MP Board 12th Age structure and Sex Ratio भारतीय समाज में आयु संरचना और लिंग अनुपात: एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण

MP Board 12th Age structure and Sex Ratio : कक्षा 12 के समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार, भारतीय समाज की संरचना को समझने के लिए दो सबसे महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय संकेतक आयु संरचना (Age Structure) और लिंग अनुपात (Sex Ratio) हैं।

1. प्रस्तावना: जनसांख्यिकी को समझना

समाजशास्त्र के अध्ययन में, जनसांख्यिकी (Demography) एक महत्वपूर्ण शाखा है, जो मानव आबादी का व्यवस्थित अध्ययन करती है। यह न केवल ‘कितने लोग’ हैं, इसका हिसाब रखती है, बल्कि ‘वे कौन हैं’ (आयु, लिंग, जाति, धर्म के संदर्भ में), ‘वे कहाँ रहते हैं’ (भौगोलिक वितरण), और आबादी में परिवर्तन कैसे होता है (जन्म, मृत्यु, प्रवासन के माध्यम से) इसका भी विश्लेषण करती है।

ये केवल आँकड़े नहीं हैं; ये हमारे समाज के दर्पण हैं। आयु संरचना यह बताती है कि हमारी आबादी कितनी ‘युवा’ या ‘वृद्ध’ है, जो सीधे तौर पर देश के आर्थिक भविष्य, स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता और शिक्षा प्रणाली पर दबाव को प्रभावित करती है। दूसरी ओर, लिंग अनुपात समाज में महिलाओं की स्थिति, लैंगिक भेदभाव और गहरे पैठे सांस्कृतिक मूल्यों को उजागर करता है।

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यह लेख NCERT पाठ्यक्रम के अनुरूप, इन दोनों अवधारणाओं का विस्तृत समाजशास्त्रीय विश्लेषण करेगा, भारत के संदर्भ में उनकी वर्तमान स्थिति, कारणों, परिणामों और संबंधित चुनौतियों पर प्रकाश डालेगा। यह विश्लेषण परीक्षा की दृष्टि से छात्रों को एक व्यापक समझ प्रदान करने के लिए तैयार किया गया है।


2. लिंग अनुपात (Sex Ratio): समाज का एक महत्वपूर्ण पैमाना

लिंग अनुपात, जिसे अक्सर ‘लिंगानुपात’ भी कहा जाता है, किसी आबादी में पुरुषों और महिलाओं के बीच के संतुलन को मापने का एक प्रमुख उपकरण है।

2.1. लिंग अनुपात की परिभाषा और माप

लिंग अनुपात (Sex Ratio) को पारंपरिक रूप से प्रति 1,000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या के रूप में परिभाषित किया जाता है।1

लिंग अनुपात = (महिलाओं की कुल संख्या / पुरुषों की कुल संख्या) x 1000

एक अनुपात जो 1000 से अधिक है, वह पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं को इंगित करता है; 1000 से कम का अनुपात महिलाओं की कमी को दर्शाता है।

इसी से जुड़ा एक और महत्वपूर्ण संकेतक है बाल लिंग अनुपात (Child Sex Ratio – CSR)। यह 0 से 6 वर्ष के आयु वर्ग में प्रति 1,000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या को मापता है। समाजशास्त्री अक्सर CSR को समग्र लिंग अनुपात से अधिक संवेदनशील संकेतक मानते हैं, क्योंकि यह जन्म के समय या उसके तुरंत बाद होने वाले लैंगिक भेदभाव (जैसे लिंग-चयनात्मक गर्भपात) को सीधे दर्शाता है।

2.2. भारत में लिंग अनुपात: वर्तमान स्थिति और रुझान

भारत में लिंग अनुपात ऐतिहासिक रूप से पुरुषों के पक्ष में झुका हुआ रहा है।

  • जनगणना 2011 के अनुसार:
    • भारत का समग्र लिंग अनुपात 943 (यानी, प्रति 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएँ) था। यह 2001 (933) की तुलना में एक मामूली सुधार था।
    • सबसे चिंताजनक आँकड़ा बाल लिंग अनुपात (0-6 वर्ष) का था, जो 2001 में 927 से घटकर 2011 में केवल 919 रह गया। यह आँकड़ा भारत की स्वतंत्रता के बाद का सबसे निचला स्तर था और इसने समाज में गहरे लैंगिक पूर्वाग्रहों की ओर इशारा किया।
  • क्षेत्रीय भिन्नताएँ:
    • उच्च लिंग अनुपात वाले राज्य: केरल (1084) और पुडुचेरी (1037) जैसे राज्यों में लिंग अनुपात महिलाओं के पक्ष में है, जिसका श्रेय उच्च महिला साक्षरता, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं और महिलाओं की अपेक्षाकृत उच्च सामाजिक स्थिति को दिया जाता है।
    • निम्न लिंग अनुपात वाले राज्य: हरियाणा (879), जम्मू और कश्मीर (889), और पंजाब (895) सबसे निचले पायदान पर थे। विशेष रूप से, हरियाणा का बाल लिंग अनुपात (834) और पंजाब का (846) बेहद चिंताजनक था।

हाल के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5, 2019-21) के आँकड़ों ने एक सकारात्मक तस्वीर पेश की है, जिसमें पहली बार समग्र लिंग अनुपात 1020 (प्रति 1000 पुरुषों पर 1020 महिलाएँ) दर्ज किया गया है। हालाँकि, समाजशास्त्रियों का मानना है कि इस आँकड़े की पुष्टि 2021 की जनगणना (जो अभी होनी है) से होनी चाहिए, क्योंकि सर्वेक्षण नमूने (samples) पर आधारित होते हैं। इसके अलावा, NFHS-5 में भी जन्म के समय लिंग अनुपात (Sex Ratio at Birth) अभी भी 929 है, जो यह दर्शाता है कि भेदभाव अभी भी जारी है।

2.3. गिरते लिंग अनुपात के समाजशास्त्रीय कारण

भारत में, विशेष रूप से बाल लिंग अनुपात में गिरावट, प्राकृतिक नहीं है; यह गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक कारकों का परिणाम है।

  1. गहरी पैठी पितृसत्ता (Deep-Rooted Patriarchy):
    • पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जहाँ पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ माना जाता है और शक्ति तथा विशेषाधिकार पुरुषों के हाथ में केंद्रित होते हैं।
    • इस व्यवस्था में, “पुत्र-मोह” (Son Preference) एक प्रमुख लक्षण है। बेटों को वंश चलाने वाला, परिवार का नाम आगे बढ़ाने वाला और बुढ़ापे का सहारा माना जाता है। इसके विपरीत, बेटियों को अक्सर “पराया धन” समझा जाता है।
  2. आर्थिक कारण (Economic Factors):
    • विरासत कानून: परंपरागत रूप से, संपत्ति का अधिकार केवल पुरुषों को मिलता था। हालाँकि कानूनी सुधार (जैसे हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005) हुए हैं, लेकिन व्यवहार में अभी भी बेटों को प्राथमिकता दी जाती है।
    • दहेज़ प्रथा (Dowry System): दहेज़ प्रथा बेटियों को एक “आर्थिक बोझ” (economic liability) के रूप में प्रस्तुत करती है।2 कई परिवार बेटी के जन्म को भविष्य के एक बड़े वित्तीय ख़र्च की शुरुआत के रूप में देखते हैं।
    • कृषि आधारित अर्थव्यवस्था: पारंपरिक कृषि समाजों में, शारीरिक श्रम के लिए बेटों को प्राथमिकता दी जाती थी। यह मानसिकता आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में मज़बूत है।
  3. सामाजिक-सांस्कृतिक कारण (Socio-Cultural Factors):
    • धार्मिक और अनुष्ठानिक भूमिकाएँ: कई हिंदू अनुष्ठानों, विशेष रूप से अंतिम संस्कार (मुखअग्नि देना), में बेटे की भूमिका को अनिवार्य माना जाता है। यह “मोक्ष” की अवधारणा से जुड़ा हुआ है, जो बेटे की लालसा को और मज़बूत करता है।
    • बुढ़ापे का सहारा: संयुक्त परिवार प्रणाली के टूटने और सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों की कमी के कारण, माता-पिता अपने बुढ़ापे के लिए बेटों पर निर्भर रहते हैं।
  4. प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग (Misuse of Technology):
    • यह सबसे तात्कालिक और घातक कारण है। 1980 और 90 के दशक में अल्ट्रासाउंड और एमनियोसेंटेसिस जैसी प्रसव-पूर्व नैदानिक तकनीकों (Pre-Natal Diagnostic Techniques – PNDT) की उपलब्धता ने स्थिति को बिगाड़ दिया।
    • इन तकनीकों का उपयोग भ्रूण के लिंग का पता लगाने और यदि वह ‘लड़की’ है, तो लिंग-चयनात्मक गर्भपात (Sex-Selective Abortion) कराने के लिए किया जाने लगा।
    • यह एक “आधुनिक” तरीका था जिसने पुरानी क्रूर प्रथाओं (जैसे कन्या शिशु हत्या) की जगह ले ली। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने इसे “लापता महिलाएँ” (Missing Women) की अवधारणा के रूप में वर्णित किया।
  5. लड़कियों के प्रति उपेक्षा (Neglect of the Girl Child):
    • जन्म के बाद भी, लड़कियों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उन्हें लड़कों की तुलना में कम पौष्टिक भोजन, कम स्वास्थ्य सेवा और कम शिक्षा मिलती है। इससे लड़कियों की शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate) लड़कों की तुलना में अधिक हो जाती है।

2.4. गिरते लिंग अनुपात के गंभीर परिणाम

एक असंतुलित लिंग अनुपात केवल एक आँकड़ा नहीं है; इसके गंभीर सामाजिक परिणाम होते हैं:

  1. “विवाह संकट” (Marriage Squeeze):
    • जब विवाह योग्य आयु वर्ग में पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में बहुत अधिक हो जाती है, तो कई पुरुषों के लिए दुल्हन ढूँढना मुश्किल हो जाता है।
    • इससे हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में “दुल्हन की खरीद” (Bride Purchase) या अन्य राज्यों (जैसे पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम) से लड़कियों की तस्करी (Trafficking) जैसी सामाजिक कुरीतियाँ पैदा हुई हैं।
  2. महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि (Increase in Violence Against Women):
    • महिलाओं की कमी उन्हें एक “वस्तु” (commodity) के रूप में देखती है, जिससे उनके खिलाफ यौन हिंसा, अपहरण और दुर्व्यवहार का ख़तरा बढ़ जाता है।
    • यह कुछ समाजों में बहु-पतिक (Polyandry) जैसी प्रथाओं को भी मज़बूर कर सकता है, जहाँ एक महिला को कई भाइयों के साथ विवाह करना पड़ता है।
  3. सामाजिक और जनसांख्यिकीय असंतुलन (Social and Demographic Imbalance):
    • यह समाज के बुनियादी ताने-बाने, यानी परिवार संस्था, को कमज़ोर करता है।
    • दीर्घकाल में, यह प्रजनन दर को प्रभावित कर सकता है और आबादी की वृद्धि को अस्थिर कर सकता है।

2.5. सुधार के प्रयास: सरकारी और सामाजिक पहल

गिरते लिंग अनुपात की चुनौती से निपटने के लिए भारत सरकार और नागरिक समाज ने कई कदम उठाए हैं:

  • PCPNDT अधिनियम (1994): यह कानून प्रसव-पूर्व लिंग परीक्षण को अपराध घोषित करता है और ऐसा करने वाले डॉक्टरों या केंद्रों के लिए दंड का प्रावधान करता है।
  • बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (Beti Bachao, Beti Padhao – BBBP): 2015 में शुरू किया गया यह अभियान, लिंग-चयनात्मक गर्भपात को रोकने, बालिकाओं के अस्तित्व और सुरक्षा को सुनिश्चित करने तथा उनकी शिक्षा को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।
  • वित्तीय योजनाएँ: “सुकन्या समृद्धि योजना” जैसी योजनाएँ माता-पिता को अपनी बेटियों की शिक्षा और विवाह के लिए बचत करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।
  • जागरूकता अभियान: गैर-सरकारी संगठन (NGOs) और मीडिया, पितृसत्तात्मक मानसिकता को बदलने और लड़कियों के मूल्य के बारे में जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

3. आयु संरचना (Age Structure): राष्ट्र का भविष्य

आयु संरचना का तात्पर्य किसी देश की कुल जनसंख्या के भीतर विभिन्न आयु वर्गों (Age Groups) के वितरण से है। यह किसी भी समाज की जनसांख्यिकीय प्रोफ़ाइल का एक बुनियादी घटक है।

3.1. आयु संरचना की परिभाषा और श्रेणियाँ

समाजशास्त्री और जनसांख्यिकीविद आमतौर पर आबादी को तीन व्यापक आयु वर्गों में बाँटते हैं:

  1. 0-14 वर्ष (बच्चे): यह “आश्रित” (dependent) आबादी का हिस्सा है। वे अभी तक कार्यबल (workforce) का हिस्सा नहीं हैं और उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के लिए निवेश की आवश्यकता होती है।
  2. 15-59 वर्ष (कार्यशील आयु): यह “उत्पादक” (productive) या “आर्थिक रूप से सक्रिय” आबादी है। यह वह समूह है जो काम करता है, करों का भुगतान करता है, और अर्थव्यवस्था को चलाता है। यह समूह बच्चों और वृद्धों, दोनों का समर्थन करता है।
  3. 60+ वर्ष (वृद्ध): यह भी “आश्रित” आबादी का हिस्सा माना जाता है। वे आमतौर पर सेवानिवृत्त होते हैं और उन्हें स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा (जैसे पेंशन) की आवश्यकता होती है।

3.2. وابستگی अनुपात (Dependency Ratio)

आयु संरचना से जुड़ी एक महत्वपूर्ण अवधारणा وابستگی अनुपात (या निर्भरता अनुपात) है। यह कार्यशील आबादी (15-59) पर आश्रित आबादी (0-14 और 60+) के बोझ को मापता है।

وابستگی अनुपात = [(0-14 आयु वर्ग की जनसंख्या) + (60+ आयु वर्ग की जनसंख्या)] / (15-59 आयु वर्ग की जनसंख्या)

  • उच्च وابستگی अनुपात: इसका मतलब है कि प्रत्येक कमाने वाले व्यक्ति पर निर्भर लोगों की संख्या अधिक है। यह आमतौर पर उन देशों में होता है जहाँ जन्म दर बहुत अधिक (बहुत सारे बच्चे) या मृत्यु दर बहुत कम (बहुत सारे वृद्ध) होती है।
  • कम وابستگی अनुपात: इसका मतलब है कि कार्यशील लोगों की संख्या आश्रितों की तुलना में अधिक है। यह आर्थिक वृद्धि के लिए एक सुनहरा अवसर हो सकता है।

3.3. भारत की आयु संरचना: “युवा भारत”

भारत वर्तमान में जनसांख्यिकीय संक्रमण के एक बहुत ही रोमांचक चरण में है।

  • जनगणना 2011 के अनुसार:
    • 0-14 वर्ष: लगभग 30%
    • 15-59 वर्ष: लगभग 60%
    • 60+ वर्ष: लगभग 8%

ये आँकड़े दर्शाते हैं कि भारत एक “युवा” देश है। हमारी आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारी कार्यशील आयु वर्ग में है। यह हमें उस अवधारणा की ओर ले जाता है जिसे “जनसांख्यिकीय लाभांश” कहा जाता है।

3.4. जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend)

जनसांख्यिकीय लाभांश उस आर्थिक वृद्धि की क्षमता को संदर्भित करता है जो किसी देश की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप हो सकती है, जब कार्यशील आयु (15-59) की आबादी का हिस्सा गैर-कार्यशील आयु (14 से कम और 60 से अधिक) की आबादी के हिस्से से अधिक होता है।

सरल शब्दों में, जब आपके पास कमाने वाले (worker) अधिक और खाने वाले (dependent) कम होते हैं, तो देश के पास विकास, बचत और निवेश का एक अनूठा अवसर होता है।

  • भारत के लिए अवसर:
    • भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल है। यह “लाभांश” भारत को अगले 20-30 वर्षों तक तेज़ आर्थिक विकास हासिल करने में मदद कर सकता है।
    • यह युवा आबादी नवाचार (innovation), उद्यमिता (entrepreneurship) और वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के लिए एक बड़ी शक्ति हो सकती है।3

3.5. लाभांश को भुनाना: एक अवसर या चुनौती?

समाजशास्त्री चेतावनी देते हैं कि यह “लाभांश” (Dividend) स्वचालित (automatic) नहीं है। यह आसानी से “जनसांख्यिकीय आपदा” (Demographic Disaster) में बदल सकता है यदि सही नीतियाँ लागू नहीं की गईं।

यह लाभांश एक “अवसर की खिड़की” (window of opportunity) है जो कुछ ही दशकों तक खुली रहेगी, इससे पहले कि यह आबादी बूढ़ी होने लगे। इस लाभांश को वास्तविकता में बदलने के लिए, भारत को निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना होगा:

  1. शिक्षा और कौशल विकास (Education and Skill Development):
    • केवल एक बड़ी कार्यशील आबादी होना पर्याप्त नहीं है; वह आबादी कुशल (skilled) और शिक्षित (educated) होनी चाहिए।
    • भारत की शिक्षा प्रणाली को रटने वाली विद्या से हटकर आलोचनात्मक सोच और व्यावसायिक प्रशिक्षण (vocational training) पर ध्यान केंद्रित करना होगा ताकि युवा रोज़गार के योग्य बन सकें।
  2. रोजगार सृजन (Employment Generation):
    • हर साल लाखों युवा भारतीय कार्यबल में प्रवेश कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था को इन सभी के लिए पर्याप्त और अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियाँ पैदा करनी होंगी।
    • यदि हम ऐसा करने में विफल रहते हैं, तो यह “लाभांश” बेरोज़गार और असंतुष्ट युवाओं की एक बड़ी आबादी में बदल जाएगा, जो सामाजिक अशांति का कारण बन सकता है।
  3. स्वास्थ्य सेवा (Healthcare):
    • एक स्वस्थ कार्यबल ही उत्पादक हो सकता है। कुपोषण, खराब स्वच्छता और अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएँ हमारे युवाओं की क्षमता को कम कर सकती हैं।
    • मानसिक स्वास्थ्य भी एक बढ़ता हुआ मुद्दा है जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

3.6. वृद्ध होती जनसंख्या: एक उभरती चुनौती (Ageing Population)

भले ही भारत अभी “युवा” है, लेकिन यह हमेशा ऐसा नहीं रहेगा। जैसे-जैसे जीवन प्रत्याशा (Life Expectancy) बढ़ रही है और जन्म दर (Birth Rate) गिर रही है, भारत की आबादी भी धीरे-धीरे बूढ़ी हो रही है।

  • चुनौती: 60+ आयु वर्ग की आबादी भारत में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले जनसांख्यिकीय समूहों में से एक है।
  • सामाजिक प्रभाव:
    • स्वास्थ्य सेवा: वृद्ध आबादी को विशिष्ट स्वास्थ्य सेवाओं (geriatric care) की आवश्यकता होती है, जैसे हृदय रोग, मधुमेह और मनोभ्रंश का प्रबंधन।4
    • सामाजिक सुरक्षा: पेंशन योजनाओं और सेवानिवृत्ति लाभों की आवश्यकता बढ़ेगी।
    • पारिवारिक संरचना: पारंपरिक संयुक्त परिवार प्रणाली, जो बुजुर्गों की देखभाल करती थी, अब टूट रही है। इससे बुजुर्गों में अकेलेपन और अलगाव की समस्या बढ़ रही है।

समाजशास्त्रियों का तर्क है कि भारत को अपनी युवा आबादी के लिए योजना बनाने के साथ-साथ अपनी वृद्ध होती आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी अभी से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।


4. आयु और लिंग का अंतर्संबंध

आयु संरचना और लिंग अनुपात अलग-थलग अवधारणाएँ नहीं हैं; वे एक दूसरे को गहराई से प्रभावित करते हैं।

  • बाल लिंग अनुपात (CSR) और आयु संरचना: एक गंभीर रूप से असंतुलित CSR (जैसा कि भारत में 2011 में 919 था) का मतलब है कि भविष्य की आयु संरचना विकृत हो जाएगी। जब 0-6 आयु वर्ग का यह समूह 15-59 (कार्यशील) आयु वर्ग में प्रवेश करेगा, तो “विवाह संकट” (marriage squeeze) अपने चरम पर होगा।
  • वृद्धावस्था का नारीकरण (Feminization of Ageing): विश्व स्तर पर, महिलाएँ पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहती हैं। इसका मतलब है कि 60+ या 80+ आयु वर्ग में, लिंग अनुपात अक्सर महिलाओं के पक्ष में होता है (यानी, वृद्ध पुरुषों की तुलना में वृद्ध महिलाएँ अधिक होती हैं)। यह एक महत्वपूर्ण समाजशास्त्रीय मुद्दा है क्योंकि वृद्ध महिलाएँ (विशेष रूप से विधवाएँ) अक्सर वित्तीय असुरक्षा, उपेक्षा और अकेलेपन के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।

5. निष्कर्ष

कक्षा 12 के समाजशास्त्र के छात्रों के लिए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि लिंग अनुपात और आयु संरचना केवल अकादमिक शब्द नहीं हैं, बल्कि ये भारतीय समाज के वर्तमान और भविष्य को आकार देने वाली दो सबसे शक्तिशाली ताकतें हैं।

लिंग अनुपात हमारे सामाजिक मूल्यों, विशेषकर पितृसत्ता की पकड़ और महिलाओं के प्रति हमारे दृष्टिकोण का एक नैतिक बैरोमीटर है। एक गिरता बाल लिंग अनुपात राष्ट्रीय शर्म का विषय है और यह दर्शाता है कि आधुनिक तकनीक और पारंपरिक पूर्वाग्रह मिलकर एक घातक संयोजन बना सकते हैं। “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसी पहलें सही दिशा में कदम हैं, लेकिन वास्तविक बदलाव तभी आएगा जब सामाजिक मानसिकता में क्रांतिकारी परिवर्तन होगा।

वहीं, आयु संरचना भारत के लिए एक अभूतपूर्व अवसर – जनसांख्यिकीय लाभांश – प्रस्तुत करती है। हमारी युवा आबादी हमें 21वीं सदी की महाशक्ति बनने की क्षमता देती है। लेकिन यह लाभांश एक ज़िम्मेदारी के साथ आता है: अपने युवाओं को शिक्षित करने, उन्हें कुशल बनाने और उनके लिए रोज़गार पैदा करने की ज़िम्मेदारी। यदि हम इस अवसर को चूक गए, तो यही युवा आबादी एक बोझ बन सकती है।

अंततः, एक समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य हमें यह सिखाता है कि ये जनसांख्यिकीय रुझान नियति नहीं हैं। वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकल्पों का परिणाम हैं। एक न्यायसंगत लिंग अनुपात और एक उत्पादक युवा आबादी हासिल करना संभव है, लेकिन इसके लिए सचेत, निरंतर और समावेशी प्रयास की आवश्यकता होगी।

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