MP Board 12th Tribal Community in india भारत के जनजातीय समुदाय: पहचान, चुनौतियाँ और परिवर्तन

MP Board 12th Tribal Community in india : यह लेख NCERT के पाठ्यक्रम के आधार पर, जनजातीय समुदायों की समाजशास्त्रीय परिभाषा, उनकी जनसांख्यिकी, उनकी अनूठी विशेषताओं, और समकालीन भारत में उनके सामने मौजूद गंभीर चुनौतियों (विशेषकर विस्थापन, पहचान और एकीकरण) का एक सूचनात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन MP Board 12th Tribal Community in india प्रस्तुत करेगा।

🌳 भारत के जनजातीय समुदाय: पहचान, चुनौतियाँ और परिवर्तन


1. प्रस्तावना: ‘आदिवासी’ की अवधारणा

भारतीय समाज की जटिल और विविध संरचना में, जनजातीय समुदाय (Tribal Community) एक विशिष्ट और मौलिक स्थान रखते हैं। ये वे समुदाय हैं जो ऐतिहासिक रूप से मुख्यधारा के जाति-आधारित पदानुक्रमित समाज से अलग, अक्सर भौगोलिक रूप से दुर्गम क्षेत्रों जैसे जंगलों और पहाड़ियों में रहते आए हैं।

“जनजाति” (Tribe) एक औपनिवेशिक (colonial) और प्रशासनिक शब्द है, लेकिन इन समुदायों के लिए अधिक सम्मानजनक और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण शब्द ‘आदिवासी’ (Adivasi) है। ‘आदिवासी’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मूल निवासी’ (Original Inhabitants)। यह शब्द इस बात पर ज़ोर देता है कि वे इस भूमि के पहले निवासी हैं, जिनकी अपनी संप्रभु संस्कृति, भाषा, धर्म और सामाजिक व्यवस्था है।

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कक्षा 12 के समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में, जनजातीय समुदायों का अध्ययन केवल एक जनसांख्यिकीय अभ्यास नहीं है, बल्कि यह ‘निरन्तरता एवं परिवर्तन’ (Continuity and Change) की एक गहरी और अक्सर दर्दनाक कहानी को समझना है। यह उन समुदायों की कहानी है जो अपनी सदियों पुरानी पहचान (Continuity) को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि ‘विकास’ (Development) की आधुनिक प्रक्रियाओं (Change) ने उन्हें सबसे अधिक विस्थापित और प्रभावित किया है।

यह लेख NCERT के पाठ्यक्रम के आधार पर, जनजातीय समुदायों की समाजशास्त्रीय परिभाषा, उनकी जनसांख्यिकी, उनकी अनूठी विशेषताओं, और समकालीन भारत में उनके सामने मौजूद गंभीर चुनौतियों (विशेषकर विस्थापन, पहचान और एकीकरण) का एक सूचनात्मक और विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेगा।


2. ‘जनजाति’ को परिभाषित करना: समाजशास्त्रीय और संवैधानिक दृष्टिकोण

‘जनजाति’ को परिभाषित करना हमेशा से एक जटिल अकादमिक अभ्यास रहा है। ये कोई सजातीय (homogenous) समूह नहीं हैं; भारत में 700 से अधिक जनजातियाँ हैं, जो एक-दूसरे से बहुत भिन्न हैं।

2.1. समाजशास्त्रीय विशेषताएँ

समाजशास्त्री आमतौर पर जनजातियों को उनके पारंपरिक लक्षणों (traditional traits) के आधार पर परिभाषित करने का प्रयास करते हैं:

  • भौगोलिक अलगाव (Geographical Isolation): परंपरागत रूप से ये समुदाय जंगलों, पहाड़ियों और दूर-दराज़ के इलाकों में रहते आए हैं, जिसने उन्हें मुख्यधारा से अलग रखा।
  • विशिष्ट संस्कृति (Distinct Culture): उनकी अपनी अनूठी भाषाएँ या बोलियाँ (Dialects), रीति-रिवाज, मिथक, नृत्य और संगीत होते हैं, जो मुख्यधारा के समाज से भिन्न होते हैं।
  • आजीविका (Livelihood): उनकी अर्थव्यवस्था परंपरागत रूप से प्रकृति पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर रही है—जैसे शिकार (hunting), संग्रहण (gathering), मछली पकड़ना और झूम खेती (Jhum Cultivation) या स्थानांतरी कृषि।
  • समानतावादी समाज (Egalitarian Society): जाति व्यवस्था के विपरीत, जनजातीय समाज में पदानुक्रम (hierarchy) या ‘शुद्धता-अपवित्रता’ (purity-pollution) की अवधारणा नहीं होती। वे सैद्धांतिक रूप से अधिक समानतावादी होते हैं, हालाँकि लिंग या उम्र के आधार पर भेद हो सकते हैं।
  • सामुदायिक स्वामित्व (Community Ownership): भूमि, जंगल और जल जैसे संसाधन (जिन्हें वे ‘जल, जंगल, ज़मीन’ कहते हैं) किसी व्यक्ति की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि पूरे समुदाय की साझी विरासत माने जाते रहे हैं।
  • धर्म (Religion): वे अक्सर एक विशिष्ट धर्म का पालन करते हैं, जिसे ‘जीववाद’ (Animism) (आत्माओं और पूर्वजों की पूजा) या ‘टोटमवाद’ (Totemism) (किसी पौधे या जानवर के साथ रहस्यमय संबंध) के रूप में वर्णित किया जाता है। वे प्रकृति को एक जीवित इकाई के रूप में पूजते हैं।

2.2. संवैधानिक परिभाषा: ‘अनुसूचित जनजाति’ (Scheduled Tribe)

भारत के संविधान ने ‘जनजाति’ को परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया। इसके बजाय, यह एक प्रशासनिक श्रेणी बनाता है।

  • संविधान का अनुच्छेद 342 (Article 342) राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे राज्यों के राज्यपालों के परामर्श से, उन समुदायों को एक अनुसूची (Schedule) में अधिसूचित करें, जिन्हें “अनुसूचित जनजाति” (Scheduled Tribe – ST) माना जाएगा।
  • यह सूची मुख्य रूप से उन समुदायों पर आधारित थी जो उपरोक्त समाजशास्त्रीय लक्षणों (जैसे अलगाव, आदिम लक्षण, पिछड़ापन) को दर्शाते थे।
  • इस सूची में शामिल होने से इन समुदायों को शिक्षा, नौकरियों (आरक्षण) और विधायिका में विशेष सुरक्षा और लाभ मिलते हैं।

3. जाति और जनजाति के बीच अंतर: एक महत्वपूर्ण विश्लेषण

भारतीय समाजशास्त्र में “जाति” (Caste) और “जनजाति” (Tribe) के बीच के अंतर को समझना मौलिक है।

आधारजाति (Caste)जनजाति (Tribe)
सामाजिक संरचनापदानुक्रमित (Hierarchical)
‘शुद्धता और अपवित्रता’ पर आधारित।
समानतावादी (Egalitarian)
कोई औपचारिक पदानुक्रम नहीं, सभी गोत्र (clans) बराबर हैं।
मुख्यधारा से संबंधमुख्यधारा का हिस्सा हैं।
समाज की एक-दूसरे पर निर्भर व्यवस्था (जजमानी) का अंग।
परंपरागत रूप से मुख्यधारा से अलग-थलग (Isolated) रहे हैं।
अर्थव्यवस्थावंशानुगत व्यवसाय, लेकिन एक बड़ी, परस्पर निर्भर अर्थव्यवस्था का हिस्सा।आत्मनिर्भर (Subsistence) अर्थव्यवस्था।
प्रकृति (जंगल, भूमि) पर प्रत्यक्ष निर्भरता।
संसाधन स्वामित्वनिजी या पारिवारिक स्वामित्व।सामुदायिक स्वामित्व (Community Ownership) पर ज़ोर।
धर्महिंदू धर्म के व्यापक दायरे में (हालाँकि अन्य धर्मों में भी जाति मौजूद है)।विशिष्ट स्वदेशी विश्वास (जीववाद, टोटमवाद), या प्रकृति पूजा।

3.1. जनजाति-जाति सातत्य (Tribe-Caste Continuum)

यह एक महत्वपूर्ण विश्लेषणात्मक अवधारणा है। कई समाजशास्त्रियों (जैसे एम.एन. श्रीनिवास) का तर्क है कि भारत में जाति और जनजाति दो पूरी तरह से अलग श्रेणियां नहीं हैं, बल्कि एक ‘सातत्य’ (Continuum) या पैमाने का हिस्सा हैं।

यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक जनजातीय समुदाय धीरे-धीरे मुख्यधारा के हिंदू समाज के संपर्क में आता है और उसकी विशेषताओं (जैसे कुछ हिंदू देवी-देवताओं की पूजा, पदानुक्रम) को अपनाना शुरू कर देता है। समय के साथ, वे अपनी जनजातीय पहचान खो देते हैं और हिंदू जाति पदानुक्रम में, आमतौर पर सबसे निचले पायदान (lower rungs) पर, एक ‘जाति’ के रूप में शामिल हो जाते हैं। यह प्रक्रिया ‘सात्मीकरण’ (Assimilation) का एक उदाहरण है।


4. भारत में जनजातीय जनसंख्या: वितरण और विविधता (Census 2011)

‘सूचनात्मक’ विश्लेषण के लिए आँकड़े आवश्यक हैं। 2011 की जनगणना भारत की जनजातीय आबादी की एक स्पष्ट तस्वीर देती है।

  • कुल जनसंख्या: 10.43 करोड़ (104.3 मिलियन)
  • कुल प्रतिशत: भारत की कुल जनसंख्या का 8.6%
  • लिंग अनुपात: 990 महिलाएँ प्रति 1000 पुरुष (यह राष्ट्रीय औसत 943 से काफी बेहतर है, जो जनजातीय समाजों में महिलाओं की बेहतर स्थिति को दर्शाता है)।

भौगोलिक वितरण (Geographical Distribution):
भारत की जनजातीय आबादी पूरे देश में फैली हुई है, लेकिन मुख्य रूप से कुछ क्षेत्रों में केंद्रित है:

  1. मध्य भारत (The “Tribal Belt”):
    • यह भारत का “जनजातीय हृदय” है। इसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के हिस्से शामिल हैं।
    • यहाँ देश की सबसे बड़ी जनजातीय आबादी (संख्या में) निवास करती है।
    • मध्य प्रदेश (MP) में देश की सर्वाधिक जनजातीय जनसंख्या (1.52 करोड़) है, जो राज्य की आबादी का 21.1% है।
    • प्रमुख जनजातियाँ: भील (Bhils) (भारत का सबसे बड़ा जनजातीय समूह), गोंड (Gonds) (दूसरा सबसे बड़ा समूह), संथाल, मुंडा, उराँव।
  2. पूर्वोत्तर भारत (The North-East):
    • इसमें अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, असम, मणिपुर और त्रिपुरा शामिल हैं।
    • यहाँ की अधिकांश आबादी जनजातीय है। कुछ राज्यों में जनसंख्या का प्रतिशत 80-90% से अधिक है (जैसे मिजोरम 94.4%, नागालैंड 86.5%)।
    • यहाँ की जनजातियाँ (जैसे नागा, खासी, गारो, मिज़ो) मध्य भारत की जनजातियों से सांस्कृतिक और भाषाई रूप से बहुत भिन्न हैं।
  3. अन्य क्षेत्र:
    • दक्षिण भारत (जैसे नीलगिरी पहाड़ियों के टोडा, केरल के नायर) और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (जैसे जारवा, सेंटिनलीज़) में भी छोटे जनजातीय समूह रहते हैं।

5. ‘निरन्तरता’ और ‘परिवर्तन’: एक द्वंद्वात्मक विश्लेषण

NCERT का पाठ्यक्रम हमें ‘निरन्तरता’ (Continuity) और ‘परिवर्तन’ (Change) के चश्मे से सामाजिक संस्थाओं को देखने के लिए कहता है। जनजातीय समाज इस द्वंद्व का सबसे ज्वलंत उदाहरण है।

5.1. निरन्तरता (Continuity): जो बना हुआ है

आधुनिकता के भारी दबाव के बावजूद, कई जनजातीय समुदायों ने अपनी पहचान के कुछ तत्वों को मज़बूती से बनाए रखा है:

  • सांस्कृतिक पहचान: उनके विशिष्ट नृत्य, संगीत, त्योहार (जैसे सरहुल, करमा) और कला (जैसे गोंड पेंटिंग, वारली पेंटिंग) आज भी उनकी पहचान के प्रमुख मार्कर हैं।
  • नातेदारी का महत्व: सामाजिक जीवन आज भी मज़बूत नातेदारी (Kinship) और गोत्र (Clan) बंधनों के आसपास संगठित है।
  • पारंपरिक शासन: कई क्षेत्रों में (विशेषकर पूर्वोत्तर में और PESA अधिनियम के तहत), पारंपरिक ग्राम परिषदें और मुखिया आज भी सामाजिक विवादों को सुलझाने में भूमिका निभाते हैं।
  • प्रकृति से संबंध: हालाँकि जंगल कम हो रहे हैं, फिर भी ‘पवित्र उपवनों’ (Sacred Groves) की अवधारणा और प्रकृति की पूजा उनकी विश्व-दृष्टि (world-view) का हिस्सा बनी हुई है।

5.2. परिवर्तन (Change): जो बदल गया है

‘परिवर्तन’ की प्रक्रिया औपनिवेशिक काल (Colonial Era) में शुरू हुई और आज़ादी के बाद इसमें तेज़ी आई।

  • औपनिवेशिक विरासत: अंग्रेज़ों ने पहली बार जनजातीय स्वायत्तता पर हमला किया। उनके ‘वन अधिनियमों’ (Forest Acts) ने जनजातियों को, जो सदियों से जंगल के मालिक थे, उन्हें ही जंगल में ‘घुसपैठिया’ (Encroacher) बना दिया। उन्होंने जंगलों को ‘आरक्षित’ (Reserved) कर दिया और जनजातियों को उनकी आजीविका के स्रोतों से काट दिया।
  • बाज़ार का प्रवेश: उनकी आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था (Subsistence Economy) टूट गई और वे नकदी-आधारित बाज़ार अर्थव्यवस्था (Cash-based Market Economy) पर निर्भर हो गए, अक्सर मज़दूर या बंधुआ मज़दूर के रूप में।
  • सांस्कृतिक संपर्क: मुख्यधारा के हिंदू धर्म और ईसाई मिशनरियों (Christian Missionaries) के संपर्क में आने से कई समुदायों ने धर्म परिवर्तन किया, जिससे उनकी पारंपरिक धार्मिक प्रथाएँ कमज़ोर पड़ीं।

6. समकालीन भारत में जनजातीय चुनौतियाँ (Contemporary Challenges)

‘परिवर्तन’ की यह प्रक्रिया आज ‘चुनौतियों’ का रूप ले चुकी है। यह इस लेख का सबसे महत्वपूर्ण विश्लेषणात्मक हिस्सा है।

6.1. चुनौती 1: विस्थापन और भूमि अलगाव (Displacement and Land Alienation)

यह आज जनजातीय समुदायों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।

  • ‘विकास’ की कीमत: आज़ादी के बाद, ‘राष्ट्रीय विकास’ के नाम पर बड़े-बड़े बाँध (Dams), खदानें (Mines), औद्योगिक संयंत्र (Industrial Plants) और इस्पात कारखाने (Steel Plants) स्थापित किए गए।
  • संयोग या षड्यंत्र?: भारत का अधिकांश खनिज (कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट) और वन संसाधन ठीक उन्हीं मध्य और पूर्वी भारतीय क्षेत्रों में हैं जहाँ भारत की अधिकांश जनजातीय आबादी रहती है।
  • परिणाम: इन परियोजनाओं के लिए लाखों आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि से जबरन विस्थापित (Forcibly Displaced) किया गया। उन्हें ‘विकास का लाभ’ नहीं मिला, बल्कि वे ‘विकास के शरणार्थी’ (Development Refugees) बन गए। (उदाहरण: सरदार सरोवर बाँध, पोस्को और वेदांता परियोजनाएँ)।
  • भूमि अलगाव (Land Alienation): इसके अलावा, साहूकारों (Moneylenders) और गैर-आदिवासी बसने वालों (Non-tribal Settlers) द्वारा उनकी ज़मीनों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर लिया गया।

6.2. चुनौती 2: आजीविका और वन अधिकार (Livelihood and Forest Rights)

  • जंगल खोने का मतलब आजीविका खोना है। विस्थापित आदिवासी, जिनके पास खेती और जंगल के अलावा कोई कौशल नहीं था, शहरों में दिहाड़ी मज़दूरों, रिक्शा चालकों और घरेलू नौकरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर हो गए।
  • वन अधिकार अधिनियम (Forest Rights Act – FRA), 2006: इस ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए 2006 में यह कानून लाया गया।
    • विश्लेषण: यह कानून पहली बार स्वीकार करता है कि आदिवासियों के साथ ‘ऐतिहासिक अन्याय’ हुआ है।
    • यह उन्हें ‘सामुदायिक वन अधिकार’ (Community Forest Rights) (जंगल के उत्पादों का उपयोग और प्रबंधन करने का अधिकार) और ‘व्यक्तिगत वन अधिकार’ (Individual Forest Rights) (जिस ज़मीन पर वे पीढ़ियों से खेती कर रहे हैं, उसका ‘पट्टा’ या Title) देता है।
    • हालाँकि, इसका कार्यान्वयन (implementation) बहुत धीमा रहा है और अक्सर वन विभाग (Forest Department) के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है।

6.3. चुनौती 3: स्वास्थ्य और शिक्षा (Health and Education)

  • स्वास्थ्य: जनजातीय आबादी भारत के सबसे वंचित समूहों में से है। वे कुपोषण (Malnutrition), उच्च शिशु और मातृ मृत्यु दर (IMR/MMR), और विशिष्ट रोगों (जैसे सिकल-सेल एनीमिया) से गंभीर रूप से पीड़ित हैं।
    • कारण: गरीबी, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, और सांस्कृतिक संवेदनहीनता (उदा. स्वास्थ्य कर्मियों को उनकी भाषा नहीं आना)।
  • शिक्षा:
    • ड्रॉपआउट दर: जनजातीय बच्चों में स्कूल छोड़ने की दर (Dropout Rate) बहुत अधिक है।
    • कारण: शिक्षा का माध्यम (उनकी अपनी बोली के बजाय राज्य की भाषा), पाठ्यक्रम जो उनकी संस्कृति और जीवन से मेल नहीं खाता, शिक्षकों की अनुपस्थिति, और गरीबी (बच्चों को काम करने की आवश्यकता)।
    • ‘आश्रम स्कूल’ (Ashram Schools): ये आवासीय विद्यालय बच्चों को उनकी संस्कृति से अलग-थलग कर देते हैं, जिससे ‘सात्मीकरण’ (Assimilation) का ख़तरा पैदा होता है।

6.4. चुनौती 4: सांस्कृतिक पहचान का संकट (Crisis of Cultural Identity)

  • बाज़ार, मीडिया और मुख्यधारा के समाज के प्रभुत्व के कारण जनजातीय भाषाएँ तेज़ी से मर रही हैं।
  • युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को ‘पिछड़ा’ (Backward) मानने लगी है।
  • यह ‘सात्मीकरण’ (Assimilation) बनाम ‘एकीकरण’ (Integration) की बहस को जन्म देता है:
    • सात्मीकरण (Assimilation): यह वह प्रक्रिया है जहाँ एक कमज़ोर संस्कृति को मज़बूत संस्कृति में ‘समाहित’ कर लिया जाता है, जिससे उसकी अपनी पहचान खत्म हो जाती है।
    • एकीकरण (Integration): यह वह प्रक्रिया है जहाँ एक समुदाय राष्ट्र का हिस्सा बनता है, लेकिन अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान (Distinct Cultural Identity) को बनाए रखने का अधिकार रखता है। भारतीय संविधान ‘एकीकरण’ का वादा करता है, लेकिन व्यवहार में अक्सर ‘सात्मीकरण’ होता है।

7. राज्य, जनजातीय और ‘पंचशील’ की बहस (The State, Tribes, and the ‘Panchsheel’ Debate)

आज़ादी के बाद, भारत के नीति निर्माताओं के बीच यह बहस छिड़ गई कि जनजातीय समुदायों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए।

  1. ‘पृथक्करण’ की नीति (Policy of Isolation): समाजशास्त्री वेरियर एल्विन (Verrier Elwin) ने शुरू में तर्क दिया कि मुख्यधारा का समाज जनजातियों को ‘भ्रष्ट’ करता है, इसलिए उन्हें ‘नेशनल पार्क’ की तरह पूरी तरह से अलग-थलग (Isolate) रखा जाना चाहिए, ताकि वे अपनी संस्कृति को बचा सकें।
  2. ‘सात्मीकरण’ की नीति (Policy of Assimilation): समाजशास्त्री जी.एस. घुरये (G.S. Ghurye) ने तर्क दिया कि जनजातियाँ अनिवार्य रूप से “पिछड़े हिंदू” (Backward Hindus) हैं और उनका मुख्यधारा के हिंदू समाज में ‘सात्मीकरण’ (Assimilation) ही एकमात्र समाधान है।

जवाहरलाल नेहरू का ‘पंचशील’ (Nehru’s ‘Panchsheel’):
नेहरू ने इन दोनों अतिवादी विचारों को खारिज कर दिया और ‘एकीकरण’ (Integration) का एक मध्य मार्ग चुना, जिसे “जनजातीय पंचशील” कहा गया:

  1. उन्हें अपनी प्रतिभा (genius) के अनुसार विकसित होने देना, उन पर कुछ भी थोपना नहीं।
  2. भूमि और वनों पर उनके अधिकारों का सम्मान करना।
  3. प्रशासन के लिए उनके अपने लोगों को प्रशिक्षित करना।
  4. उन पर बहुत अधिक प्रशासन न लादना या उन्हें जटिल योजनाओं से अभिभूत न करना।
  5. परिणामों को सांख्यिकी से नहीं, बल्कि मानव चरित्र की गुणवत्ता से आँकना।

विश्लेषण: यह ‘पंचशील’ कागज़ पर भारत की सबसे प्रगतिशील नीति थी। लेकिन, 1960 के दशक के बाद ‘विकास’ की होड़ में, नेहरू के इन आदर्शों को बड़े पैमाने पर नज़रअंदाज़ कर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर विस्थापन और असंतोष हुआ।


8. निष्कर्ष: चौराहे पर खड़े आदिवासी

जनजातीय समुदाय आज एक महत्वपूर्ण चौराहे पर खड़े हैं। वे अपनी ‘निरन्तरता’ (Continuity) यानी अपनी सांस्कृतिक पहचान और ‘जल, जंगल, ज़मीन’ पर अपने अधिकार को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि ‘परिवर्तन’ (Change) की ताकतों—बाज़ार, खनन माफिया और राज्य की विकास नीतियों—ने उन्हें हाशिये पर धकेल दिया है।

  • एक तरफ, आरक्षण और शिक्षा के माध्यम से एक छोटा जनजातीय मध्य वर्ग (Tribal Middle Class) उभरा है, जो राजनीतिक रूप से मुखर है और अपने अधिकारों की माँग कर रहा है (यह ‘परिवर्तन’ का एक सकारात्मक पहलू है)।
  • दूसरी तरफ, आम आदिवासी आबादी का एक बड़ा हिस्सा विस्थापन, गरीबी और पहचान के संकट से जूझ रहा है।

12वीं कक्षा के समाजशास्त्र के छात्र के रूप में, यह समझना महत्वपूर्ण है कि ‘जनजाति’ केवल एक पिछड़ी हुई श्रेणी नहीं है जिसे ‘सभ्य’ बनाने की ज़रूरत है। वे भारत के मूल निवासी हैं, जिनकी जीवन-शैली अक्सर मुख्यधारा के समाज की तुलना में अधिक टिकाऊ (sustainable), समानतावादी और प्रकृति के करीब रही है।

असली चुनौती ‘उनका’ विकास करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि ‘हमारा’ विकास उनकी कीमत पर न हो। भारत का सच्चा ‘एकीकरण’ (Integration) तभी प्राप्त होगा जब मुख्यधारा का समाज आदिवासियों को केवल संग्रहालय की वस्तु या वोट बैंक के रूप में देखना बंद कर देगा, और उन्हें संविधान द्वारा दिए गए गरिमा और संसाधनों के अधिकार के साथ बराबरी का नागरिक मानेगा।

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