कक्षा 9आधुनिक विश्व में चरवाहे : MP board Class 9 Pastoralists in the Modern World

MP board Class 9 Pastoralists in the Modern World : कक्षा 9 के छात्रों के लिए उनकी परीक्षा की तैयारी हेतु “आधुनिक विश्व में चरवाहे” पर यह एक विस्तृत और संपूर्ण नोट्स है। इसमें महत्वपूर्ण अंग्रेजी शब्दों के साथ उचित शीर्षक और उप-शीर्षक का उपयोग किया गया है।

अध्याय 5: आधुनिक विश्व में चरवाहे (Pastoralists in the Modern World)

भूमिका (Introduction)

जब हम एक गाँव की कल्पना करते हैं, तो हमारे मन में अक्सर किसानों की तस्वीर उभरती है जो खेतों में हल चलाते हैं। लेकिन इतिहास केवल किसानों का नहीं है; यह उन लाखों लोगों का भी है जो अपनी आजीविका के लिए पशुपालन पर निर्भर थे – ये चरवाहे (Pastoralists) थे। ये लोग दूध, मांस, ऊन और खाल बेचकर अपना जीवनयापन करते थे। इनमें से कई समुदाय घुमंतू (Nomadic) थे, यानी वे एक स्थान पर टिककर नहीं रहते थे, बल्कि अपने जानवरों के झुंड के साथ चारे-पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। उनका जीवन मौसम और चरागाहों की उपलब्धता के चक्र पर आधारित था।

यह अध्याय हमें भारत और अफ्रीका के चरवाहा समुदायों की दुनिया में ले जाता है। हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि उनका जीवन कैसा था, वे अपने झुंडों के साथ कैसे घूमते थे, और आधुनिक दुनिया, विशेष रूप से औपनिवेशिक शासन (Colonial Rule) ने उनके जीवन को किस तरह हमेशा के लिए बदल दिया। यह कहानी अनुकूलन (Adaptation), संघर्ष (Struggle) और अस्तित्व (Survival) की है।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

1. भारत में चरवाहा समुदाय (Pastoralist Communities in India)

भारत विविध चरवाहा समुदायों का घर रहा है, जो पहाड़ों से लेकर पठारों और रेगिस्तानों तक फैले हुए हैं। उनका जीवन और उनके मौसमी आवागमन का चक्र उस क्षेत्र की भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों के अनुसार तय होता था।

(i) पहाड़ों में चरवाहे (Pastoralists in the Mountains)

  • जम्मू और कश्मीर के गुज्जर-बकरवाल (Gujjar Bakarwals of Jammu & Kashmir):
    • गुज्जर-बकरवाल समुदाय भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े झुंड पालते हैं। वे जम्मू और कश्मीर के पहाड़ों में रहते हैं और चरागाहों की तलाश में मौसम के अनुसार अपना स्थान बदलते रहते हैं।
    • सर्दियों में (In Winters): जब ऊँचे पहाड़ बर्फ से ढक जाते हैं, तो वे शिवालिक (Shivalik) की निचली पहाड़ियों में आ जाते हैं। यहाँ के सूखे, झाड़ीदार जंगल उनके जानवरों के लिए चारागाह का काम करते हैं।
    • गर्मियों में (In Summers): अप्रैल के अंत तक, जैसे ही बर्फ पिघलने लगती है और पहाड़ों में हरियाली छा जाती है, वे उत्तर की ओर अपनी गर्मियों की यात्रा शुरू कर देते हैं। इस यात्रा को ‘काफिला’ (Kafila) कहा जाता है। वे पीर पंजाल (Pir Panjal) के दर्रों को पार करते हुए कश्मीर घाटी में पहुँचते हैं। यहाँ के हरे-भरे घास के मैदान, जिन्हें ‘बुग्याल’ (Bugyal) कहा जाता है, उनके जानवरों के लिए पौष्टिक चारा प्रदान करते हैं।
    • वापसी (The Return Journey): सितंबर के अंत तक, जब पहाड़ों पर फिर से बर्फ जमने लगती है, तो वे वापस अपने सर्दियों के ठिकानों की ओर चल पड़ते हैं। उनका यह मौसमी चक्र पहाड़ों की पारिस्थितिकी (Ecology) के साथ एक आदर्श तालमेल का उदाहरण है।
  • हिमाचल प्रदेश के गद्दी (Gaddis of Himachal Pradesh):
    • गद्दी समुदाय भी गुज्जर-बकरवालों की तरह एक प्रमुख चरवाहा समुदाय है, जो भेड़-बकरियाँ पालते हैं। उनका भी मौसमी आवागमन का चक्र लगभग वैसा ही है।
    • सर्दियों में वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में अपने झुंडों को चराते हैं।
    • अप्रैल तक, वे उत्तर की ओर चल पड़ते हैं और गर्मियों को लाहौल और स्पीति (Lahaul and Spiti) में बिताते हैं।
    • जब बर्फ पिघलती है और ऊँचे दर्रे खुल जाते हैं, तो वे और ऊँचे पहाड़ी घास के मैदानों में चले जाते हैं।
    • सितंबर तक, वे अपनी वापसी की यात्रा शुरू कर देते हैं। रास्ते में, वे लाहौल और स्पीति के गाँवों में रुककर अपनी गर्मियों की फसल काटते हैं और सर्दियों की फसल बोते हैं। वापसी में, वे मैदानी इलाकों के किसानों के खेतों में भी अपने जानवरों को चराते हैं। इससे किसानों को फायदा होता है क्योंकि जानवरों के गोबर से उनके खेतों को खाद (मैन्योर – Manure) मिल जाती है।
  • गढ़वाल और कुमाऊँ के अन्य समुदाय (Other Communities of Garhwal and Kumaon):
    • इन क्षेत्रों में गुज्जर, भोटिया, शेरपा और किन्नौरी जैसे कई अन्य चरवाहा समुदाय रहते हैं। उनका जीवन भी मौसम के उतार-चढ़ाव से बंधा होता है। वे भी गर्मियों में ऊँचाई पर स्थित बुग्यालों में चले जाते हैं और सर्दियों में भाबर के सूखे जंगलों (Dry forests of the Bhabar) की ओर लौट आते हैं।

(ii) पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में चरवाहे (Pastoralists in Plateaus, Plains, and Deserts)

  • महाराष्ट्र के धनगर (Dhangars of Maharashtra):
    • धनगर महाराष्ट्र का एक महत्वपूर्ण चरवाहा समुदाय है। उनकी आबादी लगभग 4-5 लाख है। वे मुख्य रूप से भेड़ें चराते हैं और कंबल बुनते हैं।
    • मानसून में (During Monsoon): वे महाराष्ट्र के मध्य पठार (Central Plateau) के अर्ध-शुष्क (Semi-arid) क्षेत्र में रहते हैं। यहाँ वे बाजरा जैसी फसलें उगाते हैं।
    • अक्टूबर के बाद (After October): जब मानसून समाप्त हो जाता है और चरागाह सूख जाते हैं, तो वे पश्चिम की ओर कोंकण (Konkan) के तटीय क्षेत्र की ओर चले जाते हैं।
    • कोंकण में प्रवास (Stay in Konkan): कोंकण के किसान उनका खुशी से स्वागत करते हैं। धनगरों के झुंड फसल कटने के बाद खेतों में बची हुई खूंटी (स्टबल – Stubble) को खाते हैं और खेतों को खाद प्रदान करते हैं। बदले में, कोंकणी किसान उन्हें चावल देते हैं, जिसे वे वापस अपने पठारी इलाकों में ले जाते हैं।
    • वापसी: मानसून की शुरुआत से पहले, वे कोंकण छोड़कर वापस अपने पठारी घरों की ओर लौट आते हैं। यह किसानों और चरवाहों के बीच एक आदर्श सहजीवी संबंध (Symbiotic Relationship) का उदाहरण है।
  • कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के समुदाय (Communities of Karnataka and Andhra Pradesh):
    • इन राज्यों में गोल्ला (Gollas) मवेशी पालते थे, जबकि कुरुमा (Kurumas) और कुरुबा (Kurubas) भेड़-बकरियाँ पालते थे और हाथ से बने कंबल बेचते थे।
    • उनका जीवन भी मौसम के चक्र से निर्धारित होता था। सूखे महीनों में वे तटीय इलाकों की ओर चले जाते थे, और बारिश शुरू होने पर वापस पठारों पर लौट आते थे।
  • राजस्थान के राइका (Raikas of Rajasthan):
    • राइका समुदाय राजस्थान के थार रेगिस्तान (Thar Desert) में रहता है, जहाँ बारिश बहुत अनिश्चित होती है।
    • वे खेती और पशुपालन दोनों करते हैं। एक समूह, जिसे मारू राइका (Maru Raikas) कहते हैं, ऊँट पालता है, जबकि दूसरा समूह भेड़-बकरियाँ पालता है।
    • मानसून में: वे बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के अपने गाँवों में रहते हैं, क्योंकि इस दौरान उन्हें वहीं चारा मिल जाता है।
    • अक्टूबर तक: जब चरागाह सूख जाते हैं, तो वे नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों में निकल जाते हैं और अगली बारिश में ही वापस लौटते हैं।

2. औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन (Colonial Rule and the Life of Pastoralists)

ब्रिटिश शासन के तहत, भारत के चरवाहों का जीवन नाटकीय रूप से बदल गया। उनकी आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिए गए, उनके चरागाह सिकुड़ गए, और उन पर भारी करों का बोझ डाल दिया गया। औपनिवेशिक सरकार ने कई ऐसे कानून बनाए जिन्होंने उनकी पारंपरिक जीवन शैली को नष्ट कर दिया।

(i) चरागाहों का कृषि भूमि में परिवर्तन (Pastures turned into Cultivated Land)

औपनिवेशिक अधिकारी गैर-खेतिहर भूमि को “बंजर भूमि” (Waste Land) मानते थे, जो अनुत्पादक (Unproductive) थी और जिससे कोई राजस्व (Revenue) नहीं मिलता था। इसलिए, उन्होंने “बंजर भूमि नियम” (Wasteland Rules) पारित किए और इन जमीनों को कुछ चुनिंदा लोगों को सौंप दिया, जिन्होंने इन पर खेती शुरू कर दी।

  • प्रभाव (Impact): इस नीति के कारण, चरवाहों के लिए उपलब्ध चरागाहों का क्षेत्र तेजी से सिकुड़ गया। उनके जानवरों के लिए चारा मिलना मुश्किल हो गया।

(ii) वन अधिनियमों का प्रभाव (The Impact of Forest Acts)

19वीं सदी के मध्य में, औपनिवेशिक सरकार ने कई वन अधिनियम (Forest Acts) पारित किए। इन कानूनों के तहत, देवदार और साल जैसे व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ों वाले कई जंगलों को ‘आरक्षित वन’ (Reserved Forests) घोषित कर दिया गया।

  • प्रभाव (Impact): इन आरक्षित वनों में चरवाहों का प्रवेश पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। जिन जंगलों में उन्हें प्रवेश की अनुमति थी, वहाँ भी उनकी गतिविधियों को एक परमिट (Permit) प्रणाली के माध्यम से सख्ती से नियंत्रित किया जाता था। उन्हें यह बताना पड़ता था कि वे जंगल में कब प्रवेश करेंगे और कब बाहर निकलेंगे। इन नियमों ने चरवाहों के मौसमी आवागमन के पारंपरिक चक्र को पूरी तरह से बाधित कर दिया।

(iii) अपराधी जनजाति अधिनियम (The Criminal Tribes Act)

औपनिवेशिक अधिकारी घुमंतू समुदायों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उन्हें लगता था कि ये लोग अपराध की प्रवृत्ति वाले हैं और उन पर नियंत्रण करना मुश्किल है।

  • अधिनियम (The Act): 1871 में, ब्रिटिश सरकार ने ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ (Criminal Tribes Act) पारित किया। इस कानून के तहत, कई चरवाहा और अन्य घुमंतू समुदायों को जन्म से ही “आपराधिक” घोषित कर दिया गया।
  • प्रभाव (Impact): इन समुदायों को कुछ अधिसूचित गाँवों (नोटिफाइड विलेज – Notified Villages) में बसने के लिए मजबूर किया गया। उन्हें बिना परमिट के बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, और पुलिस उन पर लगातार नजर रखती थी। यह कानून उनकी स्वतंत्रता और सम्मान पर एक क्रूर हमला था।

(iv) चराई कर (The Grazing Tax)

अंग्रेज अपनी आय बढ़ाने के लिए हर संभव स्रोत से कर वसूलना चाहते थे।

  • नीति (Policy): उन्होंने चरागाहों में चरने वाले प्रत्येक जानवर पर चराई कर (Grazing Tax) लगा दिया। यह कर प्रति पशु लिया जाता था।
  • क्रियान्वयन (Implementation): कर वसूलने का अधिकार निजी ठेकेदारों (कॉन्ट्रैक्टर्स – Contractors) को नीलाम कर दिया जाता था। ये ठेकेदार चरवाहों से अधिक से अधिक कर वसूलने की कोशिश करते थे, जिससे चरवाहों पर आर्थिक बोझ बहुत बढ़ गया।

(v) इन परिवर्तनों के परिणाम (Consequences of these Changes)

उपरोक्त सभी नीतियों का चरवाहों के जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा:

  1. चरागाहों की कमी: चरागाहों के सिकुड़ने से जानवरों के लिए चारा मिलना मुश्किल हो गया।
  2. पशुओं की मृत्यु: अकाल और सूखे के समय, चरवाहे अपने जानवरों को उन जगहों पर नहीं ले जा सकते थे जहाँ चारा उपलब्ध हो, जिससे बड़ी संख्या में उनके पशुओं की मृत्यु हो जाती थी।
  3. जीवन शैली में परिवर्तन: कई चरवाहों को अपने जानवरों की संख्या कम करनी पड़ी। कुछ ने अपनी आवाजाही का मार्ग बदल लिया, जबकि कई ने पशुपालन छोड़कर खेती या मजदूरी करना शुरू कर दिया।
  4. कर्ज का बोझ: कई गरीब चरवाहों को जीवित रहने के लिए साहूकारों (Moneylenders) से कर्ज लेना पड़ा, और वे कर्ज के दुष्चक्र में फँस गए।

3. अफ्रीका में चरवाहा जीवन (Pastoral Life in Africa)

अफ्रीका दुनिया की सबसे बड़ी चरवाहा आबादी का घर है। यहाँ बेदुइन्स (Bedouins), बर्बर्स (Berbers), सोमाली (Somali), बोरान (Boran), तुर्काना (Turkana) और मासाई (Maasai) जैसे कई प्रसिद्ध चरवाहा समुदाय रहते हैं। भारत की तरह ही, अफ्रीका में भी औपनिवेशिक शासन ने उनके जीवन को गहराई से प्रभावित किया।

केस स्टडी: मासाई समुदाय (Case Study: The Maasai)

मासाई पूर्वी अफ्रीका के सबसे प्रसिद्ध चरवाहा समुदायों में से एक हैं, जो मुख्य रूप से मवेशी पालते हैं।

  • उपनिवेश-पूर्व मासाई समाज (Pre-colonial Maasai Society):
    • औपनिवेशिक शासन से पहले, मासाईलैंड (Maasailand) उत्तरी केन्या से लेकर उत्तरी तंजानिया के मैदानों तक एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ था।
    • उनका समाज दो मुख्य सामाजिक श्रेणियों में विभाजित था: एल्डर्स (Elders – वरिष्ठ जन), जो निर्णय लेते थे, और वॉरियर्स (Warriors – योद्धा), जो समुदाय की रक्षा करते थे और मवेशियों के लिए छापे मारते थे। धन का माप मवेशियों की संख्या से होता था।
  • औपनिवेशिक शासन का प्रभाव (Impact of Colonial Rule):
    • चरागाहों का छिनना (Loss of Grazing Lands):
      • 19वीं सदी के अंत में, यूरोपीय शक्तियों ने अफ्रीका का बँटवारा कर दिया। मासाईलैंड को ब्रिटिश केन्या (British Kenya) और जर्मन तांगानिका (German Tanganyika) (जो बाद में तंजानिया बना) के बीच एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर दो हिस्सों में बाँट दिया गया।
      • सबसे अच्छे और हरे-भरे चरागाहों को गोरे बसने वालों (White Settlers) के लिए आरक्षित कर दिया गया। मासाइयों को दक्षिणी केन्या और उत्तरी तंजानिया के एक छोटे, शुष्क और चट्टानी क्षेत्र में धकेल दिया गया।
      • मासाइयों ने अपने उपनिवेश-पूर्व के लगभग 60% चरागाह खो दिए। मासाई मारा (Maasai Mara) और सेरेनगेटी नेशनल पार्क (Serengeti National Park) जैसे प्रसिद्ध वन्यजीव अभयारण्य भी उनके पारंपरिक चरागाहों पर ही बनाए गए थे।
    • सीमाओं का बंद होना (The Closing of Borders):
      • औपनिवेशिक सरकारों ने उनकी आवाजाही पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए। अब वे स्वतंत्र रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते थे।
    • सूखे का प्रभाव (The Impact of Droughts):
      • चरागाहों की कमी और आवाजाही पर प्रतिबंधों ने उन्हें सूखे के प्रति अत्यंत संवेदनशील बना दिया। जब भी सूखा पड़ता, बड़ी संख्या में उनके मवेशी भूख और प्यास से मर जाते थे। उदाहरण के लिए, 1930 के सूखे में केन्या के मासाई रिजर्व में आधे से अधिक मवेशी मारे गए।
    • सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव (Impact of Social Changes):
      • अंग्रेजों ने मासाई समुदाय के विभिन्न उप-समूहों के मुखिया (Chiefs) नियुक्त कर दिए। इन मुखियों को औपनिवेशिक सरकार के प्रति जवाबदेह बनाया गया। इससे एल्डर्स और वॉरियर्स दोनों का पारंपरिक अधिकार कमजोर हो गया।

निष्कर्ष (Conclusion)

आधुनिक विश्व, विशेष रूप से औपनिवेशिक शासन ने, भारत और अफ्रीका दोनों में चरवाहा समुदायों के जीवन पर गहरा और नकारात्मक प्रभाव डाला। औपनिवेशिक सरकारें घुमंतू जीवन शैली को आदिम और अविकसित मानती थीं। उन्होंने इन समुदायों को बसाने, उनकी आवाजाही को नियंत्रित करने और उनकी भूमि को अपने आर्थिक लाभ के लिए उपयोग करने की कोशिश की।

इन नीतियों के परिणामस्वरूप चरवाहों ने अपने चरागाह खो दिए, उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई, और उनकी पारंपरिक जीवन शैली और सामाजिक संरचनाएँ नष्ट हो गईं। हालांकि, इन विनाशकारी परिवर्तनों के बावजूद, कई चरवाहा समुदायों ने हार नहीं मानी। उन्होंने नई परिस्थितियों के अनुकूल खुद को ढाला – उन्होंने अपने आवागमन के रास्ते बदल दिए, अपने झुंडों का आकार कम कर दिया, और पशुपालन के साथ-साथ व्यापार और परिवहन जैसे अन्य काम भी करने लगे। उनका अस्तित्व आज भी उनकी सहनशीलता (Resilience) और अनुकूलन क्षमता का प्रमाण है। वे हमें याद दिलाते हैं कि आधुनिक दुनिया के विकास की कहानी में कुछ समुदायों को भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

Leave a Comment