प्रक्रिया (Electoral Process) को समझा। हमने जाना कि लोकतंत्र में जनता अपने शासकों का चुनाव करती है। लेकिन सिर्फ चुनाव करा देना ही पर्याप्त नहीं है। एक लोकतांत्रिक सरकार को चलाने के लिए, चुने हुए प्रतिनिधियों को कुछ नियमों और प्रक्रियाओं का पालन करना होता है। उन्हें विभिन्न संस्थाओं (Institutions) के भीतर और उनके साथ मिलकर काम करना होता है।

ये संस्थाएँ क्या हैं? सरल शब्दों में, संस्थाएँ किसी देश के शासन को चलाने के लिए बनाई गई व्यवस्थाएँ हैं, जिनके अपने नियम, कानून और कार्यप्रणाली होती है। एक लोकतंत्र में, तीन मुख्य संस्थाएँ होती हैं:

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  1. विधायिका (Legislature): इसका मुख्य कार्य देश के लिए कानून बनाना है। भारत में इसे संसद (Parliament) कहते हैं।
  2. कार्यपालिका (Executive): इसका मुख्य कार्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करना और सरकार चलाना है। इसमें प्रधानमंत्री (Prime Minister), मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) और सरकारी अधिकारी (Civil Servants) शामिल होते हैं।
  3. न्यायपालिका (Judiciary): इसका मुख्य कार्य कानूनों की व्याख्या करना, विवादों को सुलझाना और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) और अन्य अदालतें शामिल हैं।

यह अध्याय हमें यह समझने में मदद करेगा कि ये संस्थाएँ मिलकर कैसे काम करती हैं, कैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते हैं, और कैसे विवादों का समाधान किया जाता है। इसे समझने के लिए, हम भारत सरकार के एक बहुत ही महत्वपूर्ण और विवादास्पद नीतिगत फैसले का उदाहरण लेंगे: मंडल आयोग (Mandal Commission) की सिफारिशों को लागू करना।

1. एक प्रमुख नीतिगत फैसले का उदाहरण: मंडल आयोग

यह कहानी हमें यह समझने में मदद करेगी कि भारत में सरकारी निर्णय कैसे लिए जाते हैं और विभिन्न संस्थाएँ इसमें क्या भूमिका निभाती हैं।

(i) सरकारी आदेश: एक शुरुआत (The Government Order: A Beginning)

यह कहानी 13 अगस्त, 1990 के एक सरकारी आदेश से शुरू होती है। भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (Department of Personnel and Training) के एक संयुक्त सचिव ने एक आदेश पर हस्ताक्षर किए। यह एक सामान्य कार्यालय ज्ञापन (Office Memorandum) जैसा दिखता था, लेकिन यह एक ऐतिहासिक निर्णय था जिसने आने वाले कई वर्षों तक भारत की राजनीति को प्रभावित किया।

इस आदेश में कहा गया था कि भारत सरकार के अंतर्गत आने वाली सभी नौकरियों और पदों में 27 प्रतिशत (27%) रिक्तियाँ “सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों” (Socially and Educationally Backward Classes – SEBCs) के लिए आरक्षित (Reserved) होंगी। अब तक, यह आरक्षण केवल अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिए ही था।

(ii) निर्णय लेने की प्रक्रिया (The Decision-Making Process)

यह इतना बड़ा फैसला किसने लिया? निश्चित रूप से, जिस व्यक्ति ने उस कागज पर हस्ताक्षर किए थे, उसने नहीं। वह केवल एक अधिकारी था जो उस निर्णय को लागू कर रहा था जिसे सरकार ने लिया था। यह निर्णय भारत के प्रधानमंत्री (Prime Minister) के नेतृत्व वाली सरकार का एक बड़ा नीतिगत फैसला था। इस निर्णय की एक लंबी पृष्ठभूमि थी:

  • मंडल आयोग का गठन (Formation of the Mandal Commission):1979 में, तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग (Second Backward Classes Commission) का गठन किया था। इसके अध्यक्ष बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (B.P. Mandal) थे, और इसीलिए इसे आमतौर पर मंडल आयोग (Mandal Commission) के नाम से जाना जाता है।
  • आयोग का कार्य: इसका कार्य भारत में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBCs) की पहचान करना और उनकी उन्नति के लिए उपाय सुझाना था।
  • आयोग की रिपोर्ट और सिफारिशें (Report and Recommendations):आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें कई सिफारिशें थीं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश थी सरकारी नौकरियों में SEBCs के लिए 27% आरक्षण।

(iii) सिफारिशों का लागू होना (The Implementation)

कई वर्षों तक, यह रिपोर्ट और इसकी सिफारिशें चर्चा का विषय बनी रहीं, लेकिन किसी भी सरकार ने इन्हें लागू नहीं किया। फिर 1989 के लोकसभा चुनाव आए। जनता दल (Janata Dal) ने अपने चुनावी घोषणापत्र (Election Manifesto) में वादा किया कि यदि वह सत्ता में आई, तो वह मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करेगी।

चुनाव के बाद, जनता दल ने राष्ट्रीय मोर्चा (National Front) नामक एक गठबंधन सरकार बनाई और श्री वी. पी. सिंह (V. P. Singh) प्रधानमंत्री बने।

  1. नई सरकार ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से मंडल रिपोर्ट को लागू करने की अपनी मंशा की घोषणा की।
  2. 6 अगस्त, 1990 को, केंद्रीय कैबिनेट (Cabinet) की एक बैठक में इस बारे में एक औपचारिक निर्णय लिया गया।
  3. अगले दिन, प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) को इस निर्णय के बारे में सूचित किया।
  4. कैबिनेट के फैसले को कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग को भेज दिया गया, जिसने इस पर एक विस्तृत आदेश तैयार किया और वरिष्ठ अधिकारी के हस्ताक्षर के साथ इसे 13 अगस्त, 1990 को जारी कर दिया।

(iv) विवाद और समाधान (The Controversy and Resolution)

जैसे ही यह आदेश जारी हुआ, देश भर में एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया। इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में हिंसक प्रदर्शन हुए। कुछ लोगों का मानना था कि यह आरक्षण समानता के अधिकार के खिलाफ है और इससे योग्यता (Merit) की अनदेखी होगी। वहीं, पिछड़े वर्गों के समर्थकों का मानना था कि यह सामाजिक न्याय (Social Justice) के लिए एक आवश्यक कदम है।

  • न्यायपालिका की भूमिका (Role of the Judiciary):यह विवाद अंततः देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था – न्यायपालिका (Judiciary) के पास पहुँचा। कई लोगों और संघों ने इस सरकारी आदेश के खिलाफ अदालतों में मुकदमा दायर किया। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने इन सभी मुकदमों को एक साथ जोड़ दिया। इस मामले को “इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ मामला” (Indira Sawhney & others vs. Union of India case) के नाम से जाना जाता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (The Verdict of the Supreme Court):ग्यारह सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनीं और 1992 में बहुमत से अपना फैसला सुनाया।
    1. उन्होंने सरकार के 27% आरक्षण के फैसले को संवैधानिक रूप से वैध (Constitutionally Valid) ठहराया।
    2. लेकिन, साथ ही उन्होंने सरकार से अपने मूल आदेश में कुछ संशोधन करने को कहा। उन्होंने कहा कि पिछड़े वर्गों के “संपन्न तबके” (Creamy Layer) को इस आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए।

इसके बाद, सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को स्वीकार करते हुए एक नया कार्यालय ज्ञापन जारी किया, और इस तरह यह विवाद समाप्त हुआ।

इस उदाहरण से सबक:

यह कहानी हमें दिखाती है कि एक बड़ा नीतिगत निर्णय कई संस्थाओं से होकर गुजरता है:

  • कार्यपालिका (Executive): प्रधानमंत्री और कैबिनेट ने आरक्षण को लागू करने का अंतिम निर्णय लिया।
  • विधायिका (Legislature): इस निर्णय की घोषणा संसद में की गई और इस पर चर्चा हुई।
  • न्यायपालिका (Judiciary): इसने आदेश की वैधता की जाँच की और विवाद का समाधान किया।

2. राजनीतिक संस्थाओं की आवश्यकता (Need for Political Institutions)

जैसा कि हमने मंडल आयोग के उदाहरण में देखा, एक आधुनिक लोकतंत्र में शासन का कार्य करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की आवश्यकता होती है। इन संस्थाओं के मुख्य कार्य हैं:

  • नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और उन्हें शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ प्रदान करना।
  • कर (Taxes) इकट्ठा करना और उसे सेना, पुलिस, और विकास कार्यक्रमों पर खर्च करना।
  • विभिन्न कल्याणकारी योजनाएँ बनाना और उन्हें लागू करना।

इन सभी कार्यों को करने के लिए, संविधान में प्रत्येक संस्था की शक्तियों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।

3. संसद (Parliament) – विधायिका (The Legislature)

भारत में, निर्वाचित प्रतिनिधियों की राष्ट्रीय सभा को संसद (Parliament) कहा जाता है। यह विधायिका (Legislature) का सर्वोच्च अंग है।

(i) हमें संसद की आवश्यकता क्यों है? (Why do we need a Parliament?)

किसी भी लोकतंत्र में संसद के पास अपार शक्तियाँ होती हैं क्योंकि यह सीधे जनता का प्रतिनिधित्व करती है। इसके मुख्य कार्य हैं:

  1. कानून बनाना: संसद देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है। यह नए कानून बना सकती है, पुराने कानूनों को बदल सकती है, या उन्हें समाप्त कर सकती है।
  2. सरकार पर नियंत्रण: संसद सरकार (यानी कार्यपालिका) को नियंत्रित करती है। भारत में, सरकार तभी तक सत्ता में रह सकती है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत (Majority) का समर्थन प्राप्त हो। संसद प्रश्नकाल (Question Hour), अविश्वास प्रस्ताव (No-Confidence Motion) जैसे विभिन्न तरीकों से सरकार पर नियंत्रण रखती है।
  3. वित्तीय नियंत्रण: सरकार के सभी खर्चों और करों पर संसद का नियंत्रण होता है। सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट (Budget) को संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना आवश्यक है।
  4. सार्वजनिक बहस का मंच: संसद देश के किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस और चर्चा के लिए सर्वोच्च मंच है।

(ii) संसद के दो सदन (Two Houses of Parliament)

भारतीय संसद के दो सदन हैं:

  1. लोकसभा (Lok Sabha – House of the People)
  2. राज्यसभा (Rajya Sabha – Council of States)
  • लोकसभा (Lok Sabha):
    • चुनाव: इसके सदस्यों का चुनाव सीधे भारत की जनता द्वारा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) के माध्यम से किया जाता है।
    • कार्यकाल: इसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
    • सदस्य संख्या: इसमें अधिकतम 552 सदस्य हो सकते हैं। वर्तमान में, 543 सदस्य सीधे चुने जाते हैं।
    • शक्तियाँ: लोकसभा को ‘निचला सदन’ कहा जाता है, लेकिन यह राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है।
      • किसी भी सामान्य कानून को दोनों सदनों द्वारा पारित किया जाना आवश्यक है, लेकिन यदि दोनों के बीच कोई मतभेद होता है, तो एक संयुक्त सत्र (Joint Session) बुलाया जाता है, जिसमें लोकसभा के सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण उसी का विचार प्रबल होता है।
      • धन विधेयक (Money Bill) केवल लोकसभा में ही पेश किया जा सकता है।
      • सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) केवल लोकसभा के प्रति ही उत्तरदायी होती है। यदि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव (No-Confidence Motion) पारित कर देती है, तो प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार को इस्तीफा देना पड़ता है।
  • राज्यसभा (Rajya Sabha):
    • चुनाव: इसके सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों (MLAs) द्वारा किया जाता है। यह भारत के राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।
    • कार्यकाल: यह एक स्थायी सदन (Permanent House) है जो कभी भंग नहीं होता। इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है, और हर दो साल में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त (Retire) हो जाते हैं।
    • सदस्य संख्या: इसमें अधिकतम 250 सदस्य हो सकते हैं। इनमें से 238 सदस्य चुने जाते हैं और 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत (Nominated) किया जाता है, जो साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे क्षेत्रों से होते हैं।
    • शक्तियाँ: राज्यसभा को ‘ऊपरी सदन’ कहा जाता है। इसकी शक्तियाँ लोकसभा से कम हैं, लेकिन राज्यों से संबंधित मामलों पर इसकी विशेष शक्तियाँ हैं।

4. कार्यपालिका (The Executive)

सरकार का वह अंग जो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों और नीतियों को लागू करता है, कार्यपालिका (Executive) कहलाता है।

(i) राजनीतिक बनाम स्थायी कार्यपालिका (Political vs. Permanent Executive)

कार्यपालिका दो प्रकार की होती है:

  1. राजनीतिक कार्यपालिका (Political Executive): इसमें वे नेता शामिल होते हैं जिन्हें जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए चुना जाता है, जैसे प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद। वे बड़े नीतिगत निर्णय लेते हैं। वे जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं, इसलिए वे अधिक शक्तिशाली होते हैं।
  2. स्थायी कार्यपालिका (Permanent Executive): इसमें लंबे समय के लिए नियुक्त सरकारी अधिकारी शामिल होते हैं, जिन्हें नौकरशाह (Bureaucrats) या सिविल सेवक (Civil Servants) कहा जाता है। वे प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से चुने जाते हैं और सरकारें बदलने पर भी अपने पद पर बने रहते हैं। उनका काम राजनीतिक कार्यपालिका द्वारा लिए गए निर्णयों को लागू करना होता है।

(ii) प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद (Prime Minister and Council of Ministers)

  • प्रधानमंत्री (Prime Minister – PM):प्रधानमंत्री भारत की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक संस्था है। वह सरकार का प्रमुख होता है। राष्ट्रपति, लोकसभा में बहुमत वाली पार्टी या गठबंधन (Coalition) के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है।
    • प्रधानमंत्री की शक्तियाँ (Powers of the PM):
      • वह कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
      • वह विभिन्न मंत्रालयों के काम में समन्वय (Coordination) स्थापित करता है।
      • वह मंत्रियों को मंत्रालय आवंटित करता है और उनके काम का वितरण करता है।
      • उसे किसी भी मंत्री को बर्खास्त करने का अधिकार है।
      • जब प्रधानमंत्री इस्तीफा देता है, तो पूरी मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना पड़ता है।
  • मंत्रिपरिषद (Council of Ministers):यह सभी मंत्रियों का आधिकारिक निकाय है। इसमें आमतौर पर 60 से 80 मंत्री होते हैं, जिन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है:
    1. कैबिनेट मंत्री (Cabinet Ministers): ये सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेता होते हैं और प्रमुख मंत्रालयों के प्रभारी होते हैं। कैबिनेट, मंत्रिपरिषद का “आंतरिक चक्र” (Inner Ring) है और अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णय यहीं लिए जाते हैं।
    2. राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) (Ministers of State with Independent Charge): ये छोटे मंत्रालयों के प्रभारी होते हैं।
    3. राज्य मंत्री (Ministers of State): ये कैबिनेट मंत्रियों की सहायता के लिए उनसे जुड़े होते हैं।
    मंत्रिपरिषद सामूहिक जिम्मेदारी (Collective Responsibility) के सिद्धांत पर काम करती है। इसका मतलब है कि यदि सरकार का कोई एक फैसला संसद में गिर जाता है, तो यह पूरी सरकार की विफलता मानी जाती है और सभी मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ता है।

(iii) राष्ट्रपति (The President)

जहाँ प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख (Head of the Government) होता है, वहीं राष्ट्रपति राष्ट्राध्यक्ष (Head of the State) होता है। भारत में राष्ट्रपति की भूमिका काफी हद तक औपचारिक (Ceremonial) होती है, जैसे ब्रिटेन की महारानी की।

  • चुनाव: राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा नहीं किया जाता है। उसे संसद के सदस्यों (MPs) और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों (MLAs) द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।
  • शक्तियाँ: देश के सभी प्रमुख कार्य राष्ट्रपति के नाम पर ही किए जाते हैं। सभी कानून और सरकार के प्रमुख नीतिगत फैसले उसी के नाम से जारी होते हैं। वह प्रधानमंत्री, मंत्रियों, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, राज्यपालों और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करता है।
  • शक्तियों की सीमा: राष्ट्रपति अपनी इन शक्तियों का प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद की सलाह (Advice of the Council of Ministers) पर ही कर सकता है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से अपने किसी निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है, लेकिन यदि वही सलाह दोबारा दी जाती है, तो वह उसे मानने के लिए बाध्य होता है।
  • विवेकाधीन शक्ति (Discretionary Power): राष्ट्रपति अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग तब करता है जब लोकसभा में किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में, वह अपने विवेक से ऐसे नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है जो लोकसभा में बहुमत साबित कर सके।

5. न्यायपालिका (The Judiciary)

भारत में एक एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका है, जो लोकतंत्र की रक्षा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

(i) एक स्वतंत्र न्यायपालिका (An Independent Judiciary)

‘स्वतंत्र न्यायपालिका’ का अर्थ है कि यह विधायिका या कार्यपालिका के नियंत्रण में नहीं है। न्यायाधीश बिना किसी डर या पक्षपात के अपना काम कर सकते हैं।

  • स्वतंत्रता कैसे सुनिश्चित की जाती है?:
    • न्यायाधीशों की नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप न्यूनतम होता है।
    • एक बार नियुक्त होने के बाद, किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाना लगभग असंभव है। उन्हें केवल महाभियोग (Impeachment) की एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है।
    • न्यायपालिका के वेतन और भत्ते सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होते हैं।

(ii) न्यायपालिका की शक्तियाँ और कार्य (Powers and Functions of the Judiciary)

  • विवादों का समाधान: न्यायपालिका देश के नागरिकों के बीच, नागरिकों और सरकार के बीच, और विभिन्न राज्य सरकारों के बीच होने वाले विवादों का निपटारा करती है।
  • न्यायिक समीक्षा (Judicial Review): यह न्यायपालिका की सबसे महत्वपूर्ण शक्तियों में से एक है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय, संसद द्वारा पारित किसी भी कानून या कार्यपालिका की किसी भी कार्रवाई को असंवैधानिक (Unconstitutional) घोषित कर सकते हैं, यदि वे पाते हैं कि यह संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है।
  • मौलिक अधिकारों का संरक्षक (Guardian of Fundamental Rights): भारत का कोई भी नागरिक, जिसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, सीधे अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। अदालतें इन अधिकारों की रक्षा के लिए आदेश जारी कर सकती हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)

इस अध्याय से यह स्पष्ट होता है कि एक लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव जीतना और सरकार बनाना नहीं है। एक सफल लोकतंत्र के लिए, शक्तिशाली और स्वतंत्र संस्थाओं का एक ढाँचा आवश्यक है जो संविधान द्वारा निर्धारित नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार काम करें।

  • विधायिका (संसद) कानून बनाती है और जनता की आवाज का प्रतिनिधित्व करती है।
  • कार्यपालिका (प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद) उन कानूनों को लागू करती है और देश का प्रशासन चलाती है।
  • न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है और यह सुनिश्चित करती है कि सब कुछ संविधान के दायरे में हो।

इन तीनों संस्थाओं के बीच शक्तियों का संतुलन (Balance of Power) और नियंत्रण (Checks and Balances) ही भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी एक संस्था निरंकुश न हो और सरकार हमेशा देश और उसके नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनी रहे।

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