MP board Class 9 Forest Society and Colonialism : कक्षा 9 के छात्रों के लिए उनकी परीक्षा की तैयारी हेतु “वन्य समाज और उपनिवेशवाद” पर यह एक विस्तृत और संपूर्ण लेख है। इसमें उचित शीर्षक, उप-शीर्षक और महत्वपूर्ण अंग्रेजी शब्दों को भी शामिल किया गया है।
अध्याय 4: वन्य समाज और उपनिवेशवाद (Forest Society and Colonialism)
भूमिका (Introduction)
वन (Forests) केवल पेड़ों का समूह नहीं होते; वे सभ्यताओं और संस्कृतियों के विकास के साक्षी रहे हैं। भारत जैसे देश में, करोड़ों लोगों, विशेषकर आदिवासी समुदायों (Tribal Communities) का जीवन पूरी तरह से वनों पर निर्भर रहा है। वन उन्हें भोजन, आश्रय, दवाइयाँ और आजीविका प्रदान करते हैं। उनकी संस्कृति, धर्म और पहचान वनों से गहराई से जुड़ी हुई है। सदियों से, ये समुदाय जंगलों के साथ एक संतुलित और टिकाऊ (Sustainable) संबंध बनाकर रहते आए थे।
लेकिन 19वीं सदी में उपनिवेशवाद (Colonialism) के आगमन ने इस पूरी तस्वीर को हमेशा के लिए बदल दिया। जब ब्रिटिश भारत आए, तो वे अपने साथ एक नई सोच लेकर आए: वन एक प्राकृतिक संसाधन (Natural Resource) नहीं, बल्कि एक व्यावसायिक वस्तु (Commercial Commodity) थे, जिसका उपयोग साम्राज्य के आर्थिक और रणनीतिक (Strategic) हितों को पूरा करने के लिए किया जाना था। इस अध्याय में, हम यह पड़ताल करेंगे कि कैसे औपनिवेशिक शासन ने भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों (जैसे जावा) में वनों और वहाँ रहने वाले लोगों के जीवन को मौलिक रूप से बदल दिया। यह कहानी सिर्फ पेड़ों के कटने की नहीं, बल्कि संस्कृतियों के उजड़ने, अधिकारों के छिनने और इसके खिलाफ हुए विद्रोहों की भी है।
1. वनों का विनाश क्यों हुआ? (Why Deforestation?)
औपनिवेशिक काल में भारत में वनों का विनाश अभूतपूर्व पैमाने पर हुआ। 1700 और 1995 के बीच, दुनिया के कुल वन क्षेत्र का लगभग 9.3% हिस्सा, यानी 139 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल, औद्योगिक उपयोग, खेती, चरागाहों और जलावन की लकड़ी के लिए साफ कर दिया गया। इसके पीछे औपनिवेशिक सरकार के कई स्पष्ट उद्देश्य थे।
(i) ज़मीन को बेहतर बनाना: कृषि का विस्तार (Land to be Improved: Expansion of Agriculture)
अंग्रेजों की नज़र में, जंगल ‘जंगलीपन’ (Wilderness) का प्रतीक थे। उनका मानना था कि यह अनुत्पादक (Unproductive) भूमि है जिसे खेती के तहत लाया जाना चाहिए। खेती से सरकार को कई फायदे थे:
- राजस्व (Revenue): कृषि भूमि से सरकार को लगान (Land Revenue) मिलता था, जो औपनिवेशिक सरकार की आय का एक प्रमुख स्रोत था।
- खाद्य उत्पादन: बढ़ती शहरी आबादी और ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति के लिए अधिक अनाज और व्यावसायिक फसलों (Commercial Crops) जैसे जूट, गन्ना, कपास और गेहूं की आवश्यकता थी।
इसलिए, औपनिवेशिक सरकार ने सक्रिय रूप से वनों को काटने और खेती का विस्तार करने के लिए नीतियां बनाईं। उन्होंने इसे ‘सुधार’ (Improvement) का नाम दिया।
(ii) पटरियों पर स्लीपर: रेलवे का विस्तार (Sleepers on the Tracks: Expansion of Railways)
19वीं सदी के मध्य में रेलवे का विस्तार औपनिवेशिक नियंत्रण और व्यापार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। रेलवे के दो मुख्य उद्देश्य थे:
- सेना की आवाजाही (Movement of Troops): साम्राज्य के भीतर सेना को तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए।
- कच्चे माल का परिवहन (Transport of Raw Materials): बंदरगाहों तक कच्चे माल (जैसे कपास और अनाज) को तेजी से पहुँचाने के लिए।
रेलवे लाइनों को बिछाने के लिए लकड़ी की भारी मात्रा में आवश्यकता थी। रेल की पटरियों को अपनी जगह पर स्थिर रखने के लिए लकड़ी के तख्तों की जरूरत होती थी, जिन्हें ‘स्लीपर’ (Sleepers) कहा जाता था। एक मील लंबी रेल लाइन बिछाने के लिए लगभग 1,760 से 2,000 स्लीपरों की आवश्यकता होती थी। 1860 के दशक से भारत में रेलवे नेटवर्क का तेजी से विस्तार हुआ और 1946 तक यह 7,65,000 किलोमीटर तक फैल चुका था। इस विशाल नेटवर्क के लिए करोड़ों पेड़ों को काटा गया, विशेषकर साल (Sal) और सागौन (Teak) जैसी मजबूत लकड़ियों को।
(iii) बागान: यूरोप के लिए व्यावसायिक खेती (Plantations: Commercial Farming for Europe)
यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ जैसी वस्तुओं की मांग बहुत बढ़ गई थी। इन फसलों की खेती के लिए बड़े-बड़े बागानों (Plantations) की आवश्यकता थी। औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय वनों के विशाल क्षेत्रों को बहुत सस्ते दामों पर यूरोपीय बागान मालिकों को सौंप दिया। इन इलाकों के प्राकृतिक वनों को साफ करके चाय, कॉफी और रबड़ के बागान विकसित किए गए। इस प्रकार, व्यावसायिक हितों के लिए प्राकृतिक विविधता (Natural Diversity) को नष्ट कर दिया गया।
(iv) शाही नौसेना के लिए जहाज (Ships for the Royal Navy)
19वीं सदी की शुरुआत तक, इंग्लैंड में ओक (Oak) के जंगल लगभग गायब हो चुके थे, जिससे शाही नौसेना (Royal Navy) के लिए मजबूत जहाजों के निर्माण हेतु लकड़ी की आपूर्ति में संकट पैदा हो गया था। भारत के विशाल और टिकाऊ लकड़ी के भंडार, विशेष रूप से सागौन और साल, ने इस कमी को पूरा करने का एक अवसर प्रदान किया। ब्रिटिश नौसेना के लिए बड़े पैमाने पर भारत से लकड़ी का निर्यात किया जाने लगा, जिससे वनों का तेजी से विनाश हुआ।
2. व्यावसायिक वानिकी का उदय (The Rise of Commercial Forestry)
वनों के इस अंधाधुंध विनाश को देखकर औपनिवेशिक अधिकारियों को चिंता होने लगी कि अगर इसी तरह पेड़ कटते रहे, तो रेलवे और जहाजों के लिए लकड़ी की आपूर्ति बंद हो जाएगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए, उन्होंने ‘वैज्ञानिक वानिकी’ (Scientific Forestry) की एक प्रणाली शुरू की।
(i) डायट्रिच ब्रैंडिस और भारतीय वन सेवा की स्थापना
सरकार ने इस मामले पर सलाह देने के लिए एक जर्मन वन विशेषज्ञ, डायट्रिच ब्रैंडिस (Dietrich Brandis) को आमंत्रित किया। ब्रैंडिस को भारत का पहला वन महानिरीक्षक (Inspector General of Forests) नियुक्त किया गया। ब्रैंडिस ने महसूस किया कि वनों के प्रबंधन के लिए एक उचित प्रणाली की आवश्यकता है, जिसमें लोगों को संरक्षण विज्ञान (Conservation Science) में प्रशिक्षित किया जाए और वनों के उपयोग पर नियम बनाए जाएँ।
- भारतीय वन सेवा (Indian Forest Service): 1864 में, ब्रैंडिस ने भारतीय वन सेवा की स्थापना की।
- इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Imperial Forest Research Institute): 1906 में, देहरादून में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई, जहाँ ‘वैज्ञानिक वानिकी’ की शिक्षा दी जाती थी।
(ii) ‘वैज्ञानिक वानिकी’ क्या थी? (What was ‘Scientific Forestry’?)
‘वैज्ञानिक वानिकी’ के नाम से यह बहुत प्रगतिशील लगता है, लेकिन व्यवहार में यह बहुत अलग था। इस प्रणाली में, प्राकृतिक वनों, जिनमें विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे होते थे, को काट दिया जाता था। उनके स्थान पर, केवल एक ही प्रकार की, व्यावसायिक रूप से मूल्यवान (Commercially Valuable) प्रजाति के पेड़ (जैसे सागौन या साल) सीधी पंक्तियों में लगाए जाते थे। इसे बागान (Plantation) कहा जाता है। इसका उद्देश्य केवल औद्योगिक जरूरतों के लिए लकड़ी का उत्पादन करना था, न कि पारिस्थितिक संतुलन (Ecological Balance) बनाए रखना।
(iii) वन अधिनियम और उनके प्रभाव (The Forest Acts and their Impact)
ब्रैंडिस की सिफारिशों पर, औपनिवेशिक सरकार ने कई वन अधिनियम पारित किए, जिन्होंने वनों पर राज्य का पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर दिया और स्थानीय लोगों के पारंपरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया।
- 1865 का भारतीय वन अधिनियम (Indian Forest Act of 1865)
- 1878 का वन अधिनियम (Forest Act of 1878): यह अधिनियम सबसे महत्वपूर्ण था। इसने वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया:
- आरक्षित वन (Reserved Forests): ये सबसे अच्छे और घने जंगल थे। इन वनों में ग्रामीणों का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित था। वे अपनी जरूरतों के लिए यहाँ से कुछ भी नहीं ले सकते थे।
- सुरक्षित वन (Protected Forests): इन वनों में, लोगों को कुछ पारंपरिक अधिकार (जैसे चराई और लकड़ी इकट्ठा करना) दिए गए थे, लेकिन उन पर भी कई प्रतिबंध थे।
- ग्रामीण वन (Village Forests): ये कम मूल्यवान जंगल थे, जो गाँवों के आसपास स्थित थे और कुछ हद तक ग्रामीणों के उपयोग के लिए थे।
इन कानूनों ने सदियों से जंगलों में रहने वाले लोगों को ‘अतिक्रमणकारी’ (Encroachers) बना दिया। उनका जीवन रातों-रात अवैध (Illegal) हो गया।
3. लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ? (How Were the Lives of People Affected?)
वन कानूनों का स्थानीय समुदायों के दैनिक जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। उनकी पूरी जीवन शैली, जो वनों पर आधारित थी, अस्त-व्यस्त हो गई।
- आजीविका का छिनना (Loss of Livelihood): अब ग्रामीण जंगलों से जलावन की लकड़ी, कंद-मूल, फल, पत्ते और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा नहीं कर सकते थे। वे अपने पशुओं को नहीं चरा सकते थे और न ही मछली पकड़ या शिकार कर सकते थे। घर बनाने के लिए लकड़ी और छप्पर के लिए पत्ते लेना भी अपराध बन गया।
- झूम खेती पर प्रतिबंध (Ban on Shifting Cultivation):भारत और दुनिया के कई हिस्सों में आदिवासी समुदाय झूम खेती (Shifting Cultivation or Swidden Agriculture) करते थे। इस प्रणाली में, वे जंगल के एक छोटे हिस्से को काटते और जलाते थे। मानसून की पहली बारिश के बाद राख में बीज बो दिए जाते थे। दो-तीन साल खेती करने के बाद, वे उस ज़मीन को 12-18 साल के लिए परती (Fallow) छोड़ देते थे ताकि जंगल फिर से उग सके, और फिर किसी और जगह चले जाते थे।औपनिवेशिक वनपाल इस प्रथा के सख्त खिलाफ थे क्योंकि:
- उन्हें लगता था कि इससे कीमती लकड़ी वाले पेड़ों को नुकसान पहुँचता है।
- जमीन पर लगान की गणना करना मुश्किल होता था।
- उन्हें डर था कि आग फैलकर मूल्यवान जंगलों को नष्ट कर सकती है।सरकार ने झूम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे कई समुदायों को अपने पारंपरिक घरों और व्यवसायों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
- शिकार पर प्रतिबंध (Ban on Hunting):वन कानूनों से पहले, कई ग्रामीण अपने भोजन के लिए हिरण, तीतर और अन्य छोटे जानवरों का शिकार करते थे। नए कानूनों ने शिकार को अवैध बना दिया। अब अगर कोई शिकार करते पकड़ा जाता, तो उसे अवैध शिकार (Poaching) के लिए दंडित किया जाता था।हालांकि, विडंबना यह थी कि जहाँ स्थानीय लोगों के लिए शिकार प्रतिबंधित था, वहीं बड़े जानवरों का शिकार अंग्रेजों और भारतीय राजाओं के लिए एक खेल (Sport) बन गया था। उन्होंने बड़े पैमाने पर बाघ, तेंदुए और अन्य जंगली जानवरों का शिकार किया और इसे अपनी वीरता के प्रतीक के रूप में देखा। जॉर्ज यूल नामक एक ब्रिटिश अधिकारी ने अकेले 400 बाघों को मारा था।
- नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ (New Trades, New Employments, and New Services):जहाँ एक ओर पारंपरिक आजीविकाएँ नष्ट हो गईं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों को नए (अक्सर शोषणकारी) अवसर मिले। वन विभाग को पेड़ों को काटने, उन्हें ले जाने और बागान लगाने के लिए मजदूरों की आवश्यकता थी। कई वनवासियों को कम मजदूरी पर इन कामों के लिए मजबूर किया गया। वे अक्सर वन ठेकेदारों (Forest Contractors) के शोषण का शिकार होते थे।
4. वन विद्रोह (Rebellion in the Forest)
औपनिवेशिक वन नीतियों के खिलाफ पूरे भारत में वन समुदायों ने विद्रोह किया। सिद्धू और कानू (संथाल परगना), बिरसा मुंडा (छोटानागपुर), और अल्लूरी सीताराम राजू (आंध्र प्रदेश) जैसे नेताओं ने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ आवाज उठाई। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण विद्रोह बस्तर में हुआ था।
केस स्टडी: बस्तर का विद्रोह (1910) (The Bastar Rebellion, 1910)
- संदर्भ (Context): बस्तर, छत्तीसगढ़ में स्थित एक रियासत थी, जो अपनी समृद्ध वन संपदा और विविध आदिवासी समुदायों (जैसे मारिया और मुरिया गोंड, धुरवा और भतरा) के लिए जानी जाती थी। इन समुदायों का जीवन पूरी तरह से वनों पर निर्भर था।
- विद्रोह के कारण (Causes of the Rebellion):
- 1905 में औपनिवेशिक सरकार ने बस्तर के दो-तिहाई जंगलों को आरक्षित (Reserve) करने का प्रस्ताव रखा।
- झूम खेती, शिकार और वन उत्पादों के संग्रह पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
- लोगों को औपनिवेशिक अधिकारियों के लिए मुफ्त में काम करने (बेगार – Begar) के लिए मजबूर किया गया।
- 1899-1900 और 1907-08 के भयानक अकालों ने लोगों की मुसीबतों को और बढ़ा दिया।
- विद्रोह की घटनाएँ: नेथानार गाँव के गुंडा धुर (Gunda Dhur) इस आंदोलन के एक महत्वपूर्ण नेता थे। विद्रोह की शुरुआत आम की टहनियाँ, मिट्टी के ढेले, मिर्च और तीर गाँवों में घुमाकर की गई, जो विद्रोह का संदेश थे। विद्रोहियों ने बाजार लूटे, अधिकारियों और व्यापारियों के घरों को जलाया, और स्कूल तथा पुलिस थानों जैसे औपनिवेशिक प्रतीकों पर हमला किया।
- दमन और परिणाम (Suppression and Outcome): अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए सेना भेजी। उन्होंने गाँवों में आग लगा दी और विद्रोहियों को कोड़े मारे और दंडित किया। हालांकि विद्रोह को क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया, लेकिन यह पूरी तरह से व्यर्थ नहीं गया। इसने औपनिवेशिक सरकार को वन आरक्षण के अपने प्रस्ताव को अस्थायी रूप से स्थगित करने और आरक्षित किए जाने वाले क्षेत्र को लगभग आधा करने के लिए मजबूर किया।
5. जावा में वन परिवर्तन: एक तुलनात्मक अध्ययन (Forest Transformations in Java: A Comparative Study)
भारत की तरह ही, इंडोनेशिया के जावा द्वीप, जो एक डच उपनिवेश (Dutch Colony) था, में भी वनों का प्रबंधन और शोषण किया गया।
- डच उपनिवेशवादी और व्यावसायिक वानिकी: भारत में अंग्रेजों की तरह, डचों को भी अपने जहाजों और रेलवे के लिए जावा के सागौन के जंगलों से लकड़ी की आवश्यकता थी। उन्होंने भी ‘वैज्ञानिक वानिकी’ और वन कानून लागू किए।
- कलंग समुदाय (The Kalangs of Java): जावा में कलंग नामक एक समुदाय था जो कुशल लकड़हारे और झूम खेती करने वाले थे। स्थानीय राजाओं के लिए उनका बहुत महत्व था। 18वीं शताब्दी में जब डचों ने वनों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की, तो उन्होंने कलंगों को अपने लिए काम करने पर मजबूर करने का प्रयास किया। कलंगों ने 1770 में इसका विरोध किया, लेकिन उन्हें दबा दिया गया।
- सामिन की चुनौती (Samin’s Challenge):1890 के आसपास, रांदुब्लातुंग गाँव के एक सागौन के जंगल में रहने वाले सुरोंतिको सामिन (Surontiko Samin) ने एक आंदोलन शुरू किया। यह एक अहिंसक प्रतिरोध था। सामिन का तर्क था कि चूंकि राज्य ने हवा, पानी, पृथ्वी और लकड़ी नहीं बनाई है, इसलिए वह इसका मालिक नहीं हो सकता। उनके अनुयायियों ने जब डच सर्वेक्षणकर्ता जमीन का सर्वेक्षण करने आए तो वे अपनी जमीन पर लेट गए। उन्होंने करों और जुर्मानों का भुगतान करने या बेगार करने से इनकार कर दिया। यह आंदोलन धीरे-धीरे फैलता गया।
6. युद्ध, वनीकरण और नए विकास (War, Deforestation and New Developments)
दोनों विश्व युद्धों (World Wars) का दुनिया भर के जंगलों पर बहुत विनाशकारी प्रभाव पड़ा। युद्ध की जरूरतों को पूरा करने के लिए ब्रिटेन और अन्य देशों ने रक्षात्मक रूप से पेड़ काटना बंद कर दिया और युद्धक जरूरतों के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की।
जावा में, जब जापानियों ने द्वीप पर कब्जा कर लिया, तो डचों ने ‘भस्म कर भागो’ नीति (Scorched Earth Policy) अपनाई। उन्होंने आरा मशीनों को नष्ट कर दिया और सागौन की लकड़ी के विशाल ढेर जला दिए ताकि वे जापानियों के हाथ न लगें। इसके बाद जापानियों ने वनों का और भी बेरहमी से शोषण किया।
हालांकि, 1980 के दशक के बाद से, दुनिया भर में वानिकी के प्रति दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया है। अब यह समझा जाने लगा है कि वनों का संरक्षण स्थानीय समुदायों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता। भारत में संयुक्त वन प्रबंधन (Joint Forest Management – JFM) जैसे कार्यक्रम इसका एक अच्छा उदाहरण हैं, जहाँ स्थानीय ग्रामीण समुदाय वनों की सुरक्षा और प्रबंधन में मदद करते हैं, और बदले में उन्हें वन उत्पादों में हिस्सेदारी मिलती है।
निष्कर्ष (Conclusion)
उपनिवेशवाद ने वन्य समाजों के जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। इसने वनों को एक व्यावसायिक वस्तु में बदल दिया, स्थानीय समुदायों को उनके पारंपरिक अधिकारों से वंचित कर दिया और उन्हें अपने ही घरों में अजनबी बना दिया। इसने न केवल पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ा, बल्कि लाखों लोगों की आजीविका और संस्कृति को भी नष्ट कर दिया। बस्तर और जावा जैसे विद्रोह यह दर्शाते हैं कि वन समुदायों ने इस अन्याय को चुपचाप स्वीकार नहीं किया; उन्होंने अपनी गरिमा और अधिकारों के लिए संघर्ष किया। आज, दुनिया यह सीख रही है कि वनों का सच्चा संरक्षण तभी संभव है जब हम उन लोगों के अधिकारों, ज्ञान और जरूरतों का सम्मान करें जो सदियों से उनके संरक्षक रहे हैं।