MP Board 12th The Caste System in india भारतीय समाज की धुरी: जाति व्यवस्था (निरन्तरता एवं परिवर्तन)

MP Board 12th The Caste System in india : दुनिया भर के समाजों में स्तरीकरण के विभिन्न आधार रहे हैं, जैसे- वर्ग (Class), लिंग (Gender), और नस्ल (Race)। लेकिन, भारतीय समाज के संदर्भ में, स्तरीकरण का सबसे अनूठा, जटिल और स्थायी रूप जाति व्यवस्था (The Caste System) रहा है।

📖 भारतीय समाज की धुरी: जाति व्यवस्था (निरन्तरता एवं परिवर्तन)


1. प्रस्तावना: भारतीय समाज का स्तरीकरण

समाजशास्त्र (Sociology) समाज का वैज्ञानिक अध्ययन है, और सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification) इसकी एक मौलिक अवधारणा है। सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ है समाज को विभिन्न स्तरों या परतों (strata) में विभाजित करना, जिससे एक पदानुक्रम (hierarchy) बनता है। इस पदानुक्रम में कुछ समूहों को दूसरों की तुलना में अधिक शक्ति, विशेषाधिकार और सामाजिक प्रतिष्ठा (prestige) प्राप्त होती है।

दुनिया भर के समाजों में स्तरीकरण के विभिन्न आधार रहे हैं, जैसे- वर्ग (Class), लिंग (Gender), और नस्ल (Race)। लेकिन, भारतीय समाज के संदर्भ में, स्तरीकरण का सबसे अनूठा, जटिल और स्थायी रूप जाति व्यवस्था (The Caste System) रहा है।

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जाति व्यवस्था केवल एक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य नहीं है; यह एक जीवित सामाजिक वास्तविकता है जो आज भी करोड़ों भारतीयों के जीवन के हर पहलू—विवाह, व्यवसाय, राजनीति, और यहाँ तक कि दैनिक बातचीत—को प्रभावित करती है।

कक्षा 12 के समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम के अनुसार, हमें जाति को केवल एक ‘स्थिर’ (static) संस्था के रूप में नहीं, बल्कि ‘निरन्तरता एवं परिवर्तन’ (Continuity and Change) के द्वंद्व के माध्यम से समझना होगा। यह लेख इसी दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था की अवधारणा, इसकी पारंपरिक विशेषताओं, और समकालीन भारत में इसके बदलते (और बने रहने वाले) स्वरूप का एक विस्तृत समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करेगा।


2. जाति की अवधारणा: वर्ण और जाति (Concept of Caste: Varna and Jati)

“जाति” को समझने के लिए, दो संबंधित, फिर भी भिन्न अवधारणाओं—वर्ण (Varna) और जाति (Jati)—के बीच अंतर करना महत्वपूर्ण है।

2.1. वर्ण (Varna): एक सैद्धांतिक मॉडल

‘वर्ण’ एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ ‘रंग’ या ‘प्रकार’ हो सकता है। यह एक सैद्धांतिक (theoretical) और आदर्श (ideal) मॉडल है जो हिंदू धर्मग्रंथों (जैसे मनुस्मृति) में पाया जाता है।

  • यह भारतीय समाज को चार व्यापक, अखिल भारतीय (all-India) श्रेणियों में विभाजित करता है:
    1. ब्राह्मण (Brahmin): पुजारी और विद्वान, जिन्हें पदानुक्रम में सर्वोच्च और ‘शुद्ध’ (pure) माना जाता था।
    2. क्षत्रिय (Kshatriya): योद्धा और शासक।
    3. वैश्य (Vaishya): व्यापारी, ज़मींदार और व्यवसायी।
    4. शूद्र (Shudra): किसान, कारीगर और सेवक, जो उपरोक्त तीन वर्णों की सेवा करने के लिए थे।
  • इस चार-स्तरीय व्यवस्था से बाहर एक पाँचवाँ समूह भी था, जिन्हें ‘पंचम’ (Panchamas) या ‘अवर्णीय’ कहा जाता था। इन्हें पदानुक्रम में सबसे नीचे माना जाता था और ‘अपवित्र’ (polluted) कार्यों से जोड़ा जाता था। इन्हें ही बाद में ‘अस्पृश्य’ (Untouchables) या ‘बाह्य जाति’ (Outcaste) कहा गया।

2.2. जाति (Jati): एक क्षेत्रीय यथार्थ

‘वर्ण’ जहाँ एक आदर्श ग्रंथ-आधारित मॉडल है, वहीं ‘जाति’ (Jati) वह यथार्थ (reality) है जिसे लोग वास्तव में जीते हैं।

  • ‘जाति’ जन्म पर आधारित एक क्षेत्रीय (regional) या स्थानीय (local) समूह है।
  • भारत में केवल चार ‘वर्ण’ हैं, लेकिन ‘जातियों’ और ‘उप-जातियों’ (sub-castes) की संख्या हजारों में है।
  • ‘जाति’ ही वह समूह है जिसमें एक व्यक्ति का जन्म होता है, जिसके अपने विशिष्ट नियम, रीति-रिवाज और अक्सर एक वंशानुगत पेशा होता है।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात, ‘जाति’ ही अंतर्विवाही (endogamous) समूह है, यानी विवाह इसी ‘जाति’ के भीतर होता है।

सारांश में: यदि ‘वर्ण’ एक 4-मंज़िला इमारत का सैद्धांतिक नक्शा (blueprint) है, तो ‘जाति’ उस इमारत के भीतर हज़ारों अलग-अलग कमरों का वास्तविक, जटिल और पदानुक्रमित लेआउट है।


3. जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Key Features of the Caste System)

प्रसिद्ध समाजशास्त्री जी.एस. घुरये (G.S. Ghurye) ने अपनी पुस्तक “Caste and Race in India” में जाति व्यवस्था की छह प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया है, जो इसकी पारंपरिक संरचना को समझने के लिए मौलिक हैं:

3.1. खंडात्मक विभाजन (Segmental Division of Society)

इसका अर्थ है कि समाज स्पष्ट रूप से अलग-अलग खंड़ों या ‘जातियों’ में विभाजित है। प्रत्येक जाति की अपनी एक अलग सामाजिक पहचान, सदस्यता और जीवन-शैली होती है। व्यक्ति की निष्ठा (loyalty) अपनी जाति के प्रति सबसे पहले होती है।

3.2. पदानुक्रम (Hierarchy)

यह जाति व्यवस्था का सार है। सभी जातियाँ ‘समान’ नहीं हैं; उन्हें एक ‘ऊपर’ से ‘नीचे’ की सीढ़ी में व्यवस्थित किया गया है। यह पदानुक्रम ‘शुद्धता और अपवित्रता’ (Purity and Pollution) के धार्मिक-वैचारिक सिद्धांत पर आधारित है।

  • ब्राह्मणों को सबसे ‘शुद्ध’ माना जाता था क्योंकि वे अनुष्ठानिक (ritual) कार्यों से जुड़े थे।
  • ‘अस्पृश्य’ जातियों को सबसे ‘अपवित्र’ माना जाता था क्योंकि वे मृत पशुओं को हटाने या मैला ढोने जैसे कार्यों से जुड़े थे।

3.3. खान-पान और सामाजिक सहवास पर प्रतिबंध (Restrictions on Feeding and Social Intercourse)

पदानुक्रम को बनाए रखने के लिए कठोर नियम थे कि कौन किसके साथ भोजन कर सकता है। ‘कच्चा’ भोजन (पानी में पका) और ‘पक्का’ भोजन (घी में तला) के बीच नियम अलग-अलग थे। आमतौर पर, एक उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्ति के हाथ से (विशेषकर ‘कच्चा’) भोजन स्वीकार नहीं करता था।

3.4. नागरिक और धार्मिक निर्योग्यताएँ एवं विशेषाधिकार (Civil and Religious Disabilities and Privileges)

पदानुक्रम का मतलब केवल प्रतिष्ठा में अंतर नहीं था, बल्कि अधिकारों में भी भारी असमानता थी।

  • निर्योग्यताएँ (Disabilities): निम्न जातियों (विशेषकर ‘अस्पृश्यों’) को सार्वजनिक कुओं का उपयोग करने, मंदिरों में प्रवेश करने, उच्च जातियों की बस्तियों में रहने या शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रखा गया था।
  • विशेषाधिकार (Privileges): उच्च जातियों को कई अनुष्ठानिक और सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त थे।

3.5. वंशानुगत व्यवसाय (Hereditary Occupation)

परंपरागत रूप से, प्रत्येक जाति एक विशिष्ट पेशे (occupation) से जुड़ी होती थी। यह पेशा जन्म से निर्धारित होता था। एक कुम्हार का बेटा कुम्हार, एक लोहार का बेटा लोहार और एक पुजारी का बेटा पुजारी ही बनता था। व्यवसाय बदलना लगभग असंभव था।

3.6. अंतर्विवाह (Endogamy)

यह जाति व्यवस्था की सबसे मज़बूत और निर्णायक विशेषता है। अंतर्विवाह का अर्थ है अपनी ही जाति या उप-जाति के भीतर विवाह करना। यह नियम जाति की सीमाओं को कठोर और अटूट बनाए रखने का मुख्य उपकरण था। अपनी जाति से बाहर विवाह (Inter-caste marriage) करने पर कठोर दंड (जैसे जाति से निष्कासन) दिया जाता था।


4. जाति व्यवस्था में ‘निरन्तरता’ (Continuity in the Caste System)

आधुनिक भारत में संविधान, कानून, शिक्षा और शहरीकरण के बावजूद, जाति व्यवस्था के कई तत्व आश्चर्यजनक रूप से मज़बूत बने हुए हैं। यह ‘निरन्तरता’ (Continuity) दर्शाती है कि यह व्यवस्था कितनी गहरी और लचीली (resilient) है।

4.1. अंतर्विवाह की दृढ़ता (Persistence of Endogamy)

यह आज भी जाति की ‘निरन्तरता’ का सबसे बड़ा प्रमाण है।

  • आज भी भारत में 90% से अधिक विवाह अपनी ही जाति के भीतर होते हैं।
  • शहरों में, शिक्षित और आधुनिक दिखने वाले परिवार भी जब अपने बच्चों के लिए रिश्ता ढूँढते हैं, तो अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों (Matrimonial Advertisements) या ऑनलाइन पोर्टलों पर स्पष्ट रूप से ‘केवल हमारी जाति में’ (Caste no bar’ बहुत कम विज्ञापनों में लिखा होता है) की मांग करते हैं।
  • प्रेम विवाह, विशेषकर अंतर-जातीय विवाहों को आज भी परिवारों और समुदायों से भयंकर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, जो कभी-कभी ‘ऑनर किलिंग’ (Honour Killing) जैसी क्रूर घटनाओं का रूप ले लेता है।

4.2. शुद्धता और अपवित्रता की मानसिकता (Mentality of Purity and Pollution)

  • हालाँकि शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक जीवन (जैसे रेस्टोरेंट, बस) में यह लगभग खत्म हो गया है, लेकिन निजी और घरेलू क्षेत्र में यह अभी भी जीवित है।
  • कई घरों में आज भी घरेलू सहायकों (domestic helpers) के लिए अलग बर्तन रखे जाते हैं, जो उनकी जातिगत पृष्ठभूमि पर आधारित होता है।
  • दलितों के साथ भेदभाव, जैसे उन्हें किराये पर घर न देना, आज भी शहरों में एक आम (यद्यपि छिपा हुआ) व्यवहार है।

4.3. वंशानुगत व्यवसाय का बना रहना

  • हालाँकि शहरों में नए अवसर खुले हैं, लेकिन कई पारंपरिक ‘अपवित्र’ माने जाने वाले कार्य आज भी विशिष्ट जातियों द्वारा ही किए जा रहे हैं।
  • उदाहरण के लिए, आज भी भारत में मैला ढोने (Manual Scavenging) के कार्य में लगभग 90% से अधिक लोग दलित समुदायों (विशेषकर वाल्मीकि समुदाय) से हैं, जबकि यह कानूनी रूप से प्रतिबंधित है। यह दर्शाता है कि व्यवसाय और जाति का संबंध पूरी तरह से टूटा नहीं है।

4.4. जाति और राजनीति (Caste and Politics): जातिवाद

  • आज़ादी के बाद, यह उम्मीद की गई थी कि लोकतंत्र (Democracy) जाति को खत्म कर देगा। इसके बजाय, जाति ने लोकतंत्र को ‘जाति-आधारित’ बना दिया।
  • राजनीतिक दल अक्सर ‘जातिगत समीकरणों’ (Caste Equations) के आधार पर उम्मीदवारों का चयन करते हैं।
  • लोग अक्सर विकास के मुद्दों के बजाय अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देते हैं।
  • ‘जातिवाद’ (Casteism) का उदय हुआ, जो अपनी जाति के प्रति अंधी निष्ठा और अन्य जातियों के प्रति पूर्वाग्रह को संदर्भित करता है।

5. जाति व्यवस्था में ‘परिवर्तन’ (Change in the Caste System)

19वीं और 20वीं सदी के दौरान, विशेषकर आज़ादी के बाद, जाति व्यवस्था में गहरे और महत्वपूर्ण ‘परिवर्तन’ (Change) भी आए हैं। यह व्यवस्था अब वैसी ‘कठोर’ (rigid) नहीं रही जैसी 100 साल पहले थी।

5.1. संवैधानिक और कानूनी हस्तक्षेप (Constitutional and Legal Interventions)

यह परिवर्तन का सबसे बड़ा औपचारिक चालक (driver) रहा है।

  • अनुच्छेद 17 (Article 17): भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता (Untouchability) का उन्मूलन किया और इसे एक दंडनीय अपराध घोषित किया।
  • अनुच्छेद 15 (Article 15): धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव पर रोक लगाई गई।
  • सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action): अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण (Reservation) की नीति लागू की गई। यह ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने और हाशियाकृत समूहों को अवसर प्रदान करने का एक क्रांतिकारी कदम था।

5.2. शहरीकरण और औद्योगीकरण (Urbanization and Industrialization)

  • शहरीकरण: शहरों ने जाति व्यवस्था पर दोहरा प्रहार किया।
    1. गुमनामी (Anonymity): शहरों की भीड़ में किसी की जाति पूछना या जानना मुश्किल होता है।
    2. मिश्रित जीवन: बस, ट्रेन, फैक्टरी और कार्यालयों में सभी जातियों के लोग एक-दूसरे के साथ बैठते और काम करते हैं, जिससे शुद्धता/अपवित्रता के नियम व्यवहार में असंभव हो गए।
  • औद्योगीकरण: इसने नए प्रकार के रोज़गार (जैसे फैक्टरी वर्कर, मैनेजर, क्लर्क) पैदा किए जो वंशानुगत नहीं थे और किसी भी जाति के व्यक्ति के लिए (सिद्धांत रूप में) खुले थे।

5.3. शिक्षा का प्रसार (Spread of Education)

आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष (secular) शिक्षा ने जातिवाद की धार्मिक-वैचारिक जड़ों को कमज़ोर किया। इसने दलित और उत्पीड़ित समुदायों के लिए सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility) का एक नया रास्ता खोला। डॉ. बी.आर. अंबेडकर का जीवन स्वयं इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

5.4. प्रमुख अवधारणाएँ: संस्कृतिकरण और प्रभु जाति (M.N. Srinivas)

प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास (M.N. Srinivas) ने जाति में परिवर्तन की दो महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ बताईं:

  • संस्कृतीकरण (Sanskritization): यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा निम्न जाति के सदस्य, उच्च जातियों (विशेषकर ‘द्विज’ जातियों) के रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों, विचारधारा और जीवन शैली को अपनाकर सामाजिक पदानुक्रम में अपनी स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास करते हैं। (जैसे, शाकाहार अपनाना, जनेऊ पहनना)।
    • आलोचना: यह प्रक्रिया पदानुक्रम को चुनौती नहीं देती, बल्कि उसे स्वीकार करती है और केवल पदानुक्रम में अपनी स्थिति को बदलना चाहती है। यह एक ‘स्थितिगत परिवर्तन’ (Positional Change) है, ‘संरचनात्मक परिवर्तन’ (Structural Change) नहीं।
  • प्रभु जाति (Dominant Caste): श्रीनिवास ने देखा कि ग्रामीण भारत में शक्ति केवल ब्राह्मणों के हाथ में नहीं थी। ‘प्रभु जाति’ वह होती है जो किसी क्षेत्र में:
    1. संख्याबल में अधिक हो (Numerically strong)।
    2. भूमि जैसे आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण रखती हो (Economic power)।
    3. राजनीतिक रूप से संगठित हो (Political power)।(जैसे उत्तर भारत में यादव/जाट, कर्नाटक में वोक्कालिगा/लिंगायत)। ये जातियाँ मध्यस्थ होती हैं और ग्रामीण सत्ता के केंद्र में होती हैं।

6. समकालीन भारत में जाति: अदृशीकरण और अतिकथन

आज 21वीं सदी में जाति एक विरोधाभासी (paradoxical) रूप में मौजूद है।

  • विशेषाधिकार प्राप्त के लिए ‘अदृशीकरण’ (Invisibilization for the Privileged):
    • शहरी, उच्च-जाति के, शिक्षित भारतीयों के लिए, ‘जाति’ अक्सर ‘अदृश्य’ (invisible) हो गई है।
    • वे मानते हैं कि वे अपनी ‘योग्यता’ (Merit) के आधार पर सफल हुए हैं और उनके जीवन में जाति की कोई भूमिका नहीं है। वे अक्सर आरक्षण को ‘जातिवाद’ का कारण मानते हैं।
    • यह ‘जाति का अदृशीकरण’ स्वयं उनके विशेषाधिकार का परिणाम है।
  • वंचितों के लिए ‘अतिकथन’ (Hyper-visibility for the Deprived):
    • इसके विपरीत, दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के लिए, ‘जाति’ उनके जीवन की एक अति-दृश्यमान (hyper-visible) और कठोर सच्चाई है।
    • उन्हें यह हर दिन भेदभाव, अपमान, अवसरों की कमी और यहाँ तक कि हिंसा के रूप में याद दिलाई जाती है।
    • उनके लिए, ‘जाति’ उनकी पहचान और उनके संघर्ष का केंद्र है।

7. निष्कर्ष: जाति का बदलता स्वरूप

12वीं कक्षा के समाजशास्त्र के छात्र के लिए यह समझना अनिवार्य है कि जाति व्यवस्था खत्म नहीं हुई है; इसने अपना स्वरूप बदल लिया है (Caste is not dead; it has changed its form)

  • यह अनुष्ठानिक और पदानुक्रमित (Ritual Hierarchy) व्यवस्था से बदलकर राजनीतिक और आर्थिक (Political and Economic) पहचान की व्यवस्था बन गई है।
  • ‘शुद्धता और अपवित्रता’ का महत्व कम हुआ है, लेकिन ‘पहचान और प्रतिस्पर्धा’ (Identity and Competition) का महत्व बढ़ा है।
  • जहाँ एक ओर संविधान और शहरीकरण ने इसकी जड़ों को कमज़ोर किया है, वहीं दूसरी ओर अंतर्विवाह की मज़बूती और राजनीति में इसके उपयोग ने इसे नया जीवन दिया है।

भारतीय समाज में ‘निरन्तरता’ (Continuity) का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि आज भी अधिकांश लोग अपनी ही जाति में विवाह करते हैं, और ‘परिवर्तन’ (Change) का सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि आज एक दलित व्यक्ति भारत के राष्ट्रपति या मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुँच सकता है—एक ऐसी कल्पना जो 100 साल पहले असंभव थी। जाति का यह द्वंद्व ही आधुनिक भारत की सबसे बड़ी समाजशास्त्रीय पहेली है।

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