MP Board Class 12 History Status of women and Shudras

स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति

MP Board Class 12 History Status of women and Shudras

MP Board Class 12 History Status of women and Shudras : प्राचीन भारतीय समाज में विशेष रूप से 600 ई.पू. से 600 ईसवी तक के कालखंड में वर्ण व्यवस्था और सामाजिक मानदंडों ने स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति को गहरे रूप से प्रभावित किया। यह लेख महाभारत, धर्मसूत्र, धर्मशास्त्र (विशेषकर मनुस्मृति) और गैर-ब्राह्मणीय स्रोतों जैसे बौद्ध और तमिल संगम साहित्य के आधार पर इन समूहों की सामाजिक स्थिति, अधिकारों और चुनौतियों का विश्लेषण करता है।

वर्ण व्यवस्था में स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति

वर्ण व्यवस्था जैसा कि ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में वर्णित है समाज को चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—में विभाजित करती थी। इस व्यवस्था में ब्राह्मण सर्वोच्च और शूद्र सबसे निचले स्तर पर थे। स्त्रियों को वर्ण व्यवस्था में स्पष्ट रूप से वर्गीकृत नहीं किया गया, लेकिन उनकी स्थिति सामाजिक और लैंगिक मानदंडों द्वारा निर्धारित होती थी। मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पू.-200 ईसवी) जैसे ब्राह्मणीय ग्रंथों ने स्त्रियों और शूद्रों के लिए कठोर नियम निर्धारित किए, जो उनकी सामाजिक गतिशीलता और अधिकारों को सीमित करते थे।

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1. स्त्रियों की स्थिति

ब्राह्मणीय दृष्टिकोण और नियम:

  • पितृवंशिकता और संपत्ति: ब्राह्मणीय व्यवस्था में पितृवंशिकता को प्राथमिकता दी गई, जिसमें पुत्र पिता की संपत्ति और संसाधनों के उत्तराधिकारी होते थे। मनुस्मृति के अनुसार, पैतृक संपत्ति का बंटवारा केवल पुत्रों के बीच होता था और स्त्रियों को इसमें कोई हिस्सा नहीं मिलता था। हालांकि, विवाह के समय प्राप्त उपहार (स्त्रीधन) पर उनका अधिकार होता था, जिसे उनकी संतान विरासत में ले सकती थी। मनुस्मृति ने स्त्रियों को पति की आज्ञा के बिना संपत्ति के संचय या उपयोग की अनुमति नहीं दी।
  • विवाह और गोत्र: ब्राह्मणीय प्रथा में बहिर्विवाह (गोत्र से बाहर विवाह) को आदर्श माना गया। विवाह के बाद स्त्री अपने पिता के गोत्र को छोड़कर पति के गोत्र की मानी जाती थी। कन्यादान को पिता का धार्मिक कर्तव्य माना जाता था और कन्याओं का विवाह “उचित” समय और व्यक्ति से सुनिश्चित करने के लिए उनके जीवन को सख्ती से नियंत्रित किया जाता था। मनुस्मृति में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों में से पहले चार को “उत्तम” माना गया, जो पिता या परिवार के निर्णय पर आधारित थे।
  • सामाजिक नियंत्रण: महाभारत में द्रौपदी के द्यूत क्रीड़ा प्रकरण से पता चलता है कि पत्नियों को पति की संपत्ति के रूप में देखा जाता था। युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को दांव पर लगाने और बाद में इसकी नैतिकता पर बहस से यह स्पष्ट होता है कि स्त्रियों की स्वायत्तता सीमित थी। हालांकि द्रौपदी का यह प्रश्न कि क्या युधिष्ठिर स्वयं को हारने के बाद उसे दांव पर लगा सकते थे, सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाता है।

गैर-ब्राह्मणीय संदर्भ और अपवाद:

  • उच्च वर्ग की स्त्रियां: कुछ उच्च वर्ग की महिलाएं, जैसे वाकाटक महिषी प्रभावती गुप्त, ने सत्ता और संसाधनों पर नियंत्रण रखा, जो सामान्य नियमों से परे था। प्रभावती गुप्त ने अपने शासनकाल में महत्वपूर्ण प्रशासनिक भूमिका निभाई।
  • गैर-ब्राह्मणीय प्रथाएं: सातवाहन राजवंश के अभिलेखों से पता चलता है कि दक्षिण भारत में कुछ रानियां अपने पिता के गोत्र को बनाए रखती थीं, जो ब्राह्मणीय नियमों के विपरीत था। द्रौपदी का बहुपति विवाह, जो हिमालय क्षेत्र में प्रचलित प्रथा को दर्शाता है, ब्राह्मणीय आदर्शों से भिन्न था और इसके लिए ग्रंथ में कई स्पष्टीकरण दिए गए।
  • मातृनाम और महत्व: सातवाहन राजाओं को उनके मातृनामों (जैसे गोतमी-पुत्त) से जाना जाता था, जो माताओं के महत्व को दर्शाता है। बृहदारण्यक उपनिषद में भी कई आचार्यों और शिष्यों को उनके मातृनामों से चिह्नित किया गया, जो मातृसत्तात्मक प्रभाव को इंगित करता है।

2. शूद्रों की स्थिति

ब्राह्मणीय दृष्टिकोण और नियम:

  • निम्न स्थिति: वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को सबसे निचले स्तर पर रखा गया था। धर्मसूत्र और धर्मशास्त्रों के अनुसार, उनकी एकमात्र “जीविका” उच्च वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) की सेवा करना था। उनकी सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता को सख्ती से सीमित किया गया।
  • चाण्डाल और अस्पृश्यता: शूद्रों में भी कुछ समूह, जैसे चाण्डाल, जिन्हें अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने जैसे “अपवित्र” कार्य करने पड़ते थे, को और भी निम्न माना जाता था। मनुस्मृति में चाण्डालों के लिए कठोर नियम थे, जैसे गांव के बाहर रहना, फटे वस्त्र पहनना, और रात में नगर में प्रवेश न करना। चीनी तीर्थयात्री फा-शिएन (5वीं शताब्दी ईसवी) और श्वैन-त्सांग (7वीं शताब्दी ईसवी) ने भी अस्पृश्यों की ऐसी स्थिति का उल्लेख किया।
  • नियंत्रण के उपाय: ब्राह्मणों ने शूद्रों की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए वर्ण व्यवस्था को दैवीय बताकर और शासकों को इसका पालन करने के लिए प्रेरित करके अपनी प्रभुता बनाए रखी। महाभारत में एकलव्य की कहानी इस नियंत्रण को दर्शाती है, जहां निषाद (शिकारी समुदाय) के एकलव्य को ब्राह्मण द्रोण ने धनुर्विद्या का शिष्य बनने से मना कर दिया और उससे उसका अंगूठा मांग लिया, ताकि वह अर्जुन से बेहतर न बन सके।

गैर-ब्राह्मणीय दृष्टिकोण और प्रतिरोध:

  • बौद्ध दृष्टिकोण: बौद्ध ग्रंथों ने वर्ण व्यवस्था की जन्म-आधारित हैसियत को अस्वीकार किया। मज्झिमनिकाय में अवन्तिपुत्र और कच्चन के संवाद में यह तर्क दिया गया कि धन और संसाधनों के आधार पर शूद्र भी अन्य वर्णों के बराबर हो सकता है। यदि एक शूद्र धनी हो, तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को अपने अधीन रख सकता है। यह सामाजिक असमानता को मानवीय कर्मों का परिणाम मानता है, न कि दैवीय व्यवस्था का।
  • मातंग जातक: पालि भाषा के मातंग जातक में बोधिसत्त, जो एक चाण्डाल के रूप में जन्म लेते हैं, सामाजिक भेदभाव का विरोध करते हैं। मातंग, ब्राह्मणों को भोजन देने वाले अपने पुत्र माण्डव्य को यह सिखाते हैं कि ज्ञान और नैतिकता जन्म से अधिक महत्वपूर्ण हैं। यह कहानी शूद्रों और चाण्डालों द्वारा ब्राह्मणीय व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध को दर्शाती है।
  • तमिल संगम साहित्य: पुरुनारुरू जैसे तमिल ग्रंथों में दानशीलता को सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार माना गया। एक निर्धन सरदार, जो अपनी संपत्ति दूसरों के साथ बांटता था, को सम्मानित किया गया, जो यह दर्शाता है कि सामाजिक हैसियत केवल वर्ण पर नहीं, बल्कि व्यवहार और संसाधनों के उपयोग पर भी निर्भर थी।

सामाजिक गतिशीलता और अपवाद

हालांकि ब्राह्मणीय व्यवस्था ने स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति को सीमित करने का प्रयास किया, सामाजिक गतिशीलता के कई उदाहरण इन नियमों को चुनौती देते हैं:

  • स्त्रियों में गतिशीलता: उच्च वर्ग की कुछ महिलाएं, जैसे प्रभावती गुप्त, ने सत्ता और संसाधनों पर नियंत्रण रखा। सातवाहन रानियों के मातृनाम और गोत्र के उपयोग से पता चलता है कि दक्षिण भारत में ब्राह्मणीय नियमों का पालन पूरी तरह नहीं होता था। द्रौपदी का बहुपति विवाह भी एक वैकल्पिक प्रथा को दर्शाता है, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने औचित्य प्रदान करने का प्रयास किया।
  • शूद्रों में गतिशीलता: बौद्ध ग्रंथों में धनी शूद्रों की स्थिति को स्वीकार किया गया। मंदसौर के रेशम बुनकरों जैसे समुदायों ने न केवल अपने शिल्प में विशेषज्ञता दिखाई, बल्कि मंदिर निर्माण जैसे कार्यों में भी भाग लिया, जो सामाजिक गतिशीलता को दर्शाता है।

महाभारत: स्त्रियों और शूद्रों का चित्रण

महाभारत (लगभग 500 ई.पू.-400 ईसवी) स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति को समझने का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह ग्रंथ ब्राह्मणीय आदर्शों, जैसे पितृवंशिकता और बहिर्विवाह, को प्रस्तुत करता है, लेकिन साथ ही सामाजिक जटिलताओं को भी दर्शाता है।

  • स्त्रियों का चित्रण: द्रौपदी का द्यूत क्रीड़ा प्रकरण और उसका प्रश्न कि क्या युधिष्ठिर उसे दांव पर लगा सकते थे, स्त्रियों की सीमित स्वायत्तता और उनके संपत्ति के रूप में देखे जाने की प्रवृत्ति को उजागर करता है। गांधारी द्वारा अपने पुत्र दुर्योधन को युद्ध न करने की सलाह देना दर्शाता है कि कुछ स्त्रियां नैतिक और सामाजिक प्रभाव डाल सकती थीं, लेकिन उनकी भूमिका परिवार तक सीमित थी।
  • शूद्रों का चित्रण: एकलव्य की कहानी शूद्रों और निषादों की निम्न स्थिति को दर्शाती है, लेकिन उनकी तीरंदाजी में निपुणता सामाजिक गतिशीलता की संभावना को इंगित करती है। ब्राह्मण द्रोण का उनका अंगूठा मांगना इस गतिशीलता को दबाने का प्रयास था।

महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण (1919-1966) से पता चलता है कि विभिन्न क्षेत्रीय पांडुलिपियों में सामाजिक प्रथाओं की विविधता थी, जो उपमहाद्वीप की सामाजिक जटिलता को दर्शाती है।

निष्कर्ष

प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों और शूद्रों की स्थिति को ब्राह्मणीय वर्ण व्यवस्था ने कठोर नियमों के माध्यम से सीमित करने का प्रयास किया। स्त्रियों को संपत्ति में सीमित अधिकार और पितृवंशिक व्यवस्था में अधीनस्थ भूमिका दी गई जबकि शूद्रों को उच्च वर्णों की सेवा तक सीमित रखा गया। हालांकि गैर-ब्राह्मणीय स्रोतों, जैसे बौद्ध और तमिल संगम साहित्य, ने इन नियमों को चुनौती दी और सामाजिक गतिशीलता के वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। सातवाहन और प्रभावती गुप्त जैसे उदाहरण दर्शाते हैं कि सामाजिक स्थिति जन्म से परे संसाधनों, व्यवहार और क्षेत्रीय प्रथाओं पर भी निर्भर करती थी। महाभारत जैसे ग्रंथ इस जटिल सामाजिक परिदृश्य को समझने का एक समृद्ध स्रोत हैं, जो न केवल ब्राह्मणीय आदर्शों को दर्शाते हैं, बल्कि सामाजिक विविधता और प्रतिरोध को भी उजागर करते हैं।

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