MP Board 9th Hindi Kritika 1 Is Jal Pralay Men :
इस जल प्रलय में
फणीश्वरनाथ रेणु
मेरा गाँव ऐसे इलाके में है जहाँ हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की कोसी, पनार, महानंदा और गंगा की बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह आकर पनाह’ लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट परती’ पर गाय, बैल, भैंस, बकरों के हज़ारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज़ा लगाते हैं।
परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गाँव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किंतु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक – ब्वॉय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक कार्यकर्ता अथवा रिलीफ़वर्कर की हैसियत से बाढ़ – पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूँ और लिखने की बात? हाईस्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर – धर्मयुग में ‘कथा – दशक’ के अंतर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नए पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूँ। जय गंगा (1947), डायन कोसी (1948), हड्डियों का पुल (1948) आदि छुटपुट रिपोर्ताज के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किंतु गाँव में रहते हुए बाढ़ से घिरने बहने, भंसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। वह तो पटना में सन् 1967 में ही हुआ, जब अट्ठारह घंटे की अविराम शहर वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसीलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छातीभर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू. मोमबत्ती, दियासलाई पीने का पानी और कांपोज की गोलियाँ जमाकर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे ।
सुबह सुना, राजभवन और मुख्यमंत्री निवास प्लावित हो गया है। दोपहर में सूचना मिली, गोलघर जल से घिर गया है! (यों, सूचना बाँग्ला में इस वाक्य से मिली थी- ‘जानो ! गोलघर डूबे गेछे!’) और पाँच बजे जब कॉफ़ी हाउस जाने के लिए ( तथा शहर का हाल मालूम करने) निकला तो रिक्शेवाले ने हँसकर कहा–“ अब कहाँ जाइएगा? कॉफ़ी हाउस में तो ‘ अबले’ पानी आ गया होगा । “
“चलो, पानी कैसे घुस गया है, वही देखना है।” कहकर हम रिक्शा पर बैठ गए। साथ में नयी कविता के एक विशेषज्ञ व्याख्याता – आचार्य – कवि मित्र थे, जो मेरी अनवरत – अनर्गल’ – अनगढ़’ गद्यमय स्वगतोक्ति’ से कभी बोर नहीं होते ( धन्य हैं!)।

मोटर, स्कूटर, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल, ट्रक, टमटम, साइकिल, रिक्शा पर और ‘चैदल लोग पानी देखने जा रहे हैं, लोग पानी देखकर लौट रहे हैं। देखने वालों की आँखों में, जुबान पर एक ही जिज्ञासा-“पानी कहाँ तक आ गया हैं?” देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत-“फ्रेजर रोड पर आ गया! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृष्णापुरी, पाटलिपुत्र कालोनी, बोरिंग रोड? इंडस्ट्रयिल एरिया का कहीं पता नहीं…अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा।…छातीभर पानी है। वीमेंस कॉलेज के पास “डुबाव-पानी’ है।…आ रहा है!…आ गया!!…घुस गया…डूब गया…डूब गया…बह गया!
हम जब कॉफ़ी हाउस के पास पहुँचे, कॉफ़ी हाउस बंद कर दियां गया था।
सड़क के एक किनारे एक मोटी डोरी की शक्ल में गेरुआ-ज्ञाग-फेन में उलज्ञा
‘चानी तेज़ी से सरकता आ रहा था। मैंने कहा-* आचार्य जी, आगें जाने की ज़रूरत
नहीं। वो देखिए-आ रहा है…मृत्यु का तरल दूत!

आतंक के मारे मेरे दोनों हाथ बरबस जुड़ गए और संभय प्रणाम-निवेदन में मेरे
मुँह से कुछ अस्फुट’ शब्द निकले (हाँ, मैं बहुत कायर और डरपोक हूँ!)।
‘रिक्शावाला बहादुर है कहता है-‘चलिए न, थोड़ा और आगे!’
भीड़ का एक आदमी बोला-*ए रिक्शा, करेंट बहुत तेज़ है। आगे मत जाओ।”
मैंने रिक्शावाले से अनुनय भरे स्वर में कहा-“लौय ले भैया। आगे बढ़ने की
‘खरूरत नहीं।”
रिक्शा मोड़कर हम अप्सरा’ सिनेमा हॉल (सिनेमा-शो बंद!) के बगल से गांधी मैदान की ओर चलें। पैलेस होटल और इंडियन एयरलाइंस दफ़्तर के सामने चानी भर रहा था। पानी की तेज़ धारा पर लाल-हरे नियन’ विज्ञापनों की परछाइयोँ सैकड़ों रंगीन साँपों कीं सृष्टि कर रही थीं। गांधी मैदान की रेलिंग के सहारे हज़ारों लोग खड़े देख रहें थे। दशहरा के दिन रामलीला के ‘राम’ के रथ की प्रतीक्षा में जितने लोग रहते हैं, उससे कम नहीं थे…गांधी मैदान के आनंद-उत्सव, सभा-सम्मेलन और खेलकूद की सारी स्मृतियों पर धीरे-धीरे एक गैरिक आवरण
“
आच्छादित’ हो रहा था। हरियाली पर शनैः-शनैः पानी फिरते देखने का अनुभव सर्वथा नया था। इसी बीच एक अधेड़ मुस्टंड और गँवार ज़ोर-ज़ोर से बोल उठा-“ईह! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियाँ बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए… अब बूझो ! “
मैंने अपने आचार्य – कवि मित्र से कहा – ” पहचान लीजिए। यही है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र दीजिए… ‘
“शाम के साढ़े सात बज चुके और आकाशवाणी के पटना- केंद्र स्थानीय समाचार प्रसारित हो रहा था। पान की दुकानों के सामने खड़े लोग, चुपचाप, उत्कर्ण होकर सुन रहे थे……. पानी हमारे स्टूडियो की सीढ़ियों तक पहुँच चुका स्टूडियो में प्रवेश कर सकता है।” और किसी भी क्षण समाचार दिल दहलाने वाला था। कलेजा धड़क उठा। मित्र के चेहरे पर भी आतंक की कई रेखाएँ उभरी। किंतु हम तुरंत ही सहज हो गए; यानी चेहरे पर चेष्टा करके सहजता ले आए, क्योंकि हमारे चारों ओर कहीं कोई परेशान नजर नहीं आ रहा था। पानी देखकर लौटते हुए लोग आम दिनों की तरह हँस-बोल रहे थे; बल्कि आज तनिक अधिक ही उत्साहित थे। हाँ, दुकानों में थोड़ी हड़बड़ी थी। नीचे के सामान ऊपर किए जा रहे थे। रिक्शा, टमटम ट्रक और टेम्पो पर सामान लादे जा रहे थे। खरीद-बिक्री बंद हो चुकी थी । पानवालों की बिक्री अचानक बढ़ गई थी। आसन्न संकट से कोई प्राणी आतंकित नहीं दिख रहा था।
… पानवाले के आदमकद आईने में उतने लोगों के बीच हमारी ही सूरतें ‘मुहर्रमी’ नजर आ रही थीं। मुझे लगा, अब हम यहाँ थोड़ी देर भी ठहरेंगे तो वहाँ खड़े लोग किसी भी क्षण ठठाकर हम पर हँस सकते थे- “ जरा इन बुजदिलों का हुलिया देखो ! ” क्योंकि वहाँ ऐसी ही बातें चारों ओर से उछाली जा रही थीं- ” एक बार डूब ही जाए !… धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं!… सब पाप धुल जाएगा… चलो, गोलघर के मुँडे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाएँ… बिस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं?… भई, यही माकूल मौका है। इनकम टैक्सवालों को ऐन इसी मौके पर काले कारबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए । आसामी बा-माल…”
राजेंद्रनगर चौराहे पर ‘मैगजीन कॉर्नर’ की आखिरी सीढ़ियों पर पत्र-पत्रिकाएँ पूर्ववत् बिछी हुई थीं। सोचा, एक सप्ताह की खुराक एक ही साथ ले लूँ। क्या – क्या ले लू?….हेडली चेज़, या एक ही सप्ताह में फ्रेंच / जर्मन सिखा देने वाली किताबें अथवा ‘योग’ सिखाने वाली कोई सचित्र किताब ? मुझे इस तरह किताबों को उलटते-पलटते देखकर दुकान का नौजवान मालिक कृष्णा पता नहीं क्यों मुसकराने लगा। किताबों को छोड़ कई हिंदी – बाँग्ला और अंग्रेज़ी सिने पत्रिकाएँ लेकर लौटा। मित्र से विदा होते हुए कहा – “पता नहीं, कल हम कितने पानी में रहें ।… बहरहाल, जो कम पानी में रहेगा। वह ज्यादा पानी में फँसे मित्र की सुधि लेगा । “
फ़्लैट में पहुँचा ही था कि ‘जनसंपर्क’ की गाड़ी भी लाउडस्पीकर से घोषणा करती हुए राजेंद्रनगर पहुँच चुकी थी। हमारे ‘गोलंबर’ के पास कोई भी आवाज़, चारों बड़े ब्लॉकों की इमारतों से टकराकर मँडराती हुई, चार बार प्रतिध्वनित होती है। सिनेमा अथवा लॉटरी की प्रचारगाड़ी यहाँ पहुँचते ही ‘भाइयो’ पुकारकर एक क्षण के लिए चुप हो जाती है। पुकार मँडराती हुई प्रतिध्वनित होती है – भाइयो…. भाइयो…भाइयो…! एक अलमस्त जवान रिक्शाचालक है जो अकसर रात के सन्नाटे में सवारी पहुँचाकर लौटते समय इस गोलंबर के पास अलाप उठता ‘सुन मेरे बंधु रे – ए – न… सुन मोरे मितवा – वा-वा-य… ‘
गोलंबर के पास जनसंपर्क की गाड़ी से ऐलान किया जाने लगा – ” भाइयो! ऐसी संभावना है… कि बाढ़ का पानी… रात्रि के करीब बारह बजे तक… लोहानीपुर, कंकड़बाग…और राजेंद्रनगर में…घुस जाए। अतः आप लोग सावधान हो जाएँ। (प्रतिध्वनि – सावधान हो जाएँ! सावधान हो जाएँ !! )
मैंने गृहस्वामिनी से पूछा – ” गैस का क्या हाल है?”
” बस, उसी का डर है। अब खत्म होने वाला है। असल में सिलिंडर में ‘मीटर – उटर’ की तरह कोई चीज नहीं होने से कुछ पता नहीं चलता। लेकिन, अंदाज़ है कि एक या दो दिन… कोयला है। स्टोव है। मगर किरासन एक ही बोतल…. ” फिलहाल, बहुत है … बाढ़ का भी यही हाल है। मीटर उटर की तरह कोई चीज़ नहीं होने से पता नहीं चलता कि कब आ धमके। ” मैंने कहा ।
सारे राजेंद्रनगर में ‘सावधान – सावधान’ ध्वनि कुछ देर गूँजती रही। ब्लॉक के नीचे की दुकानों से सामान हटाए जाने लगे। मेरे फ़्लैट के नीचे के दुकानदार ने पता नहीं क्यों, इतना कागज़ इकट्ठा कर रखा था! एक अलाव लगाकर सुलगा दिया। हमारा कमरा धुएँ से भर गया।
सारा शहर जगा हुआ है । पच्छिम की ओर कान लगाकर सुनने की चेष्टा करता हूँ…हाँ पीरमुहानी या सालिमपुरा – अहरा अथवा जनक किशोर नवलकिशोर रोड की ओर से कुछ हलचल की आवाज़ आ रही है। लगता है, एक-डेढ़ बजे रात तक पानी राजेंद्रनगर पहुँचेगा।
सोने की कोशिश करता हूँ। लेकिन नींद आएगी भी? नहीं, कांपोज़ की टिकिया अभी नहीं। कुछ लिखूँ? किंतु क्या लिखूं.. कविता ? शीर्षक – बाढ़ आकुल प्रतीक्षा ? धत्! तरह!
नींद नहीं, स्मृतियाँ आने लगीं – एक – एक कर। चलचित्र के बेतरतीब दृश्यों की 1947… मनिहारी (तब पूर्णिया, अब कटिहार जिला) के इलाके में गुरुजी (स्व. सतीनाथ भादुड़ी) के साथ गंगा मैया की बाढ़ से पीड़ित क्षेत्र में हम नाव पर जा रहे हैं। चारों ओर पानी ही पानी दूर एक ‘द्वीप’ जैसा बालूचर दिखाई पड़ा। हमने कहा, वहाँ चलकर जरा चहलकदमी करके टाँगें सीधी कर लें। भादुड़ी जी कहते हैं-
” किंतु, सावधान! ऐसी जगहों पर कदम रखने के पहले यह मत भूलना कि तुमसे पहले ही वहाँ हर तरह के प्राणी शरणार्थी के रूप में मौजूद मिलेंगे” और सचमुच चींटी- चींटे से लेकर साँप बिच्छू और लोमड़ी – सियार तक यहाँ पनाह ले रहे थे… भादुड़ी जी की हिदायत थी – हर नाव पर ‘पकाही घाव’ (पानी में पैर की उँगलियाँ सड़ जाती हैं। तलवों में भी घाव हो जाता है) की दवा, दियासलाई की डिबिया और किरासन तेल रहना चाहिए और सचमुच हम जहाँ जाते, खाने-पीने की चीज़ से पहले ‘पकाही घाव’ की दवा और दियासलाई की माँग होती…..
1949…उस बार महानंदा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गाँव में हम पहुँचे। हमारी नाव पर रिलीफ़ के डाक्टर साहब थे। गाँव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाना था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुंई – कुंई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डाक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत हो गए और चिल्लाने लगे “आ रे! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं .कुकुर को भगाओ ! ” बीमार नौजवान छप से पानी में उतर गया – “हमार कुकुर नहीं जाएगा तो हम हुँ नहीं जाएगा।” फिर कुत्ता भी छपाक पानी में गिरा – ” हमारा आदमी नहीं जाएगा तो हम हुँ नहीं जाएगा “… परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी” ( मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बाँटने गए। खबर मिली थी वे कई दिनों से मछली और चूहों को झुलसाकर खा रहे हैं। किसी तरह जी रहे हैं। किंतु टोले के पास जब हम पहुँचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज़ सुनाई पड़ी। जाकर देखा, एक ऊँची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही” नाच हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला कलूटा ‘नटुआ’ दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी वह ‘धानी’ है। ‘घरनी’ (धानी) घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला ( पुरुष ) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा- ‘धागिड़गिड़ – धागिड़गिड़-चकैके चकधुम चकैके चकधुम-चकधुम चकधुम ! ‘
कीचड़ – पानी में लथपथ भूखे-प्यासे – नर-नारियों के झुंड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ़ बाँटकर भी ऐसी हँसी उन्हें दे सकेंगे क्या ! (शास्त्री जी, आप कहाँ है ?) बलवाही नाच की बात उठते ही मुझे अपने परम मित्र भोला शास्त्री की याद हमेशा क्यों आ जाती है? यह एक बार, 1937 में, सिमरवनी – शंकरपुर में बाढ़ के समय ‘नाव’ को लेकर लड़ाई हो गई थी। मैं उस समय ‘बालचर’ (ब्वाय स्काउट) था। गाँव के लोग नाव के अभाव में केले के पौधे का ‘भेला’ बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे और वहीं जमींदार के लड़के नाव पर हरमोनियम – तबला के साथ झिझिर ( जल-विहार) करने निकले थे। गाँव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी। थोड़ी मारपीट भी हुई थी ….
और 1967 में जब पुनपुन का पानी राजेंद्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली किसी फ़िल्म में देखे हुए कश्मीर का आनंद घर बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था – केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नेस्कैफे के पाउडर को मथ रही थी- ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद । दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी । एक युवक दोनों पाँवों को फैलाकर बाँस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़ने वाली लड़की के सामने अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलॉग’ बोल रहा था। पूरे ‘वॉल्यूम’ में बजते हुए ‘ट्रांजिस्टर’ पर गाना आ रहा था-‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी ! ‘ हमारे ब्लॉक के पास गोलंबर में नाव पहुँची थी कि अचानक चारों ब्लॉक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलंबर में किसी भी आवाज़ की प्रतिध्वनि मँडरा – मँडराकर गूँजती है। सो सब मिलाकर स्वयं ही जो ध्वनि संयोजन हुआ, उसे बड़े-से-बड़े गुणी संगीत निर्देशक बहुत कोशिश के बावजद नहीं कर पाते। उन फहड यवकों की सारी “एक्ज़बिशनिज्म” तुरंत छूमंतर हो गई और युवतियों के रंगे लाल-लाल ओंठ और गाल काले पड़ गए। नाव पर अकेला ट्रांजिस्टर था जो पूरे दम के साथ मुखर -‘नैया तोरी मंझधार, होश्यार होश्यार’! था-
” काहो रामसिंगार, पनियां आ रहलो है?”
“ऊँहूँ, न आ रहलौ है। “
ढाई बज गए, मगर पानी अब तक आया नहीं, लगता है कहीं अटक गया, अथवा जहाँ तक आना था आकर रुक गया, अथवा तटबंध पर लड़ते हुए इंजीनियरों की जीत हो गई शायद, या कोई दैवी चमत्कार हो गया! नहीं तो पानी कहीं भी जाएगा तो किधर से? रास्ता तो इधर से ही है… चारों ब्लॉकों के प्राय: सभी फ़्लैटों की रोशनी जल रही है, बुझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डाँटकर चुप करा देती है। चौप… चौप!
मुझे अचानक अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आई जो कल से ही पाटलिपुत्र कॉलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं… जितेंद्र जी, विनीता जी, बाबू भैया, इंदिरा जी पता नहीं कैसे हैं- किस हाल में हैं वे! शाम को एक बार पड़ोस में जाकर टेलीफ़ोन करने के लिए चोंगा उठाया – बहुत देर तक कई नंबर डायल करता रहा। उधर सन्नाटा था एकदम । कोई शब्द नहीं – ‘ टुंग फुंग’ कुछ भी नहीं।
बिस्तर पर करवट लेते हुए फिर एक बार मन में हुआ, कुछ लिखना चाहिए। लेकिन क्या लिखना चाहिए? कुछ भी लिखना संभव नहीं और क्या जरूरी है कि कुछ लिखा ही जाए ? नहीं। फिर स्मृतियों को जगाऊँ तो अच्छा… पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना चकरदाहा गाँव के पास छातीभर पानी में खड़ी एक आसन्न प्रवा हमारी ओर गाय की तरह टुकुर टुकुर देख रही थी….
नहीं, अब भूली-बिसरी याद नहीं। बेहतर है, आँखें मूंदकर सफ़ेद भेड़ों के झुंड देखने की चेष्टा करूँ… उजले-उजले सफ़ेद भेड़… सफ़ेद भेड़ों के झुंड । झुंड… किंतु
सभी उजले भेड़ अचानक काले हो गए। बार- बार आँखें खोलता हूँ, मूँदता हूँ। काले को उजला करना चाहता हूँ। भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं। उजले भेड़… उजले भेड़ …. काले भूरे… किंतु उजले… उजले…. गेहुएँ रंग के भेड़…!
‘ओई द्याखो – एसे गेछे जल ! – झकझोरकर मुझे जगाया गया। घड़ी देखी, ठीक साढ़े पाँच बज रहे थे। सवेरा हो चुका था…आ रहलौ है ! आ रहलौ है पनियां । पानी आ गेला । हो रामसिंगार ! हो मोहन ! रामचन्नर – अरे हो….
आँखें मलता हुआ उठा। पच्छिम की ओर थाना के सामने झाग फेन लिए पानी आ रहा है; पास देखा था। पानी के साथ-साथ सड़क पर मोटी डोली की शक्ल में मुँह में ठीक वैसा ही जैसा शाम को कॉफ़ी हाउस के चलता हुआ, किलोल करता हुआ बच्चों का एक दल… उधर पच्छिम-दक्षिण कोने पर दिनकर अतिथिशाला से और आगे बस्ती के पास बच्चे कूद क्यों रहे हैं? नहीं, बच्चे नहीं, पानी है। वहाँ मोड़ है, थोड़ा अवरोध है इसलिए पानी उछल रहा है… पच्छिम – उत्तर की ओर, ब्लॉक नंबर एक के पास पुलिस चौकी के पिछवाड़े में पानी का पहला रेला आया…ब्लॉक नंबर चार के नीचे सेठ की दुकान की बाएँ बाजू में लहरें नाचने लगीं। अब मैं दौड़कर छत पर चला गया। चारों ओर शोर-कोलाहल – कलरव-चीख-पुकार और पानी का कलकल रव । लहरों का नर्तन। सामने फुटपाथ को पार कर अब पानी
हमारे पिछवाड़े में सशक्त बहने लगा है। गोलबर के गोल पार्क के चारों ओर पानी नाच रहा है… आ गया, आ गया ! पानी बहुत तेजी से बढ़ रहा है, चढ़ रहा है, करेंट कितना तेज है? सोन का पानी है। नहीं, गंगा जी का है। आ गैलो….
सामने की दीवार की ईंटें जल्दी-जल्दी डूबती जा रही हैं। बिजली के खंभे का काला हिस्सा डूब गया। ताड़ के पेड़ का तना क्रमशः डूबता जा रहा है… डूब रहा है।
….अभी यदि मेरे पास मूवी कैमरा होता, अगर एक टेप – रिकार्डर होता! बाढ़ तो बचपन से ही देखता आया हूँ, किंतु पानी का इस तरह आना कभी नहीं देखा । अच्छा हुआ जो रात में नहीं आया। नहीं तो भय के मारे न जाने मेरा क्या हाल होता… देखते ही देखते गोल पार्क डूब गया। हरियाली लोप हो गई। अब हमारे चारों ओर पानी नाच रहा था…भूरे रंग के भेड़ों के झुंड। भेड़ दौड़ रहे हैं- भूरे भेड़, वह चायवाले की झोंपड़ी गई, चली गई। काश, मेरे पास एक मूवी कैमरा होता, एक टेप रिकार्डर होता…. तो क्या होता? अच्छा है, कुछ भी नहीं। कलम थी, वह भी चोरी चली गई। अच्छा है, कुछ भी नहीं- भी नहीं मेरे पास।
प्रश्न अभ्यास
- बाढ़ की खबर सुनकर लोग किस तरह की तैयारी करने लगे?
लोग बाढ़ की खबर सुनकर ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, पीने का पानी, और कांपोज की गोलियाँ जैसी आवश्यक वस्तुओं का इंतजाम करने लगे। दुकानों में सामान को नीचे से ऊपर उठाया जाने लगा, और रिक्शा, टमटम, ट्रक, और टेम्पो पर सामान लादकर सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया। - बाढ़ की सही जानकारी लेने और बाढ़ का रूप देखने के लिए लेखक क्यों उत्सुक था?
लेखक बाढ़ से प्रभावित क्षेत्रों में पहले भी काम कर चुका था और बाढ़ की विभीषिका को करीब से देख चुका था। हालांकि, उसने गाँव में रहते हुए बाढ़ से घिरने का अनुभव नहीं किया था। पटना में 1967 की बाढ़ में शहरी परिप्रेक्ष्य में बाढ़ का अनुभव होने के बाद, वह इस बार बाढ़ के वास्तविक रूप और प्रभाव को देखने और समझने के लिए उत्सुक था, विशेष रूप से कॉफी हाउस जैसे परिचित स्थान पर इसका प्रभाव जानने के लिए। - ‘सबकी जबान पर एक ही जिज्ञासा – पानी कहाँ तक आ गया है?’ – इस कथन से जनसमूह की कौन-सी भावनाएँ व्यक्त होती हैं?
इस कथन से जनसमूह की चिंता, उत्सुकता, और अनिश्चितता की भावनाएँ व्यक्त होती हैं। लोग बाढ़ के बढ़ते पानी के दायरे और प्रभाव को लेकर आशंकित थे, साथ ही वे स्थिति की गंभीरता को समझने और उसका सामना करने की तैयारी के लिए उत्सुक थे। यह जिज्ञासा उनके जीवन और संपत्ति की सुरक्षा से जुड़े भय को भी दर्शाती है। - ‘मृत्यु का तरल दूत’ किसे कहा गया है और क्यों?
‘मृत्यु का तरल दूत’ बाढ़ के पानी को कहा गया है। लेखक ने इसे इस तरह संबोधित किया क्योंकि बाढ़ का पानी तेजी से बढ़ता हुआ, विनाशकारी और भयावह रूप में आ रहा था, जो जीवन और संपत्ति के लिए खतरा बन सकता था। यह पानी मृत्यु का संदेशवाहक प्रतीत हो रहा था, क्योंकि यह अपने साथ विनाश और आतंक ला रहा था। - आपदाओं से निपटने के लिए अपनी तरफ से कुछ सुझाव दीजिए।
- पूर्व तैयारी: बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में तटबंधों का निर्माण और रखरखाव, जल निकासी प्रणाली को मजबूत करना।
- जागरूकता: स्थानीय लोगों को आपदा प्रबंधन और तैराकी जैसे कौशलों की ट्रेनिंग देना।
- आपातकालीन किट: हर घर में आवश्यक वस्तुओं जैसे भोजन, पानी, दवाइयाँ, और प्रकाश स्रोतों की किट तैयार रखना।
- सूचना तंत्र: समय पर और सटीक चेतावनी प्रणाली विकसित करना।
- राहत कार्य: त्वरित राहत और पुनर्वास योजनाओं को लागू करना, जिसमें नाव, चिकित्सा सुविधाएँ, और खाद्य आपूर्ति शामिल हों।
- ‘ईह! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियाँ बाबू लोग उलटकर देखने भी नहीं गए… अब बूझो!’ – इस कथन द्वारा लोगों की किस मानसिकता पर चोट की गई है?
इस कथन में शहरी लोगों की उदासीनता और ग्रामीण क्षेत्रों की आपदाओं के प्रति उनकी संवेदनहीनता पर चोट की गई है। यह दर्शाता है कि जब ग्रामीण क्षेत्र जैसे दानापुर बाढ़ से प्रभावित थे, तब शहर के लोग उनकी पीड़ा को नजरअंदाज करते थे। अब जब शहर स्वयं बाढ़ की चपेट में है, तो ग्रामीण व्यक्ति की यह टिप्पणी शहरी लोगों की स्वार्थी और असंवेदनशील मानसिकता को उजागर करती है। - खरीद-बिक्री बंद हो चुकने पर भी पान की बिक्री अचानक क्यों बढ़ गई थी?
बाढ़ के संकट के समय लोग तनाव और अनिश्चितता में थे, जिसके कारण वे पान जैसी चीजों का सेवन करने लगे, जो तनाव कम करने और मन को शांत करने में मदद करता है। इसके अलावा, पान की दुकानें सामाजिक मेलजोल का केंद्र होती हैं, जहाँ लोग समाचार और सूचनाएँ साझा करने के लिए इकट्ठा होते थे, जिससे पान की बिक्री बढ़ गई। - जब लेखक को यह अहसास हुआ कि उसके इलाके में भी पानी घुसने की संभावना है तो उसने क्या-क्या प्रबंध किए?
लेखक ने ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, पीने का पानी, और कांपोज की गोलियाँ जैसी आवश्यक वस्तुओं का प्रबंध किया। वह घर में इकट्ठा करके बाढ़ के पानी के आने की प्रतीक्षा करने लगा। - बाढ़ पीड़ित क्षेत्र में कौन-कौन सी बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है?
बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में निम्नलिखित बीमारियों के फैलने की आशंका रहती है:- पकाही घाव: पानी में लंबे समय तक रहने से पैरों में घाव और सड़न।
- पेचिश और दस्त: दूषित पानी और भोजन के कारण।
- मलेरिया और डेंगू: मच्छरों के प्रजनन के कारण।
- त्वचा रोग: गंदे पानी के संपर्क से।
- श्वसन संबंधी रोग: ठंड और नमी के कारण।
- नौजवान के पानी में उतरते ही कुत्ता भी पानी में कूद गया। दोनों ने किन भावनाओं के वशीभूत होकर ऐसा किया?
नौजवान और उसके कुत्ते ने आपसी लगाव, वफादारी, और एक-दूसरे के प्रति गहरी भावनात्मक बंधन के कारण ऐसा किया। नौजवान अपने कुत्ते को छोड़ने को तैयार नहीं था, और कुत्ता भी अपने मालिक के बिना रहने को तैयार नहीं था। यह उनके बीच की अटूट निष्ठा और स्नेह को दर्शाता है। - ‘अच्छा है, कुछ भी नहीं। कलम थी, वह भी चोरी चली गई। अच्छा है, कुछ भी नहीं मेरे पास।’ मूवी कैमरा, टेप रिकॉर्डर आदि की तीव्र उत्कंठा होते हुए भी लेखक ने अंत में उपर्युक्त कथन क्यों कहा?
लेखक ने मूवी कैमरा और टेप रिकॉर्डर की इच्छा व्यक्त की थी ताकि वह बाढ़ के दृश्यों को रिकॉर्ड कर सके, लेकिन अंत में उसने यह कथन इसलिए कहा क्योंकि उसे अहसास हुआ कि ऐसी आपदा के समय भौतिक साधनों का महत्व कम हो जाता है। वह स्थिति की गंभीरता और मानवीय संवेदनाओं के सामने अपनी रचनात्मक इच्छाओं को गौण मानने लगा। यह कथन उसकी आत्मस्वीकृति और वास्तविकता के प्रति समर्पण को दर्शाता है। - आपने भी देखा होगा कि मीडिया द्वारा प्रस्तुत की गई घटनाएँ कई बार समस्याएँ बन जाती हैं, ऐसी किसी घटना का उल्लेख कीजिए।
एक उदाहरण है 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान मीडिया द्वारा प्रवासी मजदूरों की स्थिति को अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना। कुछ समाचार चैनलों ने प्रवासियों के पैदल घर लौटने की खबरों को सनसनीखेज बनाकर दिखाया, जिससे घबराहट और अव्यवस्था बढ़ी। इससे सरकार और प्रशासन पर दबाव बढ़ा, और कई जगहों पर अफवाहें फैलने से स्थिति और जटिल हो गई। - अपनी देखी-सुनी किसी आपदा का वर्णन कीजिए।
2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ और भूस्खलन की आपदा एक भयावह अनुभव था। केदारनाथ और आसपास के क्षेत्रों में अचानक बादल फटने और भारी बारिश के कारण नदियाँ उफान पर आ गईं। हजारों लोग फँस गए, और कई मकान, सड़कें, और पुल बह गए। मैंने समाचारों और प्रत्यक्षदर्शियों के माध्यम से सुना कि तीर्थयात्री और स्थानीय लोग पहाड़ों पर फँस गए थे, और राहत कार्यों में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। हेलिकॉप्टरों से लोगों को निकालने और भोजन-पानी पहुँचाने की कोशिशें की गईं, लेकिन प्राकृतिक आपदा की तीव्रता ने सभी को स्तब्ध कर दिया। यह अनुभव प्रकृति की शक्ति और आपदा प्रबंधन की आवश्यकता को उजागर करता है।