MP Board 12th Sociology Indian Demographic Structure इकाई 1: भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना: जनसंख्या वृद्धि और संरचना

MP Board 12th Sociology Indian Demographic Structure : कक्षा 12वीं के समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में, भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना Indian Demographic Structure एक मौलिक इकाई है। यह समझने के लिए कि हमारा समाज कैसा है, यह कैसे काम करता है, और भविष्य में इसे किन चुनौतियों और अवसरों का सामना करना पड़ेगा, जनसंख्या का अध्ययन महत्वपूर्ण है।

जनसांख्यिकी (Demography) का अर्थ है जनसंख्या का सुव्यवस्थित अध्ययन। यह शब्द यूनानी भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है: ‘डेमोस’ (demos) यानी ‘जन’ (लोग) और ‘ग्राफीन’ (graphien) यानी ‘वर्णन’। इस प्रकार, इसका शाब्दिक अर्थ है ‘लोगों का वर्णन’।

जनसांख्यिकी के अंतर्गत, हम केवल यह नहीं गिनते कि कितने लोग हैं, बल्कि हम जनसंख्या से संबंधित कई महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं का अध्ययन करते हैं, जैसे:

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now
  • जनसंख्या के आकार में परिवर्तन (वृद्धि या कमी)।
  • जन्म, मृत्यु तथा प्रवसन (migration) के स्वरूप।
  • जनसंख्या की संरचना और गठन, अर्थात् उसमें स्त्रियों, पुरुषों और विभिन्न आयु वर्ग के लोगों का क्या अनुपात है।

जनसांख्यिकी के प्रकार

प्रदान की गई PDF के अनुसार, जनसांख्यिकी मुख्यतः दो प्रकार की होती है:

  1. आकारिक जनसांख्यिकी (Formal Demography): यह मुख्य रूप से जनसंख्या के ‘आकार’ यानी मात्रा का अध्ययन करती है। यह आँकड़ों और गणितीय विश्लेषण पर केंद्रित है, जैसे जन्म दर, मृत्यु दर की गणना करना और भविष्य की जनसंख्या का पूर्वानुमान लगाना।
  2. सामाजिक जनसांख्यिकी (Social Demography): यह जनसंख्या के सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक पक्षों पर विचार करती है। यह पूछती है कि जनसंख्या के रुझान समाज को कैसे प्रभावित करते हैं, और सामाजिक संरचनाएँ (जैसे गरीबी, धर्म, शिक्षा) जनसंख्या के रुझानों (जैसे जन्म दर) को कैसे प्रभावित करती हैं।

समाजशास्त्र और जनसांख्यिकी

जनसांख्यिकी का अध्ययन समाजशास्त्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब यूरोप में राष्ट्र-राज्यों की स्थापना हुई, तब राज्यों ने जन-कल्याण, स्वास्थ्य, पुलिस, कृषि और कराधान जैसे क्षेत्रों में अपनी भूमिका का विस्तार करना शुरू कर दिया। इन कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए, राज्य को यह जानना आवश्यक हो गया कि उसके नागरिक कौन हैं, कितने हैं, और वे कहाँ रहते हैं।

इसी आवश्यकता से जनगणना (Census) का आधुनिक रूप विकसित हुआ। अमेरिका में 1790 की जनगणना को पहली आधुनिक जनगणना माना जाता है। भारत में, अंग्रेजी सरकार ने 1867-72 के बीच जनगणना का कार्य प्रारंभ किया और 1881 से हर दस साल बाद (दसवर्षीय) जनगणना की जाती रही है।

जब ये आँकड़े इकट्ठे किए गए, तो उन्होंने समाजशास्त्र जैसे नए विषय के लिए एक प्रबल आधार प्रस्तुत किया। एमिल दुर्खाइम जैसे समाजशास्त्रियों ने दिखाया कि आत्महत्या की दर (जो एक जनसांख्यिकीय आँकड़ा है) को व्यक्तिगत कारणों से नहीं, बल्कि सामाजिक कारणों से समझा जा सकता है।

भाग 1: जनसंख्या वृद्धि: सिद्धांत और वास्तविकता

जनसंख्या का आकार स्थिर नहीं होता; यह जन्म, मृत्यु और प्रवसन के कारण लगातार बदलता रहता है। जनसंख्या वृद्धि, विशेष रूप से तीव्र वृद्धि, किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक रही है। इसे समझने के लिए दो प्रमुख सिद्धांत विकसित किए गए हैं।

1.1 माल्थस का जनसंख्या वृद्धि का सिद्धांत

जनसांख्यिकी के सबसे प्रसिद्ध और विवादास्पद सिद्धांतों में से एक अंग्रेज़ राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस (1766-1834) ने अपने निबंध ‘एन एस्से ऑन द प्रिंसिपल ऑफ़ पॉपुलेशन’ (1798) में प्रस्तुत किया।

सिद्धांत का मूल तर्क:

माल्थस का सिद्धांत मूलतः एक निराशावादी सिद्धांत था। उनका कहना था कि मनुष्यों की जनसंख्या उस दर की तुलना में अधिक तेज़ी से बढ़ती है जिस दर पर मनुष्य के भरण-पोषण के साधन (विशेष रूप से भोजन) बढ़ सकते हैं।

उन्होंने इसे गणितीय रूप से स्पष्ट किया:

  • जनसंख्या वृद्धि: यह ज्यामितीय या गुणोत्तर रूप से (जैसे 2, 4, 8, 16, 32…) बढ़ती है।
  • खाद्य उत्पादन: यह गणितीय या समांतर रूप से (जैसे 2, 4, 6, 8, 10…) बढ़ता है।

इसका अनिवार्य परिणाम यह है कि जनसंख्या हमेशा खाद्य आपूर्ति से आगे निकल जाएगी, और इसलिए मनुष्य सदा ही गरीबी की हालत में जीने के लिए दंडित किया गया है।

जनसंख्या नियंत्रण के उपाय:

माल्थस का मानना था कि समृद्धि को बढ़ाने का एक ही तरीका है कि जनसंख्या की वृद्धि को नियंत्रित किया जाए। उन्होंने दो प्रकार के “निरोध” (Checks) बताए:

  1. कृत्रिम निरोध (Preventive Checks): ये वे उपाय हैं जो मनुष्य स्वेच्छा से अपनाता है, जैसे बड़ी उम्र में विवाह करके, यौन संयम रखकर या ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए।
  2. प्राकृतिक निरोध (Positive Checks): माल्थस का मानना था कि कृत्रिम निरोध पर्याप्त नहीं हैं, इसलिए प्रकृति स्वयं जनसंख्या को नियंत्रित करती है। ये विनाशकारी घटनाएँ होती हैं, जैसे अकाल, बीमारियाँ और महामारियाँ। माल्थस के अनुसार, ये घटनाएँ अनिवार्य थीं क्योंकि वे ही खाद्य आपूर्ति और बढ़ती हुई जनसंख्या के बीच असंतुलन को रोकने के प्राकृतिक उपाय हैं।

माल्थस के सिद्धांत की आलोचना:

माल्थस का सिद्धांत एक लंबे समय तक प्रभावशाली रहा, लेकिन बाद में उनकी भविष्यवाणियाँ झूठी साबित हुईं:

  • तकनीकी प्रगति: माल्थस यह अनुमान लगाने में विफल रहे कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में तकनीकी प्रगति (जैसे ट्रैक्टर, उर्वरक, उच्च-उपज वाले बीज) से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
  • महामारियों पर नियंत्रण: यूरोपीय देशों ने दिखाया कि जन्म दर को घटाया जा सकता है और महामारियों पर नियंत्रण किया जा सकता है।
  • संसाधनों का वितरण: उदारवादी और मार्क्सवादी विद्वानों ने माल्थस की इस बात के लिए आलोचना की कि गरीबी का कारण जनसंख्या वृद्धि है। आलोचकों का कहना था कि गरीबी और भुखमरी जैसी समस्याएँ जनसंख्या वृद्धि की बजाय आर्थिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण होती हैं। एक अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के कारण ही कुछ लोग विलासिता में रहते हैं जबकि बहुसंख्यक गरीब रहते हैं।

1.2 जनसांख्यिकीय संक्रमण का सिद्धांत

यह एक अन्य उल्लेखनीय सिद्धांत है जो जनसंख्या वृद्धि को आर्थिक विकास के समग्र स्तरों से जोड़ता है। यह सिद्धांत बताता है कि प्रत्येक समाज जनसंख्या वृद्धि के एक निश्चित स्वरूप का अनुसरण करता है। इसके तीन बुनियादी चरण होते हैं:

चरण 1: अल्पविकसित समाज (कम जनसंख्या वृद्धि)

  • इस चरण में समाज तकनीकी दृष्टि से पिछड़ा होता है।
  • जन्म दर बहुत ऊँची होती है (क्योंकि लोगों को बड़े परिवारों की आदत होती है, और उन्हें नहीं पता होता कि कितने बच्चे जीवित बचेंगे)।
  • मृत्यु दर भी बहुत ऊँची होती है (खराब स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण के कारण)।
  • चूंकि जन्म दर और मृत्यु दर दोनों ऊँची होती हैं, इसलिए उनके बीच का अंतर (यानी शुद्ध वृद्धि दर) नीचा रहता है।

चरण 2: संक्रमणकालीन चरण (तीव्र जनसंख्या वृद्धि)

  • इस चरण में समाज पिछड़ी अवस्था से उन्नत अवस्था की ओर बढ़ता है।
  • मृत्यु दर अपेक्षाकृत तेज़ी से नीचे ला दी जाती है। इसका कारण रोग नियंत्रण, जनस्वास्थ्य (स्वच्छ पानी), और बेहतर पोषण के उन्नत तरीके हैं।
  • लेकिन, जन्म दर ऊँची बनी रहती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जन्म दर एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रघटना है। समाज को अपनी प्रजनन संबंधी मान्यताओं और व्यवहार को (जो उसकी गरीबी और ऊँची मृत्यु दरों की हालत में विकसित हुआ था) बदलने में काफी लंबा समय लगता है।
  • इस चरण में, ऊँची जन्म दर और गिरती हुई मृत्यु दर के बीच एक बड़ा अंतर पैदा हो जाता है। यही वह चरण है जिसे “जनसंख्या विस्फोट” (Population Explosion) कहा जाता है।

चरण 3: विकसित समाज (कम जनसंख्या वृद्धि)

  • इस चरण में समाज तकनीकी रूप से उन्नत और विकसित होता है।
  • जन्म दर भी कम हो जाती है (क्योंकि लोग शिक्षित हो जाते हैं, और छोटे परिवार को प्राथमिकता देते हैं)।
  • मृत्यु दर भी नीची बनी रहती है।
  • चूंकि जन्म दर और मृत्यु दर दोनों कम हो जाती हैं, इसलिए जनसंख्या वृद्धि दर फिर से नीची या स्थिर हो जाती है।

1.3 भारत में जनसंख्या वृद्धि की वास्तविकता

भारत का अनुभव ‘जनसांख्यिकीय संक्रमण’ के सिद्धांत का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, विशेष रूप से दूसरे चरण का।

  • 1921 से पहले: भारत की जनसंख्या वृद्धि दर बहुत धीमी थी। वास्तव में, 1911 से 1921 के दशक में जनसंख्या में ऋणात्मक संवृद्धि दर (-0.03%) दर्ज की गई। इसका मुख्य कारण 1918-19 के दौरान इन्फ्लूएंजा (स्पैनिश फ्लू) महामारी का भीषण तांडव था, जिसने अकेले भारत में लगभग 1.25 करोड़ लोगों की जान ले ली।
  • 1921 के बाद (मृत्यु दर में गिरावट): 1921 के बाद, भारत की मृत्यु दर में तेज़ी से गिरावट आने लगी। इसके मुख्य कारण थे:
    1. अकालों पर नियंत्रण: अंग्रेजी सरकार ने परिवहन (रेलवे) का विस्तार किया, जिससे अकाल-प्रभावित क्षेत्रों में भोजन पहुँचाना आसान हो गया। (हालांकि, अमर्त्य सेन जैसे विद्वानों ने तर्क दिया है कि अकाल केवल अनाज उत्पादन में गिरावट के कारण नहीं, बल्कि ‘हकदारी की पूर्ति का अभाव’ यानी लोगों की भोजन खरीदने की अक्षमता के कारण भी पड़ते रहे हैं)।
    2. महामारियों पर नियंत्रण: चेचक (Smallpox), प्लेग और हैजा जैसी बीमारियों के उपचार और टीकाकरण कार्यक्रमों ने मृत्यु दर को काफी कम कर दिया।
  • जन्म दर का ऊँचा बना रहना: मृत्यु दर तो गिर गई, लेकिन जन्म दर ऊँची बनी रही। जैसा कि संक्रमण सिद्धांत बताता है, जन्म दर का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं से है, जो धीमी गति से बदलती हैं।
  • परिणाम (जनसंख्या विस्फोट): स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, ऊँची जन्म दर और तेजी से गिरती मृत्यु दर के कारण भारत की जनसंख्या संवृद्धि दर बहुत बढ़ गई, जो 1961-1981 के दौरान 2.2% के अपने चरम पर पहुँच गई।

हालांकि अब भारत में जन्म दर भी घटने लगी है, लेकिन यह अभी भी मृत्यु दर से अधिक है, जिसके कारण भारत ‘संक्रमणकालीन चरण’ में बना हुआ है।

भाग 2: जनसंख्या की संरचना

जनसंख्या की ‘संरचना’ से तात्पर्य जनसंख्या के गठन या बनावट से है – अर्थात्, जनसंख्या विभिन्न उप-समूहों में कैसे विभाजित है। परीक्षा की दृष्टि से, दो सबसे महत्वपूर्ण संरचनाएँ हैं: आयु संरचना और लिंग संरचना।

2.1 आयु संरचना (Age Structure)

परिभाषा: जनसंख्या की आयु संरचना से तात्पर्य है कि कुल जनसंख्या के विभिन्न आयु वर्गों (जैसे बच्चे, युवा, वृद्ध) में व्यक्तियों का अनुपात क्या है।

यह संरचना विकास के स्तरों के अनुसार बदलती रहती है। जब चिकित्सा सुविधाएँ कम होती हैं, तो जीवन अवधि (life expectancy) कम होती है। जैसे-जैसे विकास होता है, जीवन स्तर सुधरता है और लोग अधिक समय तक जीवित रहते हैं।

भारत की आयु संरचना: एक “जवान” देश

भारत की जनसंख्या बहुत “जवान” है, यानी यहाँ अधिकांश भारतीय युवावस्था में हैं।

  • 0-14 वर्ष (बच्चे): यह हिस्सा घट रहा है। (1971 में 42% ➔ 2011 में 29%)
  • 15-59 वर्ष (कार्यशील आयु): यह हिस्सा बढ़ रहा है। (1971 में 53% ➔ 2011 में 63%)
  • 60+ वर्ष (वृद्ध): यह हिस्सा धीरे-धीरे बढ़ रहा है। (1971 में 5% ➔ 2011 में 8%)

भारत की आयु संरचना में इस बदलाव से दो महत्वपूर्ण अवधारणाएँ जुड़ी हैं: पराश्रितता अनुपात और जनसांख्यिकीय लाभांश।

2.1.1 पराश्रितता अनुपात (Dependency Ratio)

परिभाषा: यह जनसंख्या के “पराश्रित” (dependent) और “कार्यशील” (working) हिस्सों को मापने का एक साधन है।

  • पराश्रित वर्ग: इसमें वे लोग आते हैं जो आमतौर पर काम नहीं करते और अपनी आजीविका के लिए दूसरों पर निर्भर होते हैं। (आमतौर पर 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे और 64 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्ग)।
  • कार्यशील वर्ग: इसमें वे लोग आते हैं जो आमतौर पर कमाते हैं और पराश्रित वर्ग का भरण-पोषण करते हैं। (आमतौर पर 15 से 64 वर्ष की आयु के लोग)।

सूत्र: (पराश्रितता अनुपात) = [(15 से कम आयु के लोग + 64 से अधिक आयु के लोग) / (15 से 64 वर्ष के आयु वर्ग के लोग)]

  • बढ़ता हुआ अनुपात: यदि यह अनुपात बढ़ता है, तो यह चिंता का कारण है, क्योंकि इसका मतलब है कि प्रत्येक कमाने वाले व्यक्ति पर अधिक आश्रितों का बोझ है (जैसा कि उन देशों में होता है जहाँ ‘जनसंख्या बूढ़ी’ हो रही है, जैसे जापान)।
  • गिरता हुआ अनुपात: यदि यह अनुपात गिरता है, तो यह आर्थिक संवृद्धि और समृद्धि का स्रोत बन सकता है, क्योंकि वहाँ कार्यशील लोगों का अनुपात काम न करने वालों की तुलना में अधिक बड़ा होता है।

भारत में, चूंकि 0-14 आयु वर्ग का हिस्सा तेजी से घट रहा है, इसलिए हमारा पराश्रितता अनुपात भी गिर रहा है।

2.1.2 जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend)

यह इस अध्याय की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक है।

परिभाषा: ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ या ‘आयु संरचना से प्राप्त होने वाला फायदा’ उस आर्थिक संवृद्धि को कहते हैं जो कार्यशील आयु (15-64) वर्ग की जनसंख्या के बढ़ने और पराश्रित जनसंख्या के घटने के कारण प्राप्त होती है।

जब देश में कमाने वाले हाथ (worker) खाने वाले मुंह (dependents) से अधिक हो जाते हैं, तो देश के पास बचत और निवेश के लिए अतिरिक्त संसाधन होते हैं, जिससे आर्थिक विकास को गति मिलती है।

भारत का अवसर:

भारत इस समय विश्व के सबसे युवा देशों में से एक है। (2020 में भारतीयों की औसत उम्र सिर्फ 29 साल थी, जबकि जापान में 48 वर्ष)। भारत के पास यह “जनसांख्यिकीय लाभांश” का अवसर है, जो कुछ ही दशकों तक रहेगा जब तक कि यह युवा आबादी बूढ़ी नहीं हो जाती।

चुनौती: यह लाभांश अपने आप मिलने वाला नहीं है

PDF स्पष्ट करती है कि यह लाभ स्वचालित नहीं है। यह संभावना वास्तविक संवृद्धि में तभी बदली जा सकती है जब:

  1. शिक्षा: कार्यशील आयु वर्ग में शामिल होने वाले नए लोग शिक्षित और कुशल (skilled) हों। यदि वे शिक्षित नहीं होंगे, तो उनकी उत्पादकता नीची रहेगी।
  2. रोज़गार: उन शिक्षित युवाओं को रोज़गार मिले। यदि वे बेरोजगार रहते हैं, तो वे “लाभांश” (dividend) के बजाय “बोझ” (burden) बन जाएँगे और कमाने वालों की बजाय पराश्रितों की श्रेणी में शामिल हो जाएँगे।

अतः, यदि भारत अपनी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार नीतियों में सही निवेश नहीं करता है, तो वह इस सुनहरे अवसर को गँवा देगा।

2.2 लिंग संरचना (Sex Structure)

परिभाषा: जनसंख्या की संरचना का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू लिंग अनुपात (Sex Ratio) है। इसे ‘प्रति 1000 पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या’ के रूप में परिभाषित किया जाता है।

वैश्विक रुझान बनाम भारतीय अपवाद:

  • वैश्विक स्तर पर: ऐतिहासिक रूप से, संपूर्ण विश्व में अधिकांश देशों में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा थोड़ी अधिक होती है (लगभग 1050 स्त्रियाँ प्रति 1000 पुरुष)।
  • जैविक कारण: इसके दो कारण हैं: (1) शैशवावस्था में बालिका शिशुओं में बालक शिशुओं की अपेक्षा रोग से लड़ने की क्षमता अधिक होती है, और (2) स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक वर्षों तक जीवित रहती हैं।
  • भारतीय अपवाद: भारत, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे कुछ ही देश हैं जहाँ स्त्री-पुरुष अनुपात पुरुषों के पक्ष में है (यानी स्त्रियाँ कम हैं)।

भारत में गिरते लिंग अनुपात की प्रवृत्तियाँ:

भारत में स्त्री-पुरुष अनुपात पिछली एक शताब्दी से अधिक समय से गिरता जा रहा है।

  • समग्र लिंग अनुपात: 1901 में यह 972 था, जो 2001 में घटकर 933 रह गया। (हालांकि 2011 में इसमें मामूली सुधार होकर यह 943 हो गया)।

सबसे गंभीर चिंता: बाल लिंग अनुपात (Child Sex Ratio)

  • जनसांख्यिकीविदों और समाजशास्त्रियों के लिए सबसे चिंताजनक तथ्य 0-6 आयु वर्ग के बाल लिंग अनुपात में आई भारी गिरावट है।
  • रुझान: 1961 (976) ➔ 1991 (945) ➔ 2001 (927) ➔ 2011 (919)
  • यह गिरावट इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि समस्या जैविक नहीं, बल्कि सामाजिक है। 2011 में, समग्र अनुपात (943) बाल अनुपात (919) से बेहतर था, जिसका अर्थ है कि नई पीढ़ियों में स्थिति और खराब हो रही है।

गिरते लिंग अनुपात के कारण:

PDF के अनुसार, इसके तीन मुख्य कारण हैं, जो सभी सामाजिक भेदभाव की ओर इशारा करते हैं:

  1. बालिका शिशुओं की घोर उपेक्षा: बच्चियों के बीमार होने पर उन्हें अस्पताल न ले जाना या उन्हें कम पौष्टिक भोजन देना, जिससे उनकी मृत्यु दर बढ़ जाती है।
  2. बालिका शिशु हत्या: जन्म के बाद बच्चियों की हत्या कर देना (जो कुछ क्षेत्रों में प्रचलित रही है)।
  3. लिंग-विशेष के गर्भपात (Female Foeticide): यह बाल लिंग अनुपात में गिरावट का सबसे प्रमुख कारण है। इसमें आधुनिक चिकित्सा तकनीकों (जैसे सोनोग्राम या अल्ट्रासाउंड) का दुरुपयोग करके गर्भ में भ्रूण के लिंग का पता लगाया जाता है और यदि वह ‘लड़की’ है, तो गर्भपात करा दिया जाता है।

विरोधाभास (The Paradox):

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि निम्नतम बाल लिंग अनुपात भारत के सबसे समृद्ध क्षेत्रों (जैसे पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली) में पाए जाते हैं।

  • विश्लेषण: इसका अर्थ यह है कि चयनात्मक गर्भपातों की समस्या गरीबी या अज्ञान अथवा संसाधनों के अभाव के कारण नहीं है।
  • बल्कि, यह “बेटे को अधिमान्यता” (son preference) की गहरी सांस्कृतिक जड़ और इन तकनीकों (अल्ट्रासाउंड) तक पहुँच और खर्च करने की क्षमता के कारण है।
  • सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए ‘प्रसवपूर्व नैदानिक प्रविधियाँ (PNDT) अधिनियम’ (1996, 2003 में संशोधित) लागू किया है, जो लिंग-चयन को अवैध बनाता है, तथा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए हैं।

निष्कर्ष

भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना हमारे लिए एक मिश्रित तस्वीर प्रस्तुत करती है।

  • जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में, भारत ने मृत्यु दर पर काबू पाकर ‘जनसंख्या विस्फोट’ के चरण का अनुभव किया है और अब धीरे-धीरे संक्रमण के तीसरे चरण की ओर बढ़ रहा है।
  • जनसंख्या संरचना के संदर्भ में, भारत दोराहे पर खड़ा है:
    1. आयु संरचना हमें “जनसांख्यिकीय लाभांश” का एक सुनहरा अवसर प्रदान करती है, लेकिन यह अवसर तभी भुनाया जा सकता है जब हम अपने युवाओं को शिक्षित और रोज़गार-संपन्न बना पाएँ।
    2. लिंग संरचना एक गंभीर सामाजिक संकट को दर्शाती है। गिरता हुआ बाल लिंग अनुपात “बेटे को अधिमान्यता” और लैंगिक भेदभाव का प्रतीक है, जो हमारी आर्थिक समृद्धि के बावजूद जारी है।

इस प्रकार, जनसांख्यिकी केवल आँकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि यह हमारे सामाजिक मूल्यों, हमारी आर्थिक प्राथमिकताओं और हमारे राष्ट्र के भविष्य का दर्पण है।

Leave a Comment