MP Board Class 9 Hindi Upbhoktavad Ki sanskriti : इस निबंध में लेखक श्यामाचरण दुबे ने भारत में तेजी से फैल रही उपभोक्तावाद की संस्कृति पर गहरा कटाक्ष किया है। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि कैसे बाजार की चमक-दमक और विज्ञापनों का जाल हमें अपनी ओर खींच रहा है और हमारी जीवनशैली, सोच तथा संस्कृति को प्रभावित कर रहा है।
कक्षा 9वीं हिंदी: उपभोक्तावाद की संस्कृति
1. लेखक परिचय
- नाम: श्यामाचरण दुबे (Shyamacharan Dubey)
- जन्म: सन् 1922
- निधन: सन् 1996
- परिचय: श्यामाचरण दुबे जी हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री और संस्कृतिविद् थे। उन्होंने भारतीय समाज और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से चिंतन किया और उनके विश्लेषण को अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया। उनकी लेखन शैली सरल, स्पष्ट और विचारोत्तेजक थी, जो पाठक को सोचने पर विवश करती थी।
- प्रमुख कृतियाँ:
- ‘मानव और संस्कृति’
- ‘परंपरा और इतिहास बोध’
- ‘संस्कृति तथा शिक्षा’
- ‘समाज और भविष्य’
- ‘भारतीय ग्राम’
- ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ आदि।
2. पाठ परिचय
- विधा: यह पाठ एक निबंध है।
- विषय-वस्तु: इस निबंध में लेखक श्यामाचरण दुबे ने भारत में तेजी से फैल रही उपभोक्तावाद की संस्कृति पर गहरा कटाक्ष किया है। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया है कि कैसे बाजार की चमक-दमक और विज्ञापनों का जाल हमें अपनी ओर खींच रहा है और हमारी जीवनशैली, सोच तथा संस्कृति को प्रभावित कर रहा है। लेखक ने उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव और उसके गंभीर नकारात्मक परिणामों को विस्तार से उजागर किया है। यह निबंध हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हम सचमुच अपनी आवश्यकताओं के लिए जी रहे हैं या बाजार द्वारा थोपी गई चीज़ों के गुलाम बन रहे हैं।
3. पाठ का सार / मुख्य बिंदु
लेखक ने इस निबंध में उपभोक्तावादी संस्कृति के विभिन्न पहलुओं और उसके समाज पर पड़ रहे प्रभावों को समझाया है:
क. उपभोक्तावाद का अर्थ और उसका विस्तार:
- लेखक का कहना है कि आज का युग उपभोक्तावाद का युग है। उपभोक्तावाद एक ऐसी जीवनशैली है जहाँ व्यक्ति की इच्छाएँ और ज़रूरतें उपभोग (खर्च करने) पर केंद्रित हो जाती हैं।
- लोग अपनी आवश्यकता के बजाय ‘दिखावे’ और ‘प्रतिष्ठा’ के लिए चीजें खरीदते हैं।
- यह संस्कृति पहले विदेशों में थी, फिर शहरों में आई और अब धीरे-धीरे छोटे कस्बों और गाँवों तक भी फैल रही है। लोग उपभोग को ही सुख समझने लगे हैं।
ख. विज्ञापन की भूमिका:
- उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने में विज्ञापनों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।
- विज्ञापन हमें नए-नए उत्पादों की ओर आकर्षित करते हैं और उनकी खूबियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। वे हमारी आवश्यकताओं को बढ़ाते हैं और हमें उन चीजों को खरीदने के लिए उकसाते हैं जिनकी हमें शायद ज़रूरत भी न हो।
- आज लोग वस्तु की गुणवत्ता से अधिक उसके विज्ञापन और चमक-दमक से प्रभावित होते हैं।
ग. विलासिता की सामग्री का बोलबाला:
- बाजार में अब ऐसी चीज़ें उपलब्ध हैं जो केवल विलासिता (luxury) के लिए हैं, न कि आवश्यकताओं के लिए।
- उदाहरण के लिए, महँगे सौंदर्य प्रसाधन, टूथपेस्ट के दर्जनों ब्रांड, सुगंधित साबुन, ब्रांडेड कपड़े, आधुनिक गैजेट्स (जैसे मोबाइल फोन, कंप्यूटर), संगीत प्रणालियाँ, पाँच-सितारा होटल, स्वास्थ्य केंद्र और शिक्षण संस्थान भी अब ‘उत्पाद’ बन गए हैं।
- लोग इन चीज़ों को अपनी सामाजिक पहचान और प्रतिष्ठा बनाने के लिए खरीदते हैं।
घ. दैनिक जीवन पर प्रभाव:
- सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक, हमारे जीवन का हर पहलू उपभोक्ता वस्तुओं से प्रभावित हो गया है।
- हमारा पहनावा, खान-पान, रहन-सहन – सब कुछ बाजार और विज्ञापनों के हिसाब से बदल रहा है।
- लेखक कहते हैं कि यहाँ तक कि मृत्यु के बाद के संस्कार और अंतिम संस्कार भी इस उपभोक्तावादी सोच से अछूते नहीं रहे, जहाँ लोग ‘अंतिम विश्राम’ को भी ब्रांडेड और आकर्षक बनाना चाहते हैं।
ङ. भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर प्रभाव:
- उपभोक्तावादी संस्कृति हमारी पारंपरिक भारतीय संस्कृति के मूल्यों को कमजोर कर रही है।
- सादगी, संतोष, त्याग और सहयोग जैसे मूल्यों का ह्रास हो रहा है।
- सामाजिक संबंध कमजोर पड़ रहे हैं, क्योंकि लोग भौतिक वस्तुओं को अधिक महत्व दे रहे हैं और अपनी आकांक्षाओं को बढ़ा रहे हैं।
- लोगों में लालच और स्वार्थ की भावना बढ़ रही है।
च. उपभोक्तावाद के नकारात्मक परिणाम:
- असमानता में वृद्धि: यह संस्कृति समाज में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को और बढ़ाती है। गरीब लोग भी इन वस्तुओं को पाने की होड़ में लगते हैं, जिससे वे और अधिक ऋणग्रस्त और निराश होते हैं।
- सामाजिक अशांति: दिखावे की होड़ और एक-दूसरे से आगे निकलने की चाहत समाज में तनाव, असंतोष और प्रतिस्पर्धा बढ़ाती है।
- मानसिक तनाव: लोग अपनी आय से अधिक खर्च करने की कोशिश करते हैं, जिससे वे मानसिक तनाव और चिंता का शिकार होते हैं।
- पर्यावरणीय क्षति: अत्यधिक उपभोग के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन होता है, जिससे पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुँचता है।
- नैतिक पतन: भौतिक सुखों की अंधी दौड़ में लोग नैतिक मूल्यों को भूल जाते हैं और किसी भी कीमत पर वस्तुएँ हासिल करने की कोशिश करते हैं, जिससे चरित्र का पतन होता है।
छ. लेखक का संदेश:
- लेखक श्यामाचरण दुबे उपभोक्तावादी संस्कृति को समाज के लिए एक बड़ी चुनौती और खतरा मानते हैं।
- वे हमें इस संस्कृति के प्रति सचेत और सावधान रहने की सलाह देते हैं।
- उनका संदेश है कि हमें अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करना चाहिए और केवल दिखावे के लिए वस्तुओं का उपभोग नहीं करना चाहिए।
- हमें अपनी पारंपरिक और आध्यात्मिक मूल्यों की ओर लौटना चाहिए, क्योंकि सच्चा सुख भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं, बल्कि संतोष, सादगी और मानवीय संबंधों में है।
4. कठिन शब्दार्थ
- उपभोक्तावाद: वस्तुओं का उपभोग करने की प्रवृत्ति या जीवन शैली।
- उत्पाद: कोई भी वस्तु जो बाजार में बेचने के लिए तैयार की गई हो।
- विलासिता: आरामदायक और भोग-विलास से भरा जीवन।
- चकाचौंध: चमक-दमक, तेज़ रोशनी से उत्पन्न आँखों में पड़ने वाला प्रभाव।
- अंधानुकरण: बिना सोचे-समझे किसी का अनुकरण करना।
- प्रतिष्ठा: मान-सम्मान, इज्जत।
- अपव्यय: अनावश्यक खर्च।
- असीमित: जिसकी कोई सीमा न हो।
- सामंती: सामंतों से संबंधित, जिसमें धन और शक्ति का प्रदर्शन हो।
- ह्रास: कमी आना, पतन होना।
- दासता: गुलामी, किसी पर निर्भरता।
- अवनति: गिरावट, बुराई की ओर जाना।
- परंपरा: रीति-रिवाज, पुरानी चली आ रही रीतियाँ।
- संस्कृति: जीवन-शैली, रीति-रिवाज, कला, मूल्य और विश्वासों का समूह।
5. महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर (परीक्षा की दृष्टि से)
प्रश्न 1: उपभोक्तावादी संस्कृति क्या है? यह हमारे समाज को कैसे प्रभावित कर रही है? उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति एक ऐसी जीवनशैली है जहाँ व्यक्ति आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उपभोग करता है और दिखावे व प्रतिष्ठा के लिए चीजें खरीदता है। यह संस्कृति विज्ञापनों द्वारा बढ़ावा पाती है। यह हमारे समाज को गहराई से प्रभावित कर रही है क्योंकि यह हमें भौतिक सुखों की ओर खींचती है, सादगी और संतोष जैसे मूल्यों का ह्रास करती है, सामाजिक असमानता बढ़ाती है, और अनावश्यक प्रतिस्पर्धा तथा मानसिक तनाव को जन्म देती है।
प्रश्न 2: लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति के क्या-क्या बुरे परिणाम बताए हैं? उत्तर: लेखक ने उपभोक्तावादी संस्कृति के कई बुरे परिणाम बताए हैं, जैसे: सामाजिक असमानता में वृद्धि, सामाजिक अशांति और असंतोष, लोगों में मानसिक तनाव, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन जिससे पर्यावरणीय क्षति, और नैतिक मूल्यों का पतन। यह संस्कृति हमें केवल उपभोग पर केंद्रित कर देती है, जिससे हम वास्तविक सुख और शांति से दूर हो जाते हैं।
प्रश्न 3: विज्ञापन उपभोक्तावाद को कैसे बढ़ावा देते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। उत्तर: विज्ञापन उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे उत्पादों को इतना आकर्षक और प्रतिष्ठित रूप में प्रस्तुत करते हैं कि लोग उनकी ओर खिंचे चले जाते हैं, भले ही उन्हें उनकी आवश्यकता न हो। उदाहरण के लिए, एक सामान्य टूथपेस्ट का विज्ञापन करते समय बताया जाता है कि यह दाँतों को चमकदार बनाएगा, मसूड़ों को स्वस्थ रखेगा, दुर्गंध दूर करेगा और मुँह की सुरक्षा करेगा, जबकि यह एक सामान्य उत्पाद है। इसी तरह, मोबाइल फोन या कारों के विज्ञापन उन्हें ‘स्टेटस सिंबल’ के रूप में दिखाते हैं, जिससे लोग अपनी जरूरत से ज़्यादा महँगे उत्पाद खरीदते हैं।
प्रश्न 4: भारतीय संस्कृति पर उपभोक्तावाद का क्या प्रभाव पड़ रहा है? उत्तर: उपभोक्तावादी संस्कृति भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धांतों को कमजोर कर रही है। हमारी संस्कृति सादगी, संतोष, सहिष्णुता, त्याग और मानवीय संबंधों को महत्व देती है, जबकि उपभोक्तावाद भौतिकवाद, दिखावा, स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है। इससे संयुक्त परिवार प्रणाली कमजोर हो रही है, सामाजिक संबंध तनावपूर्ण हो रहे हैं, और लोग अपनी पारंपरिक पहचान को भूलकर पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं।
“उपभोक्तावाद की संस्कृति” – पुस्तक से लिए गए महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर: लेखक श्यामाचरण दुबे के अनुसार, आज के उपभोक्तावादी युग में ‘सुख’ की परिभाषा बदल गई है। अब सुख का अभिप्राय उपभोग करने के भौतिक सुख से हो गया है। पहले सुख का अर्थ मानसिक शांति, संतोष, आपसी प्रेम और संबंधों की मधुरता से जुड़ा था। परंतु अब लोग सुख को बाजार में उपलब्ध वस्तुओं को खरीदने और उनका उपयोग करने में ही तलाशते हैं। उनके लिए सुख का अर्थ है – महँगे साबुन से नहाना, ब्रांडेड कपड़े पहनना, आधुनिक गैजेट्स का उपयोग करना, फाइव स्टार होटल में भोजन करना और दिखावे की वस्तुओं को अपने पास रखना। लेखक के अनुसार यह वास्तविक सुख नहीं, बल्कि भ्रामक सुख है, जो हमें आवश्यकताओं की अंत्री दौड़ में उलझा देता है।
2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
उत्तर: आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को निम्नलिखित प्रकार से गहराई से प्रभावित कर रही है:
- आवश्यकताओं का बढ़ना: यह संस्कृति हमारी मूल आवश्यकताओं को बढ़ाकर नई-नई इच्छाएँ पैदा करती है। विज्ञापनों के प्रभाव में आकर हम उन चीजों को भी खरीदने लगते हैं जिनकी हमें शायद ज़रूरत भी न हो।
- दिखावे की प्रवृत्ति: हमारा दैनिक जीवन ‘दिखावे’ पर आधारित हो गया है। हम चीज़ें अपनी संतुष्टि के लिए नहीं बल्कि दूसरों को प्रभावित करने या अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दर्शाने के लिए खरीदते हैं।
- बदलते उपभोग के तरीके: सुबह टूथपेस्ट, साबुन से लेकर शाम को भोजन, कपड़े और मनोरंजन तक, हर चीज़ में ब्रांड और नवीनतम मॉडल की तलाश होने लगी है। साधारण वस्तुओं की जगह महँगी और ब्रांडेड वस्तुएँ प्राथमिकता बन गई हैं।
- संबंधों में बदलाव: भौतिक वस्तुओं के प्रति बढ़ती ललक के कारण मानवीय संबंध कमजोर पड़ रहे हैं। लोग एक-दूसरे से भावनात्मक जुड़ाव के बजाय भौतिक स्थिति के आधार पर संबंध बनाने लगे हैं।
- तनाव और असंतोष: विज्ञापन हमें लगातार नई-नई चीज़ों को पाने के लिए उकसाते हैं। जब लोग अपनी आय से अधिक खर्च करने की कोशिश करते हैं या अपनी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाते, तो उनमें तनाव, चिंता और असंतोष बढ़ जाता है।
- संस्कृति पर प्रभाव: हमारी पारंपरिक सादगी, संतोष और त्याग जैसे मूल्यों का ह्रास हो रहा है। हम धीरे-धीरे पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने लगे हैं।
संक्षेप में, उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे जीने, सोचने और व्यवहार करने के तरीके को पूरी तरह बदल दिया है, जिससे हमारा दैनिक जीवन दिखावापूर्ण, तनावग्रस्त और भौतिकवादी बन गया है।
3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर: लेखक श्यामाचरण दुबे ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए एक बड़ी चुनौती इसलिए कहा है, क्योंकि यह संस्कृति कई गंभीर समस्याओं को जन्म दे रही है जो हमारे समाज के ताने-बाने को कमजोर कर रही हैं:
- सामाजिक असमानता में वृद्धि: यह अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को और बढ़ाती है। गरीब लोग भी इन महँगी वस्तुओं को पाने की होड़ में पड़कर मानसिक और आर्थिक रूप से परेशान होते हैं, जिससे समाज में वर्ग-संघर्ष बढ़ता है।
- नैतिक मूल्यों का पतन: उपभोक्तावाद भौतिक सुखों को अत्यधिक महत्व देता है। इस अंधी दौड़ में लोग नैतिक मूल्यों, ईमानदारी और मानवीय संवेदनाओं को भूल जाते हैं। किसी भी तरह से धन कमाकर वस्तुएँ हासिल करना उनका लक्ष्य बन जाता है, जिससे समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता बढ़ती है।
- पारंपरिक संस्कृति का ह्रास: यह हमारी प्राचीन और समृद्ध भारतीय संस्कृति के मूल्यों (जैसे संतोष, सादगी, त्याग, आपसी सहयोग) को कमजोर कर रही है। लोग अपनी जड़ों से कटकर पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं।
- असंतुष्ट और तनावपूर्ण जीवन: विज्ञापन लगातार नई इच्छाएँ पैदा करते हैं। व्यक्ति कितना भी उपभोग कर ले, वह कभी संतुष्ट नहीं होता क्योंकि बाजार में हमेशा कुछ नया उपलब्ध होता है। यह अतृप्ति और होड़ लोगों में मानसिक तनाव, निराशा और अशांति बढ़ाती है।
- संसाधनों का अत्यधिक दोहन: अत्यधिक उपभोग के कारण प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से दोहन होता है, जिससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचता है और भविष्य के लिए खतरा पैदा होता है।
इन सभी कारणों से, लेखक मानते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति हमारे समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है, जो हमारी सामाजिक संरचना, नैतिकता और पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है।
4. आशय स्पष्ट कीजिए:
(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
आशय: इस पंक्ति का आशय यह है कि उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव इतना सूक्ष्म और व्यापक है कि हमें पता भी नहीं चलता और हम धीरे-धीरे इसके जाल में फँसते चले जाते हैं। ‘आपका चरित्र भी बदल रहा है’ का अर्थ है कि हमारे सोचने-समझने, प्राथमिकताएँ तय करने और जीवन जीने के तरीके में बदलाव आ रहा है। हम अब अपनी अंतरात्मा की आवाज़ या नैतिक मूल्यों के बजाय विज्ञापनों और बाजार द्वारा थोपी गई ‘उत्पादों’ (वस्तुओं) को अधिक महत्व देने लगे हैं। ‘आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं’ का अर्थ है कि हमारी पहचान, खुशी और जीवन का उद्देश्य ही विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त करने और उनका उपभोग करने में सिमट गया है। हम उन वस्तुओं के गुलाम बन गए हैं और उन्हीं के इर्द-गिर्द हमारा जीवन घूमता रहता है। हम अपने व्यक्तित्व और मानवीय गुणों की बजाय भौतिक वस्तुओं के संग्रह से अपनी पहचान बनाने लगे हैं।
(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।
आशय: इस पंक्ति के माध्यम से लेखक यह बताना चाहते हैं कि उपभोक्तावादी संस्कृति में लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा (इज्जत या स्टेटस) दिखाने के लिए ऐसे-ऐसे कार्य करते हैं या ऐसी-ऐसी वस्तुएँ खरीदते हैं, जो कई बार तर्कहीन, अनावश्यक और बेतुकी होती हैं। ‘हास्यास्पद’ शब्द का प्रयोग यह दर्शाता है कि ये प्रयास इतने अटपटे हो सकते हैं कि उन पर हँसी आ जाए।
उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहुत महँगी विदेशी घड़ी खरीदे, भले ही उसे समय देखने का ठीक से ज्ञान न हो; या कोई व्यक्ति केवल ब्रांड दिखाने के लिए ऐसे कपड़े खरीदे जो उसे शोभा न दें; या फिर अपनी मृत्यु के बाद कब्र को सुंदर बनाने के लिए लाखों खर्च करे ताकि ‘अंतिम विश्राम’ भी शानदार दिखे। ये सभी कार्य व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकता या उपयोगिता के लिए नहीं होते, बल्कि केवल समाज में अपनी ‘प्रतिष्ठा’ या ‘अमीरी’ का दिखावा करने के लिए होते हैं। लेखक इन हास्यास्पद प्रयासों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि उपभोक्ता संस्कृति ने प्रतिष्ठा की अवधारणा को ही विकृत कर दिया है, जहाँ लोग दिखावे के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, चाहे वह कितना भी मूर्खतापूर्ण क्यों न लगे।
आइए, आपके इन प्रश्नों पर विचार करते हैं और उनके उत्तर विस्तार से समझते हैं। ये प्रश्न आपको पाठ की गहराई को समझने में मदद करेंगे।
“उपभोक्तावाद की संस्कृति” – रचना और अभिव्यक्ति
5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?
उत्तर: यह उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे बड़ा प्रभाव है कि कोई वस्तु हमारे लिए भले ही उपयोगी न हो, लेकिन टीवी पर आकर्षक विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए लालायित हो उठते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं:
- मनोवैज्ञानिक प्रभाव: विज्ञापन हमारी इच्छाओं और भावनाओं को उत्तेजित करते हैं। वे हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि अमुक वस्तु को खरीदने से हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी, हमें खुशी मिलेगी या हमारी कोई कमी दूर हो जाएगी। वे अक्सर ‘खुशी’, ‘सफलता’, ‘सौंदर्य’ जैसे अमूर्त विचारों को उत्पाद से जोड़ देते हैं।
- भावनात्मक अपील: कई विज्ञापन सीधे हमारी भावनाओं को छूते हैं – जैसे ‘माँ का प्यार’, ‘परिवार की खुशी’, ‘दोस्तों के साथ मस्ती’। वे दिखाते हैं कि कैसे उनका उत्पाद इन भावनाओं को पूरा करने में मदद करेगा, जिससे हम भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं।
- दिखावे की प्रवृत्ति: समाज में ‘दिखावे’ की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। विज्ञापन हमें यह एहसास दिलाते हैं कि अमुक वस्तु का न होना हमें दूसरों से पीछे कर देगा या हमारी सामाजिक स्थिति को कम कर देगा। इस दबाव में हम उस वस्तु को खरीदने के लिए मजबूर महसूस करते हैं, भले ही उसकी वास्तविक आवश्यकता न हो।
- कलात्मक प्रस्तुति: विज्ञापनों में वस्तुओं को बहुत ही कलात्मक और लुभावने तरीके से प्रस्तुत किया जाता है। प्रसिद्ध चेहरे (सेलिब्रिटी), आकर्षक संगीत, सुंदर दृश्य और प्रभावशाली डायलॉग हमें मंत्रमुग्ध कर देते हैं। ये चीजें वस्तु की गुणवत्ता से अधिक उसके ‘आकर्षण’ को बढ़ाती हैं।
- बार-बार दोहराव: विज्ञापनों को बार-बार टीवी पर दिखाया जाता है। बार-बार एक ही चीज देखने से वह हमारे अवचेतन मन में बैठ जाती है और हमें लगता है कि यह वस्तु हमारे लिए महत्वपूर्ण है।
- प्रतिस्पर्धा की भावना: विज्ञापन यह भी संदेश देते हैं कि दूसरों के पास यह वस्तु है, तो हमारे पास क्यों नहीं? इससे समाज में एक ‘होड़’ पैदा होती है और हम दूसरों से आगे निकलने या उनके बराबर दिखने के लिए वस्तुएँ खरीदते हैं।
इन सभी कारणों से, भले ही किसी वस्तु की हमें वास्तविक आवश्यकता न हो, विज्ञापन हमें उसे खरीदने के लिए प्रेरित करते हैं।
6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर: मेरे अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार निश्चित रूप से वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए, न कि उसका विज्ञापन। इसके पीछे कई ठोस तर्क हैं:
- वास्तविक उपयोगिता: हम कोई भी वस्तु अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए खरीदते हैं। यदि वस्तु में गुणवत्ता नहीं होगी, तो वह अपनी मूल उपयोगिता को पूरा नहीं कर पाएगी, चाहे उसका विज्ञापन कितना भी आकर्षक क्यों न हो। उदाहरण के लिए, यदि एक टूथपेस्ट का विज्ञापन बहुत प्रभावशाली है, लेकिन वह दाँतों की ठीक से सफाई नहीं करता, तो उसका क्या लाभ?
- पैसे का सदुपयोग: गुणवत्ता वाली वस्तुएँ अक्सर अधिक समय तक चलती हैं और बेहतर परिणाम देती हैं। इसके विपरीत, सिर्फ विज्ञापन के आधार पर खरीदी गई घटिया वस्तुएँ जल्दी खराब हो सकती हैं, जिससे हमारे पैसे का अपव्यय होता है। गुणवत्ता में निवेश करना दीर्घकालिक बचत है।
- स्वास्थ्य और सुरक्षा: कुछ उत्पादों (जैसे भोजन, दवाएँ, सौंदर्य प्रसाधन) की गुणवत्ता हमारे स्वास्थ्य और सुरक्षा से सीधी जुड़ी होती है। केवल विज्ञापन देखकर ऐसे उत्पादों को खरीदना खतरनाक हो सकता है। हमें उनकी सामग्री, निर्माण प्रक्रिया और प्रमाणीकरण पर ध्यान देना चाहिए।
- आत्म-संतुष्टि: जब हम गुणवत्तापूर्ण वस्तु का उपयोग करते हैं, तो हमें वास्तविक संतुष्टि मिलती है। विज्ञापन द्वारा प्रेरित दिखावे की वस्तुएँ क्षणिक खुशी तो दे सकती हैं, लेकिन दीर्घकालिक संतुष्टि नहीं।
- धोखे से बचना: विज्ञापनों का मुख्य उद्देश्य उत्पाद को बेचना होता है, न कि उसकी सच्चाई बताना। वे अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर दावे करते हैं और भ्रामक हो सकते हैं। गुणवत्ता पर ध्यान देकर हम इस तरह के धोखे से बच सकते हैं।
- उपभोक्ता के अधिकार: एक जागरूक उपभोक्ता के रूप में हमारा अधिकार है कि हमें गुणवत्तापूर्ण उत्पाद मिलें। हमारा खरीदने का निर्णय विज्ञापन के बजाय उत्पाद के वास्तविक मूल्य और प्रदर्शन पर आधारित होना चाहिए।
इसलिए, हमें विज्ञापनों की चकाचौंध से प्रभावित न होकर, वस्तु की वास्तविक गुणवत्ता, उसके स्थायित्व, उपयोगिता और हमारी आवश्यकता को प्राथमिकता देनी चाहिए।
7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही “दिखावे की संस्कृति” पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर: ‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के आधार पर, आज के उपभोक्तावादी युग में ‘दिखावे की संस्कृति’ तेजी से पनप रही है, जो हमारे समाज के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। इस संस्कृति का मुख्य आधार यह है कि लोग वस्तुओं का उपभोग अपनी वास्तविक आवश्यकता के लिए नहीं, बल्कि दूसरों को प्रभावित करने और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को प्रदर्शित करने के लिए करते हैं।
इस दिखावे की संस्कृति के कई पहलू हैं:
- पहचान का माध्यम: आज व्यक्ति की पहचान उसके गुणों या कर्मों से नहीं, बल्कि उसके पास मौजूद वस्तुओं से होने लगी है। महँगी कार, ब्रांडेड कपड़े, आधुनिक मोबाइल फोन, या किसी प्रतिष्ठित होटल में भोजन करना – ये सब व्यक्ति की ‘स्टेटस सिंबल’ बन गए हैं। लोग इन्हीं वस्तुओं के माध्यम से अपनी पहचान बनाते और दूसरों के सामने खुद को श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास करते हैं।
- विज्ञापन का प्रभाव: विज्ञापन इस दिखावे की संस्कृति को सबसे अधिक बढ़ावा देते हैं। वे उत्पादों को केवल आवश्यकता पूर्ति का साधन नहीं, बल्कि ‘सामाजिक सफलता’, ‘खुशी’ और ‘प्रतिष्ठा’ का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत करते हैं। वे लोगों को यह एहसास दिलाते हैं कि यदि उनके पास अमुक वस्तु नहीं है, तो वे समाज में पिछड़ जाएँगे।
- अंतिम संस्कार तक प्रभाव: लेखक ने बड़े ही मार्मिक ढंग से बताया है कि दिखावे की यह प्रवृत्ति जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुँच गई है। लोग अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी कब्र को सुंदर और प्रसिद्ध बनाने की सोचते हैं, ताकि ‘अंतिम विश्राम’ भी दिखावापूर्ण हो सके। यह दर्शाता है कि दिखावे की प्रवृत्ति कितनी गहरी जड़ें जमा चुकी है।
- मानसिक तनाव और अशांति: दिखावे की इस होड़ में लोग अक्सर अपनी आय से अधिक खर्च करते हैं, जिससे वे आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं और मानसिक तनाव का शिकार होते हैं। समाज में निरंतर एक-दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा पनपती है, जिससे संतोष और शांति का अभाव होता है।
- मूल्यों का ह्रास: दिखावे की संस्कृति मानवीय मूल्यों जैसे सादगी, संतोष, त्याग और ईमानदारी को कमजोर करती है। लोग केवल बाहरी चमक-दमक पर ध्यान देते हैं, जिससे आंतरिक गुणों का महत्व कम हो जाता है।
संक्षेप में, दिखावे की संस्कृति हमें अपनी वास्तविक खुशियों और आवश्यकताओं से दूर कर रही है, और हमें एक ऐसी दौड़ में धकेल रही है जहाँ संतुष्टि कभी नहीं मिल सकती। यह हमारे समाज को खोखला कर रही है और मानवीय संबंधों को कमजोर बना रही है।
8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर:
आज की उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे सदियों पुराने रीति-रिवाजों और त्योहारों को भी गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि पहले जहाँ त्योहार आस्था, प्रेम, मेल-मिलाप और सादगी का प्रतीक होते थे, वहीं अब वे खरीदारी और दिखावे का माध्यम बन गए हैं।
पहले दिवाली जैसे त्योहारों पर लोग घर की साफ-सफाई करते थे, साधारण मिठाईयाँ बनाते थे और मिट्टी के दीये जलाकर रोशनी करते थे। लेकिन अब दिवाली का अर्थ ब्रांडेड कपड़े खरीदना, महँगे उपहार देना, डिजाइनर मिठाइयाँ खरीदना और बिजली की झालरों से घर को जगमग करना हो गया है। बच्चों के लिए भी पटाखों और खिलौनों से ज़्यादा ‘नए गैजेट्स’ की डिमांड रहती है। इसी तरह, होली पर भी प्राकृतिक रंगों और आपसी भाईचारे की जगह ‘ब्रांडेड गुलाल’ और ‘पार्टियाँ’ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई हैं। राखी का त्योहार भी अब सिर्फ धागे बाँधने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि महँगे उपहारों के लेन-देन का अवसर बन गया है।
मेरे अनुभव में, इस उपभोक्तावादी प्रभाव के कारण त्योहारों की मूल भावना कहीं खोती जा रही है। लोग त्योहारों को ‘खर्च करने’ के अवसर के रूप में देखने लगे हैं, न कि ‘जुड़ने’ और ‘महसूस करने’ के। विज्ञापनों ने हमें सिखाया है कि ‘अच्छा त्योहार’ वही है जहाँ ज़्यादा पैसे खर्च हों, ज़्यादा चमक-दमक हो। इससे समाज में एक अनावश्यक प्रतिस्पर्धा भी पनपी है, जहाँ हर कोई दूसरे से ज़्यादा बेहतर दिखने और ज़्यादा खर्च करने की होड़ में लगा रहता है। इस होड़ में कई बार परिवार आर्थिक दबाव में भी आ जाते हैं। यह दुखद है कि हमारे त्योहार, जो कभी हमारी संस्कृति और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक थे, अब उपभोक्तावाद के शिकंजे में कसते जा रहे हैं।
6. निष्कर्ष
“उपभोक्तावाद की संस्कृति” निबंध के माध्यम से श्यामाचरण दुबे जी ने हमें एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है। वे हमें सचेत करते हैं कि बाजार की चकाचौंध और विज्ञापनों का जाल हमें केवल भौतिक वस्तुओं के पीछे भागने के लिए प्रेरित कर रहा है। यह प्रवृत्ति हमें सच्चे सुख, संतोष और मानवीय मूल्यों से दूर ले जा रही है। हमें आवश्यकता और इच्छा के बीच के अंतर को समझना चाहिए, अपव्यय से बचना चाहिए और अपनी पारंपरिक सादगी व नैतिक मूल्यों को बनाए रखना चाहिए। तभी हम एक स्वस्थ और संतुलित समाज का निर्माण कर पाएंगे।
भाषा-अध्ययन: क्रिया-विशेषण
क्रिया-विशेषण (Adverb): जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, उन्हें क्रिया-विशेषण कहते हैं। ये बताते हैं कि क्रिया कैसे, कब, कितनी (मात्रा) और कहाँ हो रही है।
(क) ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
(पाठ “उपभोक्तावाद की संस्कृति” के आधार पर)
- धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। (कैसे – रीतिवाचक)
- समंतों की संस्कृति का मुहावरा अब बदल गया है। (कब – कालवाचक)
- हमारी संस्कृति की पहचान अब बदल गई है। (कब – कालवाचक)
- ये सामंती संस्कृति के तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। (कब – कालवाचक)
- परिणाम सुखद नहीं हैं। गंभीर परिणाम। (कैसा – रीतिवाचक, यहाँ ‘परिणाम’ की विशेषता बता रहा है, लेकिन पाठ के संदर्भ में क्रिया के साथ प्रयोग हो सकता है जैसे “गंभीरता से सोचना चाहिए”)
अतिरिक्त उदाहरण यदि पाठ में से और मिल सकें: 6. आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं। (कैसे – रीतिवाचक) 7. हम उत्तरी अमेरिका और यूरोप से आयातित कुछ उत्पाद देखते हैं। (कहाँ – स्थानवाचक) 8. यह एक धीमा जहर है। (यह विशेषण है, क्रिया-विशेषण नहीं) 9. आपका चरित्र भी बदल रहा है। (क्रिया)
नोट: कई बार सीधे-सीधे क्रिया-विशेषण वाले वाक्य मिलना मुश्किल होता है, क्योंकि निबंधों में वाक्यों की संरचना अलग होती है। ऊपर दिए गए उदाहरण पाठ के सामान्य अर्थ और शैली के अनुसार हैं। ‘गंभीर’ विशेषण है, लेकिन ‘गंभीरता से’ क्रिया-विशेषण होता। मैंने ‘गंभीर परिणाम’ को पाठ के संदर्भ में रखा है। यदि आप पाठ को ध्यान से पढ़ें तो आपको और उदाहरण मिल सकते हैं।
(ख) धीरे-धीरे, ज़ोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज़्यादा, यहाँ, उधर, बाहर-इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
- धीरे-धीरे: बच्चा धीरे-धीरे चलना सीख रहा है।
- ज़ोर से: हवा ज़ोर से चल रही है।
- लगातार: बारिश लगातार तीन दिनों से हो रही है।
- हमेशा: वह हमेशा सच बोलता है।
- आजकल: आजकल शहरों में प्रदूषण बढ़ रहा है।
- कम: वह कम खाता है ताकि स्वस्थ रह सके।
- ज़्यादा: तुम्हें ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी।
- यहाँ: तुम यहाँ आओ और बैठो।
- उधर: वह उधर जा रहा है।
- बाहर: बच्चे बाहर खेल रहे हैं।
(ग) नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए-
वाक्य | क्रिया-विशेषण | विशेषण |
---|---|---|
(1) कल रात से निरंतर बारिश हो रही है। | निरंतर (कैसे हो रही है) | – |
(2) पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ गया। | – | पके (आम कैसे हैं) |
(3) रसोईघर से आती पुलाव की हलकी खुशबू से मुझे ज़ोरों की भूख लग आई। | ज़ोरों की (कैसे भूख लगी) | हलकी (खुशबू कैसी है) |
(4) उतना ही खाओ जितनी भूख है। | उतना, जितनी (कितनी खाओ) | – |
(5) विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाज़ार भरा पड़ा है। | आजकल (कब भरा है) | भरा (बाज़ार कैसा है) |
“उपभोक्तावाद की संस्कृति” – महत्वपूर्ण शब्दावली की व्याख्या
1. सांस्कृतिक अस्मिता (Cultural Identity)
- अस्मिता का तात्पर्य: ‘अस्मिता’ का अर्थ है पहचान, स्वयं का अस्तित्व या होने का बोध।
- सांस्कृतिक अस्मिता का अर्थ: हमारी अपनी संस्कृति से जुड़ी पहचान। यह उन मूल्यों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, भाषाओं, कलाओं और जीवन-शैली का समुच्चय है जो हमें एक समूह या राष्ट्र के रूप में विशिष्ट बनाते हैं।
- संदर्भ में व्याख्या:
- हम भारतीयों की अपनी एक अनूठी सांस्कृतिक पहचान है।
- यह पहचान किसी एक संस्कृति से नहीं, बल्कि भारत की विभिन्न भाषाओं, धर्मों, क्षेत्रों और परंपराओं के मेल-जोल (गंगा-जमुनी तहज़ीब) से बनी है।
- यह मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान ही हमारी ‘सांस्कृतिक अस्मिता’ है। यह हमें बताती है कि हम कौन हैं, हम कहाँ से आए हैं, और हमारे मूल्य क्या हैं। उपभोक्तावाद की संस्कृति इस अस्मिता को कमजोर करने का काम करती है।
2. सांस्कृतिक उपनिवेश (Cultural Colonization)
- उपनिवेश का अर्थ: ‘उपनिवेश’ वह देश होता है जिस पर किसी विजेता (शक्तिशाली) देश ने अपना प्रभुत्व (शासन) स्थापित कर लिया हो।
- सामान्य प्रक्रिया: आमतौर पर, विजेता देश अपनी संस्कृति, भाषा और जीवन-शैली को विजित (जीत गए) देशों पर थोपता है।
- हीनता ग्रंथि: दूसरी ओर, विजित देश के लोग, हीनता ग्रंथि (inferiority complex) के कारण, विजेता देश की संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगते हैं और उसे स्वेच्छा से अपनाने लगते हैं। उन्हें लगता है कि विजेता की संस्कृति को अपनाकर वे भी ‘आधुनिक’ या ‘विकसित’ बन जाएँगे।
- सांस्कृतिक उपनिवेश बनना: जब कोई देश लंबे समय तक विजेता देश की संस्कृति को अपनाता रहता है, और अपनी मूल संस्कृति को छोड़कर विदेशी संस्कृति से प्रभावित होता रहता है, तो उसे ‘सांस्कृतिक उपनिवेश’ बनना कहते हैं। इस स्थिति में, भले ही कोई राजनीतिक नियंत्रण न हो, सांस्कृतिक रूप से वह देश किसी और संस्कृति का गुलाम बन जाता है। लेखक ने उपभोक्तावाद को इसी तरह एक पश्चिमी संस्कृति का ‘सांस्कृतिक उपनिवेश’ बनने की प्रक्रिया के रूप में देखा है।
3. बौद्धिक दासता (Intellectual Slavery)
- दासता का अर्थ: ‘दासता’ का अर्थ है गुलामी या अधीनता।
- बौद्धिक दासता का अर्थ:
- यह तब होती है जब कोई व्यक्ति या समाज किसी अन्य (विदेशी या प्रभावशाली) विचार, ज्ञान या चिंतन को बिना किसी आलोचनात्मक दृष्टि (critical thinking) के, आँख मूँदकर स्वीकार कर लेता है।
- इसमें हम दूसरे की बौद्धिकता (विचारों, सिद्धांतों) को अपने से श्रेष्ठ मान लेते हैं और अपनी बुद्धि या तर्क का प्रयोग किए बिना उसे अपना लेते हैं।
- जैसे, उपभोक्तावाद की संस्कृति में हम पश्चिमी देशों की जीवनशैली को बिना सोचे-समझे अपना रहे हैं, यह सोचे बिना कि क्या वह हमारे समाज या संस्कृति के लिए उपयुक्त है। यह एक प्रकार की बौद्धिक दासता है, जहाँ हमारी अपनी सोचने-समझने की शक्ति का प्रयोग कम हो जाता है।
4. छद्म आधुनिकता (Pseudo-Modernity)
- आधुनिकता का वास्तविक अर्थ:
- वास्तविक ‘आधुनिकता’ का संबंध विचारों और व्यवहार दोनों से होता है।
- इसमें तर्कशील (rational), वैज्ञानिक और आलोचनात्मक दृष्टि अपनाते हुए नवीनता (नई चीजों, विचारों) को स्वीकार किया जाता है।
- आधुनिकता का मतलब केवल पुराने को छोड़ना नहीं, बल्कि नए को तर्क और विवेक के साथ अपनाना है। यह प्रगतिशील सोच का परिणाम है।
- छद्म आधुनिकता का अर्थ:
- ‘छद्म’ का अर्थ है ‘झूठा’ या ‘नकली’।
- जब हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह (सोच-समझकर) के साथ स्वीकार नहीं करते, बल्कि केवल फैशन के रूप में या दूसरों की नकल करते हुए अपना लेते हैं, तो उसे ‘छद्म आधुनिकता’ कहते हैं।
- उदाहरण के लिए, पश्चिमी कपड़े पहनना या अंग्रेजी बोलना ही आधुनिकता मान लेना, जबकि विचारों में रूढ़िवादिता या अंधविश्वास कायम रहे। उपभोक्तावादी संस्कृति हमें इसी ‘छद्म आधुनिकता’ की ओर धकेलती है, जहाँ हम बाहरी चमक-दमक को तो अपना लेते हैं, लेकिन उसके पीछे के विवेकपूर्ण और तार्किक सोच को नहीं अपनाते। यह एक दिखावटी आधुनिकता है।
बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs) – उपभोक्तावाद की संस्कृति
निर्देश: सही विकल्प का चयन कीजिए।
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ के लेखक कौन हैं?
(अ) प्रेमचंद
(ब) श्यामाचरण दुबे
(स) राहुल सांकृत्यायन
(द) हरिशंकर परसाई
श्यामाचरण दुबे का जन्म किस वर्ष हुआ था?
(अ) 1918
(ब) 1922
(स) 1925
(द) 1930
‘उपभोक्तावाद की संस्कृति’ पाठ की विधा क्या है?
(अ) कहानी
(ब) नाटक
(स) निबंध
(द) आत्मकथा
लेखक के अनुसार, आजकल सुख की परिभाषा क्या हो गई है?
(अ) आध्यात्मिक शांति
(ब) संतोष और त्याग
(स) उपभोग करना
(द) दूसरों की मदद करना
उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका किसकी है?
(अ) सरकार की
(ब) शिक्षा की
(स) विज्ञापनों की
(द) परिवार की
‘अस्मिता’ शब्द का क्या अर्थ है?
(अ) भूलना
(ब) पहचान
(स) नकारना
(द) खरीदना
सांस्कृतिक उपनिवेश से क्या तात्पर्य है?
(अ) अपनी संस्कृति का विकास करना
(ब) विजेता देश की संस्कृति को अपनाना
(स) अपनी संस्कृति को बचाना
(द) विभिन्न संस्कृतियों का मेल-जोल
लेखक ने ‘बौद्धिक दासता’ किसे कहा है?
(अ) अधिक ज्ञान प्राप्त करना
(ब) दूसरों की बौद्धिकता को बिना आलोचनात्मक दृष्टि के स्वीकार करना
(स) अपनी बुद्धि का प्रयोग करना
(द) किताबों से पढ़ना
‘छद्म आधुनिकता’ का क्या अर्थ है?
(अ) वास्तविक आधुनिकता
(ब) दिखावटी या नकली आधुनिकता
(स) परंपरावादी सोच
(द) वैज्ञानिक दृष्टिकोण
उपभोक्तावादी संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर क्या नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है?
(अ) मूल्यों का ह्रास
(ब) संबंधों में मजबूती
(स) सादगी का बढ़ना
(द) संतोष की भावना
लेखक के अनुसार, लोग अपनी आवश्यकता के बजाय किस लिए वस्तुएँ खरीदते हैं?
(अ) बचत करने के लिए
(ब) दूसरों को दान देने के लिए
(स) दिखावे और प्रतिष्ठा के लिए
(द) कला प्रदर्शन के लिए
कौन सा शब्द क्रिया-विशेषण नहीं है?
(अ) धीरे-धीरे
(ब) ज़ोर से
(स) सुंदर (आम)
(द) लगातार
“धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।” इस वाक्य में क्रिया-विशेषण शब्द क्या है?
(अ) धीरे-धीरे
(ब) सब
(स) कुछ
(द) बदल रहा है
यदि हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न कर उसे केवल फैशन के रूप में अपना लें, तो वह क्या कहलाती है?
(अ) वास्तविक आधुनिकता
(ब) प्रगतिशील आधुनिकता
(स) छद्म आधुनिकता
(द) पुरानी आधुनिकता
उपभोक्ता संस्कृति से समाज में क्या बढ़ रहा है?
(अ) भाईचारा
(ब) असमानता
(स) सहयोग
(द) शांति
लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को समाज के लिए क्या बताया है?
(अ) वरदान
(ब) चुनौती
(स) सामान्य प्रक्रिया
(द) अवसर
आज लोग वस्तु की गुणवत्ता से अधिक किस बात पर ध्यान देते हैं?
(अ) उसकी कीमत पर
(ब) उसके निर्माता पर
(स) उसके विज्ञापन और चमक-दमक पर
(द) उसकी उपलब्धता पर
‘मानव और संस्कृति’ किसकी प्रमुख कृति है?
(अ) प्रेमचंद
(ब) श्यामाचरण दुबे
(स) हरिशंकर परसाई
(द) महादेवी वर्मा
“उत्पाद को समर्पित होना” का क्या आशय है?
(अ) उत्पाद का निर्माण करना
(ब) उत्पाद के गुणों की प्रशंसा करना
(स) उत्पाद को ही जीवन का उद्देश्य मान लेना
(द) उत्पाद को नष्ट करना
“कल रात से निरंतर बारिश हो रही है।” इस वाक्य में ‘निरंतर’ शब्द क्या है?
(अ) विशेषण
(ब) संज्ञा
(स) क्रिया-विशेषण
(द) सर्वनाम
उत्तरमाला (Answer Key):
(ब) श्यामाचरण दुबे
(ब) 1922
(स) निबंध
(स) उपभोग करना
(स) विज्ञापनों की
(ब) पहचान
(ब) विजेता देश की संस्कृति को अपनाना
(ब) दूसरों की बौद्धिकता को बिना आलोचनात्मक दृष्टि के स्वीकार करना
(ब) दिखावटी या नकली आधुनिकता
(अ) मूल्यों का ह्रास
(स) दिखावे और प्रतिष्ठा के लिए
(स) सुंदर (आम)
(अ) धीरे-धीरे
(स) छद्म आधुनिकता
(ब) असमानता
(ब) चुनौती
(स) उसके विज्ञापन और चमक-दमक पर
(ब) श्यामाचरण दुबे
(स) उत्पाद को ही जीवन का उद्देश्य मान लेना
(स) क्रिया-विशेषण