जाति व्यवस्था का विकास
MP Board Class 12th History Development of Caste System
MP Board Class 12th History Development of Caste System : भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक ढांचे में जाति व्यवस्था एक जटिल और गतिशील संरचना रही है, जिसका विकास लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी तक के कालखंड में कई सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ हुआ। यह लेख इस व्यवस्था के उद्भव, विकास और इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डालता है जो महाभारत, धर्मसूत्र, धर्मशास्त्र और अन्य समकालीन स्रोतों के आधार पर समझा जा सकता है।
प्रारंभिक सामाजिक संरचना और वर्ण व्यवस्था
प्राचीन भारत में सामाजिक संगठन का आधार वर्ण व्यवस्था थी, जिसे ब्राह्मणीय ग्रंथों में दैवीय उत्पत्ति का माना गया। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—का उल्लेख है, जो क्रमशः समाज के बौद्धिक, शासकीय, आर्थिक और सेवा कार्यों से जुड़े थे। ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था, जबकि शूद्रों को सबसे निचले स्तर पर रखा गया। इस व्यवस्था में सामाजिक हैसियत जन्म पर आधारित थी, और इसे धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों विशेषकर मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पू.-200 ईसवी), में विस्तार से संहिताबद्ध किया गया।
हालांकि, यह व्यवस्था केवल आदर्श थी। वास्तविकता में सामाजिक संरचना कहीं अधिक जटिल थी। उदाहरण के लिए, सातवाहन राजाओं के अभिलेखों से पता चलता है कि वे स्वयं को ब्राह्मण कहते थे, जबकि ब्राह्मणीय शास्त्रों के अनुसार राजा का पद क्षत्रियों के लिए निर्धारित था। इससे यह संकेत मिलता है कि वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन हमेशा सख्ती से नहीं होता था।
जाति का उद्भव और वर्ण से अंतर
वर्ण व्यवस्था जहां चार श्रेणियों तक सीमित थी, वहीं जाति एक अधिक व्यापक और लचीली अवधारणा थी। जब ब्राह्मणीय व्यवस्था का सामना नए समुदायों, जैसे निषाद (शिकारी) या सुवर्णकार (स्वर्णकार), से हुआ, जिन्हें चार वर्णों में समाहित करना संभव नहीं था, उन्हें जातियों में वर्गीकृत किया गया। जातियां अक्सर व्यवसाय, क्षेत्रीय पहचान या सामाजिक प्रथाओं पर आधारित थीं। मंदसौर (लगभग 5वीं शताब्दी ईसवी) के अभिलेख में रेशम बुनकरों की एक श्रेणी का उल्लेख है, जो गुजरात से मध्य प्रदेश आए थे और वहां न केवल अपने शिल्प में निपुण थे, बल्कि मंदिर निर्माण जैसे सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते थे। यह दर्शाता है कि जातियां सामाजिक गतिशीलता और समुदाय संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थीं।
सामाजिक विषमताएं और प्रतिरोध
वर्ण और जाति व्यवस्था ने सामाजिक विषमताओं को बढ़ावा दिया। शूद्रों और चाण्डालों जैसे समूहों को समाज के निचले स्तर पर रखा गया, और उन्हें अपवित्र माना जाता था। मनुस्मृति में चाण्डालों के लिए कठोर नियम थे, जैसे गांव के बाहर रहना और रात में नगर में प्रवेश न करना। हालांकि, गैर-ब्राह्मणीय स्रोत, जैसे बौद्ध ग्रंथ, इन नियमों के प्रति प्रतिरोध को दर्शाते हैं। मातंग जातक की कहानी में बोधिसत्त, जो एक चाण्डाल के रूप में जन्म लेते हैं, सामाजिक भेदभाव का विरोध करते हैं और ज्ञान व नैतिकता को जन्म से ऊपर रखते हैं।
बौद्ध ग्रंथों में यह विचार भी प्रस्तुत किया गया कि सामाजिक असमानता जन्मजात नहीं, बल्कि मानवीय कर्मों का परिणाम है। सुत्तपिटक में वर्णित मिथक के अनुसार, राजा का चयन लोगों द्वारा किया जाता था, और कर (टैक्स) उनकी सेवाओं का बदला था। यह सामाजिक अनुबंध का एक प्रारंभिक रूप था, जो ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से भिन्न था।
विवाह और बंधुत्व: सामाजिक संरचना का आधार
विवाह और बंधुत्व ने जाति व्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्राह्मणीय व्यवस्था में बहिर्विवाह (गोत्र से बाहर विवाह) और पितृवंशिकता को प्राथमिकता दी गई, जहां पुत्र पिता की संपत्ति के उत्तराधिकारी होते थे। मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है, जिनमें से पहले चार को “उत्तम” माना गया। हालांकि, सातवाहन राजाओं के अभिलेखों से पता चलता है कि दक्षिण भारत में अंतर्विवाह (बंधुओं के बीच विवाह) और मातृनामों का उपयोग प्रचलित था, जो ब्राह्मणीय नियमों से भिन्न था।
महाभारत में द्रौपदी का बहुपति विवाह एक असामान्य उदाहरण है, जो संभवतः हिमालय क्षेत्र की प्रथाओं को दर्शाता है। इस प्रथा को ग्रंथ में औचित्य प्रदान करने के लिए कई स्पष्टीकरण दिए गए, जो यह दर्शाते हैं कि सामाजिक प्रथाएं समय के साथ बदल रही थीं और ब्राह्मण लेखकों ने इन्हें अपनी व्यवस्था में समाहित करने का प्रयास किया।
संपत्ति और सामाजिक हैसियत
संपत्ति का स्वामित्व सामाजिक हैसियत का एक महत्वपूर्ण निर्धारक था। मनुस्मृति के अनुसार, पैतृक संपत्ति का बंटवारा पुत्रों के बीच होता था, लेकिन स्त्रियां इसमें हिस्सा नहीं ले सकती थीं। हालांकि, स्त्रीधन (विवाह के समय मिले उपहार) पर उनका अधिकार होता था। बौद्ध और तमिल संगम साहित्य में यह विचार देखा जाता है कि संपत्ति का बंटवारा और दानशीलता सामाजिक प्रतिष्ठा को बढ़ाती थी। पुरुनारुरू में एक निर्धन सरदार की दानशीलता की प्रशंसा की गई है, जो दर्शाता है कि सामाजिक सम्मान संपत्ति के साथ-साथ नैतिक व्यवहार पर भी निर्भर करता था।
महाभारत: सामाजिक इतिहास का दर्पण
महाभारत, जो लगभग 500 ई.पू. से एक हजार वर्षों तक रचा गया, सामाजिक प्रथाओं और मानदंडों का एक समृद्ध स्रोत है। यह ग्रंथ न केवल कौरव-पांडव युद्ध की कहानी है, बल्कि सामाजिक आचार-विचार, बंधुत्व और जाति व्यवस्था के विकास को भी दर्शाता है। इसके समालोचनात्मक संस्करण (1919-1966) से पता चलता है कि उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में इसकी पांडुलिपियों में समानताएं और क्षेत्रीय विभिन्नताएं थीं। यह ग्रंथ ब्राह्मणीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है, लेकिन इसमें गैर-ब्राह्मणीय प्रथाओं, जैसे अंतर्विवाह और बहुपति विवाह, का भी उल्लेख है जो सामाजिक विविधता को दर्शाता है।
निष्कर्ष
जाति व्यवस्था का विकास एक गतिशील प्रक्रिया थी, जो ब्राह्मणीय आदर्शों और क्षेत्रीय प्रथाओं के बीच संवाद से प्रभावित हुई। वर्ण व्यवस्था ने समाज को एक कठोर ढांचा प्रदान किया, लेकिन जातियों ने इस ढांचे को अधिक लचीला और विविध बनाया। बौद्ध और तमिल साहित्य जैसे गैर-ब्राह्मणीय स्रोतों ने इस व्यवस्था की आलोचना की और वैकल्पिक सामाजिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। महाभारत जैसे ग्रंथ इस जटिल सामाजिक इतिहास को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन हैं, जो न केवल प्राचीन भारत की सामाजिक संरचना को दर्शाते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि सामाजिक नियम और प्रथाएं समय के साथ कैसे बदलती रहीं।