12th History Early Society 600 BC to 600 AD Social structure and fraternities

बंधुत्व, जाति तथा वर्ग: आरंभिक भारतीय समाज (लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी)

12th History Early Society 600 BC to 600 AD Social structure and fraternities : लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी तक का काल भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक संरचना, बंधुत्व, और वर्ग व्यवस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था। इस काल में हड़प्पा सभ्यता के बाद के लंबे अंतराल में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों ने नई सामाजिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। यह वह समय था जब महाजनपदों का उदय हुआ, नगरीकरण और व्यापार में प्रगति हुई, और बौद्ध तथा जैन धर्म जैसे नए दार्शनिक विचारों ने सामाजिक संरचना को प्रभावित किया। इस लेख में आरंभिक भारतीय समाज की सामाजिक संरचना और बंधुत्व की विशेषताओं, उनके विकास के कारकों और उनके प्रभावों पर चर्चा की जाएगी।

सामाजिक संरचना: बंधुत्व और कबीलाई व्यवस्था

आरंभिक भारतीय समाज में बंधुत्व (kinship) सामाजिक संगठन का आधार था। बंधुत्व ने परिवार, कबीले, और समुदाय के बीच संबंधों को परिभाषित किया और सामाजिक एकता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1. बंधुत्व का महत्व

  • कबीलाई संरचना: इस काल के प्रारंभ में, विशेष रूप से हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद, उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में कबीलाई समुदाय प्रचलित थे। ये समुदाय रक्त संबंधों और सामूहिक पहचान पर आधारित थे। उदाहरण के लिए वज्जि और मल्ल जैसे गणराज्य कबीलाई बंधुत्व पर आधारित थे, जहाँ शासन सामूहिक रूप से संचालित होता था।
  • सामूहिक संसाधन नियंत्रण: बंधुत्व-आधारित समुदायों में भूमि, पशुधन और अन्य संसाधनों पर सामूहिक नियंत्रण होता था। यह सामाजिक और आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देता था।
  • विवाह और सामाजिक बंधन: विवाह के माध्यम से विभिन्न कबीलों और समुदायों के बीच संबंध स्थापित किए जाते थे, जो सामाजिक एकता और गठबंधनों को मजबूत करते थे।

2. वर्ण और जाति व्यवस्था का उदय

  • वर्ण व्यवस्था: इस काल में वर्ण व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) अधिक स्पष्ट और संगठित रूप में उभरी। धर्मशास्त्र ग्रंथों और ब्राह्मण साहित्य में वर्णों के कर्तव्यों और सामाजिक भूमिकाओं का वर्णन किया गया। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों को धार्मिक और बौद्धिक कार्य, क्षत्रियों को शासन और युद्ध, वैश्यों को कृषि और व्यापार, और शूद्रों को सेवा कार्यों के लिए जिम्मेदार माना जाता था।
  • जाति की प्रारंभिक अवस्था: वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे अधिक जटिल जाति व्यवस्था में विकसित होने लगी। विभिन्न व्यवसायों और क्षेत्रीय समुदायों के आधार पर उप-जातियाँ (जातियाँ) उभरीं। यह प्रक्रिया नगरीकरण और आर्थिक विशेषज्ञता के साथ और तेज हुई।
  • सामाजिक गतिशीलता: यद्यपि वर्ण व्यवस्था कठोर थी बौद्ध और जैन धर्मों ने सामाजिक समानता के विचारों को बढ़ावा दिया, जिसने कुछ हद तक सामाजिक गतिशीलता को प्रोत्साहित किया। व्यापारी और शिल्पकार जैसे वर्गों की स्थिति में सुधार हुआ।

सामाजिक वर्ग और आर्थिक आधार

सामाजिक संरचना का विकास आर्थिक परिवर्तनों से निकटता से जुड़ा था। इस काल में कृषि, व्यापार और शिल्प ने सामाजिक वर्गों को आकार दिया।

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1. कृषक और ग्रामीण समुदाय

  • कृषि इस काल की अर्थव्यवस्था का आधार थी। उपजाऊ गंगा मैदानों में धान, गेहूँ, और जौ जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ा, जिसने अधिशेष उत्पादन को संभव बनाया। यह अधिशेष नगरीकरण और व्यापार के विकास का आधार बना।
  • किसान (वैश्य) सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। शासकों द्वारा उनसे कर और भेंट वसूल की जाती थी, जो अनाज या अन्य उत्पादों के रूप में हो सकती थी।
  • ग्रामीण समुदायों में चरवाहा और वनवासी समुदाय भी शामिल थे, जो पशुपालन और वन संसाधनों पर निर्भर थे। उनके सामाजिक और आर्थिक योगदान को पूरी तरह समझने के लिए स्रोत सीमित हैं, लेकिन वे अर्थव्यवस्था में विविधता लाते थे।

2. नगरीय वर्ग: व्यापारी और शिल्पकार

  • नगरीकरण के साथ व्यापारी और शिल्पकार जैसे नए वर्ग उभरे। ये समुदाय नगरों जैसे पाटलिपुत्र, वाराणसी और तक्षशिला में केंद्रित थे।
  • व्यापारी (वैश्य) स्थानीय और क्षेत्रीय व्यापार में सक्रिय थे, और सिक्कों के प्रारंभिक उपयोग ने उनके कार्यों को और सुगम बनाया।
  • शिल्पकारों ने मिट्टी के बर्तन, कपड़े और लोहे के औजार बनाए जो व्यापार के लिए महत्वपूर्ण थे। शिल्पकार संगठन (श्रेणी) ने उत्पादन और वितरण को संगठित किया।

3. शासक और प्रशासक

  • क्षत्रिय वर्ण के शासक और उनके प्रशासक सामाजिक संरचना में उच्च स्थान रखते थे। महाजनपदों और बाद में मौर्य साम्राज्य में, शासकों ने सैन्य और प्रशासनिक शक्ति का उपयोग करके सामाजिक व्यवस्था को नियंत्रित किया।
  • मौर्य साम्राज्य में नौकरशाही, जैसे अमात्य और धम्म-महामात्र ने सामाजिक और आर्थिक नीतियों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव

बौद्ध और जैन धर्मों का उदय इस काल में सामाजिक संरचना पर गहरा प्रभाव डालने वाला था:

  • समानता के विचार: इन धर्मों ने वर्ण और जाति की कठोरता को चुनौती दी और सभी व्यक्तियों के लिए नैतिकता और आध्यात्मिक विकास पर जोर दिया। बौद्ध संघ और जैन समुदायों में विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग शामिल हुए।
  • नगरीय समुदायों का समर्थन: व्यापारी और शिल्पकार वर्गों ने इन धर्मों को समर्थन दिया, क्योंकि ये उनके सामाजिक और आर्थिक उत्थान को बढ़ावा देते थे।
  • सामाजिक सुधार: अशोक जैसे शासकों ने बौद्ध धर्म के प्रभाव में धम्म नीति लागू की, जिसने सामाजिक कल्याण और नैतिकता को प्रोत्साहित किया।

पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोत

इतिहासकार इस काल की सामाजिक संरचना और बंधुत्व का अध्ययन करने के लिए निम्नलिखित स्रोतों का उपयोग करते हैं:

  • बौद्ध और जैन ग्रंथ: ये ग्रंथ सामाजिक संगठन, गणराज्यों और वर्ण व्यवस्था की जानकारी प्रदान करते हैं।
  • धर्मशास्त्र और ब्राह्मण ग्रंथ: ये वर्णों और सामाजिक कर्तव्यों का वर्णन करते हैं।
  • पुरातात्विक साक्ष्य: नगरों, सिक्कों और लोहे के औजारों के अवशेष सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को दर्शाते हैं।
  • अशोक के शिलालेख: ये सामाजिक नीतियों और धम्म के प्रभाव को दर्शाते हैं।

निष्कर्ष

लगभग 600 ई.पू. से 600 ईसवी तक का काल भारतीय समाज में बंधुत्व, वर्ण और वर्ग व्यवस्था के विकास का एक महत्वपूर्ण चरण था। बंधुत्व ने कबीलाई समुदायों को संगठित किया जबकि वर्ण और जाति व्यवस्था ने सामाजिक संरचना को परिभाषित किया। कृषि अधिशेष, नगरीकरण और व्यापार ने नए सामाजिक वर्गों को जन्म दिया और बौद्ध व जैन धर्मों ने समानता के विचारों को बढ़ावा दिया। यह काल भारतीय सभ्यता की सामाजिक और आर्थिक नींव को मजबूत करने में महत्वपूर्ण था, जिसने बाद के साम्राज्यों और समाजों के लिए आधार तैयार किया।

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